अंधकार का पर्याय बन जाता है ऐसा ज्योतिष

August 1997

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महाराज शीलभद्र जितने रण-कुशल थे, उतने ही नीतिकुशल। उनके शौर्य और पराक्रम से अपराधियों, दस्युओं और समाजद्रोहियों के दिल दहलते थे। पड़ोसी राजा उनसे सन्धि रखने में ही अपनी कुशलता समझते थे। उनकी नीति एवं न्यायप्रियता की वजह से सौराष्ट्र की जनता उन्हें अपना शासक मानने की बजाए पिता मानने में गौरव अनुभव करती थी। हर कोई उन्हें पिता महाराज या बापू महाराज कह कर सम्बोधित करता था। सौराष्ट्र नरेश को भी अपनी प्रजा से अतिशय प्यार था। उन्हें अपने राज्य के नागरिकों के कष्ट-निवारण में आत्मिक तुष्टि का अनुभव होता था।

प्रत्येक माह की पहली तारीख को महाराज प्रजा की समस्याओं को सुनने के लिए विशेष बैठक करते थे। प्रजा बहुत खुश थी। महाराज के सद्व्यवहार की चर्चा सौराष्ट्र के हर घर में थी, परन्तु महाराज के मन में जब-तब दुःख का सैलाब उमड़ता रहता। वह सन्तान न होने की गहरी पीड़ा से आकुल हो उठते थे। महाराज की तीन रानियाँ थीं-सुनन्दा सारंगा व बिन्दुमती। प्रजाजनों के आग्रह एवं मन्त्रियों के अनुरोध से ही महाराज तीन विवाह करने के लिए विवश थे।

गुणसम्पन्न महाराज के व्यक्तित्व में एक दोष था-ज्योतिष पर अन्धश्रद्धा। इस अन्धश्रद्धा की वजह से ही ज्योतिष उनके लिए प्रकाश नहीं अन्धकार का पर्याय बन गया था। महाराज हर काम करने के पूर्व राजज्योतिष बुद्धसेन की सलाह अवश्य लेते। बुद्धसेन का हाँ या नहीं उनके कार्यों का निर्धारण-नियमन करती। यदा-कदा तो ज्योतिष एवं ग्रह-गोचर के चक्रव्यूह में जनहित के कार्य भी आधे-अधूरे पड़े रहते। राज्य के प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन को महाराज की इस अन्धश्रद्धा पर जब-तब बहुत खीज़ होती। परन्तु वह भी राजहठ के कारण विवश हो जाते।

महाराज के जीवन प्रवाह की सामान्य मन्थर गति में एक दिन अचानक उल्लास का ज्वार आ गया। महाराज उस दिन राजदरबार में बैठे राजकीय गतिविधियों का संचालन कर रहें थे, तभी अन्तःपुर की दासी ने आकर सूचना दी कि महारानी बिन्दुमती ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। समाचार को सुनते ही सभी सभासद खुशी के समुद्र में डूब गये। कई पल की खुशियों भरी चुप्पी के बाद दरबार में बधाइयों का ताँता लग गया। हर कोई महाराज को राजकुमार के जन्म पर बधाई दे रहा था। प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन तो राजकीय समारोह के मंसूबे बनाने लगे थे।

तभी महाराज शीलभद्र ने राज-ज्योतिष को दरबार में बुलवाया और पूछा-बुद्धसेन राजकुँवर का कैसा भाग्य है ? क्या सचमुच सौराष्ट्र की जनता का भाग्य जगा है ? क्या नवजात राजकुँवर सौराष्ट्र की यशकीर्ति की और अधिक देदीप्यमान करेंगे। बुद्धसेन को पूरे सौराष्ट्र में ग्रह-नक्षत्रों की गति-चाल का विशेषज्ञ माना जाता था। महाराज के प्रश्नों के उत्तर में बुद्धसेन काफी देर मौन रहें, लेकिन उनके होठों की मद्धिम गति बता रही थी कि वे मन ही मन कुछ गणना करने में व्यस्त है।

अचानक उनके चेहरे पर उदासी के भाव घिर आये। वह खिन्न होकर कहने लगे- महाराज राजकुँवर के जन्म से सौराष्ट्र का भाग्य दाँव पर लग गया है। यदि जन्म के चौबीस घण्टे के अन्दर राजकुँवर का वध न किया गया तो सम्पूर्ण सौराष्ट्र एक बहुत बड़े संकट में फँस सकता है। चौबीस घण्टे की अवधि पार होते ही राजमहल की बड़ी भारी क्षति होगी, सौराष्ट्र के बचाव के लिए शीघ्र ही कोई उपाय ढूँढ़ा जाये। यह सुनकर महाराज ही नहीं सभी काँप गये। उल्लास की उमंगती लहरें स्तब्ध शान्ति में बदलने लगीं। किसी को यह समझ में नहीं आ रहा था ऐसे में कौन क्या कहे ? कौन क्या करे ? महारानियों की मनःस्थिति से सभी वाकिफ थे। वे सौराष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकती थीं। महाराज ने उसी समय एक निर्णय लिया एवं प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन को बुलवाकर कहा-मन्त्री जी! आज सौराष्ट्र का भविष्य खतरे में है। देश की गरिमा किसी भी व्यक्ति के ऊपर है। फिर वह चाहे राजा या राजकुमार ही क्यों न हो। इसलिए तुम शीघ्र ही दूर जंगल में जाकर इस नादान राजकुमार का वध कर आओ। साथ ही प्रमाण के रूप में कुछ साक्ष्य भी देखना चाहता हूँ, जाओ देर न करो।

नवजात शिशु की हत्या, प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन का अन्तःकरण काँप उठा। वह सोचने लगें कि जो बालक अभी-अभी पैदा हुआ है, जो अभी अपना स्वयं का भी हित-अहित नहीं कर सकता है। ऐसा नितान्त असहाय शिशु भला चौबीस घण्टे बाद ही समूचे सौराष्ट्र का किस तरह अहित कर सकेगा। उन्हें ज्योतिषी का कथन एक रूढ़ी एवं मूढ़ता के सिवा और कुछ नहीं लग रहा था, परन्तु महाराज को किस तरह समझाया जाय ?

कुछ सोचते हुए उन्होंने महाराज शीलभद्र से निवेदन किया-महाराज राजकुँवर अभी शिशु है, नवजात शिशु की हत्या धार्मिक दृष्टि से अपराध है। पुराण कथाओं में भी कंस, पूतना, वक्रासुर आदि बालघातियों को पापी व राक्षस की संज्ञा दी गयी है। आप जैसे महाज्ञानी को ऐसा आदेश देना शोभा नहीं देता।

तुम ज्योतिष ज्ञान से अनभिज्ञ हो गन्धर्वसेन। राजकुँवर के ग्रह-नक्षत्र अपने सौराष्ट्र के लिए ठीक नहीं। ऐसी स्थिति में कुँवर का वध ही उचित है। उनकी हत्या के लिए निर्देश मैं अपनी रुचि के कारण नहीं विवशतावश दे रहा हूँ।

लेकिन महाराज ! प्रतिवाद नहीं मन्त्रीवर ! आज्ञा का पालन अविलम्ब होना चाहिए।

जो आज्ञा ! कहते हुए उन्होंने राजहठ के सामने सिर झुका दिया।

इसी के साथ ही वह भारी कदमों से महल में गये और स्वर्णपालकी में खेल रहे नवजात राजकुमार को उठा लिया। सौराष्ट्र के भविष्य के लिए महारानियाँ अपना हृदय चीर कर यह दृश्य देखती रहीं। प्रजा विलाप करती हुई विदा होते राजकुमार के कल्याण के लिए मनौतियाँ मनाने लगें।

नन्हा राजकुमार मानो सौराष्ट्र की भूमि, प्रजा व महाराज, महारानियों को आखिरी बार प्रणाम कह रहा हो कि मैं सौराष्ट्र की धरती के संकट की वजह नहीं हूँ।

आखिर महामन्त्री पालने में खेलते हुए राजकुमार को ले गया। जड़-चेतन सभी यह दृश्य देखकर स्तब्ध थे। मन्त्री ने एक हाथ से नन्हें राजकुमार की पालकी को पकड़ा तो दूसरे हाथ से तेज धार वाली तलवार को, जिससे राजकुमार का अन्त होना था। प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन का हृदय बार-बार भर रहा था। वह बार-बार समाज की रूढ़ियों एवं मूढ़ताओं को कोस रहे थे। भला ऐसे देवरूप राजकुमार का वध वह कैसे कर सकेंगे ? यह सोचते-सोचते नगर से बहुत दूर घने जंगल को पार करते हुए काफी दूर निकल गये।

चलते-चलते जब महामन्त्री गन्धर्वसेन बहुत थक गये तो उन्हें बहुत प्यास लगी। सामने ही एक नदी थी, वह नदी के किनारे गये। उन्होंने पालने में झूलते राजकुमार को नदी के तट पर रख कर पानी पिया व अंजुली भर पानी राजकुमार को भी पिलाया। उस अबोध शिशु को देखकर उनका मन रो उठा। उनके मन में आया कि राजकुमार का वध करने की बजाय वह इस तलवार से अपनी ही गर्दन काट दें या बहती नदी में छलाँग लगा दें। आखिर ईश्वर के निर्माण की हत्या करने वाला वह कौन होता है ? उसने हाथ में पानी लिया और भगवान से प्रार्थना करने लगा।

हे प्रभु ! क्या तुम्हें मेरी इस स्थिति पर दया नहीं आती ? मैं कैसे आपकी सन्तान का वध करूँ ? मेरा हृदय काँप रहा है। मैं अपनी गर्दन काट सकता हूँ, लेकिन महाराज के आदेश का उल्लंघन भी कैसे कर सकता हूँ। मेरी सहायता करो भगवान। कहकर महामन्त्री फूट-फूट कर रोने लगें। उनका रोना सुनकर ईश्वरीय प्रेरणावश वनवासी परिवार की कोई महिला आ गयी। अपने सामने इस अपरिचित महिला को देखकर वह स्तब्ध रह गये।

महामन्त्री से सारे सौराष्ट्रवासी परिचित थे। इस राजाज्ञा की चर्चा भी सर्वत्र थी। वनवासियों के कानों में भी इसकी भनक पड़ चुकी थी। प्रधानमन्त्री ने इस महिला को अपने मन की बात कह सुनाई। महिला का नारी हृदय अबोध शिशु को देखकर छलक उठा। उसने गन्धर्वसेन को अपनी योजना बतायी- यह राजकुमार तुम मुझे दे दो। तुम्हारी तलवार से मैं अपनी एक अंगुली काट डालती हूँ, जिससे तुम्हारी तलवार खून से सन जाय व महाराज को विश्वास हो जाय कि तुमने राजकुँवर का वध किया है। साथ ही चौबीस वर्ष के बाद यहीं राजकुमार महाराज को फिर मिलेगा-यह बात केवल तुम्हीं तक रहेगी। किसी के प्राणों की रक्षा के लिए बोला गया झूठ भी बड़ा सत्य एवं धर्म के बराबर होता है। ये दो अँगूठियाँ हैं, एक तुम पहनो व दूसरी राजकुमार के पास रहेगी, जिससे तुम वर्षों बाद उसे पहचान सकोगे। इतने वर्षों तक तुम्हें इस बात को गोपनीय ही रखना होगा। अब तुम जाओ। कहकर वह महिला राजकुमार के साथ घने वन में अदृश्य हो गयी।

प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन मन ही मन प्रसन्न होकर राजमहल की ओर लौट आए। वनवासी महिला की अंगुली काट खून से तलवार सनने की बात गन्धर्वसेन को हिला देती थी। वह परेशान हो उठें। कहीं महाराज को पता चल गया तो ? सोचते-विचारते दो दिन के बाद राजमहल में पहुँचे। जब उन्होंने खून से सनी तलवार महाराज शीलभद्र को दिखाई तो उन्हें विश्वास हो गया कि प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन ने नन्हें राजकुमार का वध कर दिया है। रानी बिन्दुमती भी हृदय पर पत्थर रखकर यह सब सहन कर गयीं। कुछ समय बाद स्थिति सामान्य हो गयी। नन्हें राजकुमार की बात सब भूल गये।

समय बीतता गया। राजकुमार का जन्म होना इतिहास की घटना हो गयी। समस्त प्रजा सुख-साधनों से सम्पन्न थी। महाराज भी प्रसन्न थे। हाँ सौराष्ट्र के भविष्य की बात कभी-कभी महाराज को अवश्य दुःखी करती, लेकिन वे कर भी क्या सकते थे ? बूढ़े हो चले थे, किन्तु महामन्त्री अभी जवान थे। जब महाराज को लगा कि वे कुछ ही दिन में यह संसार छोड़ देंगे, तो एक दिन उन्होंने उदास होकर महामन्त्री को अपने राजमहल में बुलाया और कहा-

मन्त्री जी! अब मैं कुछ ही दिन का मेहमान हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरी मृत्यु से पहले तुम्हारा विवाह व राजतिलक कर दूँ ताकि सौराष्ट्र की प्रजा दुःखी न रहे। तुममें एक योग्य शासक के सभी गुण मैं देखता आया हूँ। ईश्वर के विधान को भला कौन चुनौती दे सकता है। मैं तुम्हारी उपलब्धियों से प्रसन्न हूँ। यह सब देखकर मुझे प्रसन्नता होगी।

राजा को अशान्त देख मन्त्री गन्धर्वसेन कहने लगें- महाराज आप मेरे पिता तुल्य हैं। आपने जीवन भर इतना तप, त्याग किया है। अपनी प्रजा को पुत्रवत् पाला है। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि आपके वंश का दीपक बुझ जाये। इसी के साथ उन्होंने विस्तार से सारी कथा कह सुनाई। अपनी बात का उपसंहार करते हुए वह बोले-महाराज युवराज अपने ही सौराष्ट्र के जंगलों में रह रहें हैं। उनके विद्याध्ययन की व्यवस्था भी चुपचाप होती रही है। अब वह चौबीस वर्ष के हो गये हैं। आप जानते हैं कि इन चौबीस वर्षों में अपने सौराष्ट्र ने दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति की है। क्या अब भी आपको ज्योतिषी बुद्धसेन की भविष्यवाणी पर विश्वास है ?

सारी बातें सुन कर शीलभद्र समेत सारे राजपरिवार की खुशी का पारावार न रहा। शीघ्र ही महाराज को अपनी भूल का एहसास भी हो आया। उन्होंने भावावेश में गन्धर्वसेन को गले से लगा लिया। राज-परिवार के सभी सदस्य प्रधानमन्त्री के साथ वन की ओर चल पड़ा । वनवासियों ने हर्षोल्लास के साथ युवराज को महाराज को सौंप दिया।

सम्पूर्ण सौराष्ट्र में हर्ष की लहर दौड़ गयी। महाराज ने युवराज देवसेन का भव्य समारोह पूर्वक राजतिलक कर दिया तथा महामन्त्री गन्धर्वसेन को सौराष्ट्र के प्रति किया गया अथक त्याग व सूझ-बूझ से अभिभूत होते हुए उनसे पूछा-मन्त्रीवर ! मैं तुम्हारा चिरऋणी हूँ। अपना सर्वस्व देकर भी मैं तुम्हारा ऋण तो नहीं चुका सकता, फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिए तुम कुछ माँग लो।

महाराज के इस कथन पर गन्धर्वसेन ने विनम्रता से कहा-महाराज यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे यही चाहता हूँ कि अपने देश के शासक वर्ग एवं समाज को रूढ़ियों, मूढ़ताओं एवं अन्धपरम्पराओं से छुटकारा दिलाने के लिए प्राणपण से यत्न किया जाये। प्रधानमन्त्री गन्धर्वसेन के इस कथन को सभी ने जीवनसूत्र के रूप में स्वीकार करने की शपथ ली।


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