जो भी ग्रहण करें, वह पवित्र एवं परिष्कृत हो

August 1997

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आहार से समस्त प्राणी जीवन पाते हैं और सम्पूर्ण शरीरतन्त्र क्रियाशील बना रहता है, यह इसका सर्वमान्य गुण है। इससे थोड़ा ऊपर उठकर विचार करने पर मनुष्य में शुद्ध-अशुद्ध इसकी दो श्रेणियाँ हो जाती हैं, भौतिक दृष्टि से नहीं, आत्मिक और अध्यात्मिक दृष्टि से। आर्ष वांग्मय में आहार को इससे भी अधिक व्यापक अर्थ में लिया गया है।

यों तो आहार का सामान्य अर्थ भोजन होता है, वह भोजन, जिससे हमारे अंग-अवयव समर्थ और शक्तिवान बन सकें और उसे ग्रहण करने वाला जीवित रह सके। स्थूल आहार का इससे अधिक मूल्य और महत्व नहीं। सामान्य जीवन में इससे भौतिक ऊर्जा और शक्ति ही मिल सकती है, पर यदि उस समर्थता को जगाने और उभारने की आकांक्षा हो, जिसे पाकर क्षुद्र महान् और साधक विभूतिवान बनते हैं, तो हमें आहार के उस पहलू पर भी विचार करना पड़ेगा, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जिसे आर्ष वांग्मय में “आहारशुद्धी सत्वशुद्धीः सत्वशुद्धौ धुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनाम् विप्रमोक्षः।” यह कह कर अभिहित किया गया है।

छान्दोग्य उपनिषद् के इस सूत्र में आहार का आशय मात्र खाद्य पदार्थ नहीं समझना चाहिए। वह तो भोजन का एक छोटा-सा हिस्सा है और आत्मोन्नति की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं है। अध्यात्म जगत में वह सारी चीजें आहार के अन्तर्गत आती है, जिन्हें बाहर से भीतर ग्रहण किया जाता है। आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा यह मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं पाँचों से हम बाहरी दुनिया को अपने अन्दर आमन्त्रित और अनुभव करते हैं। आँख से रूप, कान से शब्द, नाक से गन्ध, त्वचा से स्पर्श और जीभ से स्वाद का आनन्द लेते हैं। भौतिक जीवन में इनके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। जिस व्यक्ति में यह अवयव कमजोर अथवा खराब हो गये हों, उसके लिए तो संसार एक प्रकार से नीरस-निरानन्द बन जाता है। अन्धों के आँखें नहीं होती, अतः उनके लिए रात-दिन रूप-कुरूप सुन्दर-असुन्दर जैसे दृश्य जगत के उपादानों का कोई मूल्य रह नहीं जाता। जहाँ सामने कोई रूप अथवा दृश्य न हो, वहाँ किसी दृश्य की कल्पना कर पाना कितना कठिन होगा, इसे किसी दृष्टिहीन से मिलकर जाना जा सकता है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि अन्धों को सपने में दृश्य नहीं, वरन् ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। कारण स्पष्ट है-अचेतन मस्तिष्क भी स्वप्नावस्था में तभी सपने गढ़ पाने में समर्थ होता है, जब वह उन्हें जाग्रत अवस्था में देख और अनुभव कर चुका हो। जहाँ किसी भी प्रकार की छवि ही नहीं, उसकी अनुकृति भला वह किस प्रकार गढ़ा ! इसलिए नेत्रहीनों की दुनिया एक तरह से रसहीन ही कहनी पड़ेगी । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि सम्पूर्ण जगत का अस्सी प्रतिशत ज्ञान आँख से प्राप्त करते हैं, शेष का बीस प्रतिशत बाकी की चार इन्द्रियों से। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आँख कितना उपयोगी अंग है। जगत में जो कुछ भी सुन्दर, सुखद और आकर्षक है, वह नेत्रों के कारण है। नेत्र न हो, तो दुनिया कितनी उबाऊ प्रतीत होगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यह नेत्र की भौतिक विशेषताएँ हुईं। उसके आध्यात्मिक महत्व भी कम नहीं। हम आध्यात्मिक मूल्य के कितने ही दृश्य प्रतिदिन देखते रहते हैं, पर उनसे तद्नुरूप प्रेरणा ग्रहण करने के लिए तत्वदृष्टि चाहिए। इसके अभाव में ही मनुष्य उनसे वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते, जो अन्तराल को समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक है। सामान्य दृष्टि एक नारी को रमणी और कामिनी के रूप में देखती है, पर तत्वदृष्टि उसमें भगिनी एवं जननी का रूप निहारती है। यही दोनों के बीच मौलिक अन्तर है। एक उसे पाप-पंक की ओर ढकेलती है, तो दूसरी उसको ईश्वरोन्मुखी बनाती है। इनमें से जो जिसे जितने अंशों में अपनाते और जिस अनुपात में पवित्रता-अपवित्रता धारण करते हैं, उनके लिए आत्मिक क्षेत्र में सफलता-असफलता का नतीजा उसी परिमाण में सामने आता है।

बोलने की सार्थकता सुनने में है। हम सुन न पाये, तो हमारा बोलना बेकार और निरुपयोगी बन जाता है। आनन्द उठाने का एक माध्यम श्रवण तन्त्र भी है। नैराश्य एवं विशाद के कितने ही अवसरों को मनुष्य गीत, संगीत तथा महापुरुषों की वाणियाँ सुनकर गुजार देता है। इनसे उन्हें सुख और सन्तोष की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि से कान बहुत उपयोगी अंग है, क्योंकि एक ओर जहाँ वे शब्द-संसार में प्रविष्ट कराकर आदमी को मनोरञ्जन प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर कष्ट-कठिनाइयों में दूसरे के आश्वासन भरे शब्दों के द्वारा मन को धीरज और शीतलता प्रदान करते हैं। यह श्रवण तन्त्र का एक पक्ष हुआ। इसका एक दूसरा पहलू भी है, जो निषेधात्मक है। निषेधात्मक इसलिए कि वह व्यक्ति को निम्नगामी बनाने में संलग्न रहता है। इन दिनों इसका यही पक्ष अधिक सक्रिय है। कान आजकल अच्छाई को ग्रहण और धारण करने में जितनी रुचि नहीं दिखाते, उससे ज्यादा उत्साह बुराई सुनने में अपनाते देखे जाते हैं।

कहीं प्रवचन हो रहें हों, कहीं उपदेश सुनाए जा रहें हों, कहीं धार्मिक आख्यान चल रहें हों पर इन्हें सुनने में कितने लोग रुचि दिखाते हैं। यह कोई छुपी हुई बात नहीं, अधिसंख्यक लोग तो अश्लील गीत-संगीत श्रवण करने एवं ऐसे प्रसंगों को जानने में उत्कण्ठा प्रदर्शित करते हैं, जिससे कि उनका अपना स्वार्थ सिद्ध हो सके, भले ही उससे सामने वाले का, समाज का और राष्ट्र का कितना ही अहित क्यों न होता हो। आज सही, सच्चे और ईमानदार लोगों की बातों पर हम कहाँ कान दे पाते हैं ? पर जो फरेबी है, बेईमान और झूठे हैं, जिनका काम ही तिल का ताड. और राई का पर्वत बनाना तथा सब्जबाग दिखाना है, उन पर सरलतापूर्वक विश्वास कर लेते हैं। यह हमारे श्रवण अंग की कमजोरी और व्यक्ति का सबसे बड़ा दोष है।

शब्द शक्ति की प्रतिनिधि अंग जिह्वा है। बाह्य संसार से यह भी कितनी ही प्रेरणाएँ ग्रहण करती हैं। सामान्य बोलचाल का उत्तर इशारों में भी दिया जा सकता है, पर जहाँ गाली-गलौज हो रही हो, वहाँ उससे चुप रहते बन नहीं पड़ता । जरूरी नहीं कि गाली का उत्तर गाली से दिया जाये। यह ठीक है कि लोहा को काटने के लिए लोहा चाहिए, पर एक दूसरा तरीका यह भी है कि मौन साध लिया जाये। महानता इसी में है, अन्यथा हर प्रसंग का जवाब यदि हर एक को दिया जाने लगे तो कलह-कटुता बढ़ेगी और नौबत मार-पीट से लेकर खून-खच्चर तक पहुँच जाएगी। आग में घी डालने से अग्नि का भड़कना स्वाभाविक है, इसलिए उचित यही है कि आग को स्वयं ही जलकर शान्त हो जाने दिया जाय। इससे अनावश्यक ऊर्जा का क्षरण रुकेगा और संघर्ष टलेगा एवं अन्तराल में शान्ति का अवतरण होगा।

इसी प्रकार स्पेशेन्द्रिय और घ्राणेंद्रिय से भी हमें दिव्यता का ही ग्रहण और धारण करना चाहिए। यदि ऐसा हो सका, तो हमारे सत्व अर्थात् स्वरूप के ऊपर आवरण और आच्छादन नहीं चढ़ेंगे। जो भीतर है, वह हमारा सत्व है, स्वरूप है। हम जो बाहर से ग्रहण करते हैं, वह आहार है। यदि यह शुद्ध हुआ तो हमारे अन्दर जो छुपा हुआ स्वरूप है, वह ढकेगा नहीं, मलिन नहीं पड़ेगा वरन् और निखरेगा तथा प्रखर बनेगा। यही वह स्थिति है, जो हर एक के लिए वाँछित और अभीष्ट है, पर यह प्राप्त कैसे हो ? छान्दोग्य उपनिषद् में ऋषि इसी का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-” आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः “ अर्थात् समग्र आहार-शुद्धि से कम कीमत पर किसी भी प्रकार इस अवस्था को उपलब्ध नहीं किया जा सकता है।

आहार का ही एक छोटा हिस्सा भोजन है। निश्चय ही भोजन पर ध्यान दिया जाना चाहिए, पर वही सबकुछ नहीं है। इस सम्बन्ध में इतना ही विचार करना काफी है कि वह कैसा है ? नैतिक अथवा अनैतिक। उसकी प्रकृति कैसी है ? सात्विक या तामसिक। जब भोजन बिना किसी हिंसा और पीड़ा के उपलब्ध हो सकता है, तो माँसाहार की क्या उपयोगिता ? जब अन्न, फल और शाक परिपूर्ण और पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराते हों, तो पशुओं को मारना कितना उचित है ? उपर्युक्त दोषों के कारण भोजन प्रायः खाने के अयोग्य हो जाता है। इन दो कारणों को छोड़ दिया जाये, तो फिर भोजन की भूमिका आत्मोन्नति के क्षेत्र में कोई विशेष रह नहीं जाती। इसलिए आत्मोत्थान के इच्छुकों को उस सर्वोपरि आहार पर ध्यान देना चाहिए, जो हमारी इन्द्रियाँ बाहर से ग्रहण करती हैं। वह यदि शुद्ध, सुन्दर और श्रेष्ठ हुआ, तो अन्तराल को, जीवात्मा को भी अपने अनुरूप उदात्त और उत्कृष्ट बनाता चलेगा, किन्तु यदि निम्न स्तर का निकृष्ट हुआ, तो उसे हेय और हीन बनाने में भी कोई कसर उठा न रखेगा। इसलिए यहाँ सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

इन दिनों बुद्धि का विकास चरम स्तर तक हुआ है, अतएव जिस भी तथ्य को अपने पक्ष में करना हो, बुद्धि-कौशल के द्वारा तद्नुरूप तर्क प्रस्तुत कर दिया जाता है। आजकल अहिंसा के पुजारी अहिंसा के सम्बन्ध में एक नई दलील देते हैं। वे कहते हैं कि हिंसा होने में रक्त बहता है, अतः खून-खच्चर को हिंसा मानना पड़ेगा । इसके विपरीत जहाँ रुधिर नहीं बहता, भले ही हिंसा हुई हो, तो वहाँ वह हिंसा की परिधि में नहीं आता। विचित्र तर्क है। शायद माँसाहार को अपने पक्ष में करने के लिए उन्होंने यह परिभाषा गढ़ी हो, और इसके अनुकूल हिंसा की अहिंसक विधि खोजी हो, कारण कि अहिंसावादियों के लिए हिंसा द्वारा प्राप्त भोजन अस्पृश्य है, अस्तु उन्हें किसी ऐसे तर्क की आवश्यकता थी, जिसके द्वारा हिंसा को अहिंसक सिद्ध किया जा सके। उपर्युक्त दलील द्वारा उन्होंने यही किया। तिब्बत के कई हिस्सों में लोग पाये जाते हैं, जो स्वयं को अहिंसावादी मानते हैं, पर माँसभक्षण से परहेज नहीं। जब माँस खाना हो तो वे बकरे को फाँसी के फन्दे से लटका देते हैं, प्राणान्त होने के उपरान्त उसे पकाकर खा जाते हैं। कहते हैं इसमें रक्त बहा नहीं, अस्तु यह अहिंसा है। अहिंसावाद के प्रवर्तक भगवान महावीर ने भी इस परिभाषा की शायद कल्पना नहीं की होगी, जैसी कि इन दिनों गढ़ी जा रही है। सच तो यह है कि इसमें हिंसा-अहिंसा की बात कम, बुद्धि-चातुर्य ज्यादा है। बौद्धिक चतुरता से लोगों को आकर्षित तो किया जा सकता है, आत्मिक उन्नति नहीं।

यहाँ किसी की निन्दा-आलोचना नहीं की जा रही है। कहा यह जा रहा है कि तथ्य को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और अपनाया नहीं गया एवं केवल बौद्धिक विलासिता में ही उलझा रहा गया, तो हाथ कुछ लगने वाला नहीं, उलटे समय, श्रम और ऊर्जा की बर्बादी होगी। वास्तविकता को अपना कर और ईमानदारीपूर्वक प्रयास कर ही हम आहारशुद्धी और सत्वशुद्धि के पश्चात् “ध्रुव स्मृति” के अगले चरण में पदार्पण कर सकेंगे। ध्रुवस्मृति अर्थात् स्थिर बोध। हम कौन हैं ? क्या हैं ? कहाँ से आए हैं ?कहाँ जाना है ? इसका ठीक-ठाक ज्ञान ही ध्रुव स्मृति है। स्मृति अर्थात् स्मरण याददाश्त नहीं। आत्मबोध की प्राप्ति के उपरान्त हम अन्तिम सोपान में प्रवेश करते हैं- स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनाम् विप्रमाक्षः। जिसे स्मृति लाभ हो गया है, जिसको आत्मज्ञान हो गया, उसकी सारी ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, वह बन्धन मुक्त हो जाता है। वासना, तृष्णा अहंता यह मनुष्य के बन्धन के निमित्त है। इनसे मनुष्य में ग्रन्थियाँ पड़ने लगती हैं। कोई लोभ की जंजीर में जकड़ा हुआ है, कोई मोह की जंजीर में, किसी को यश की कामना है, किसी को धन की, किसी को पद-प्रतिष्ठा की। सम्पूर्ण जीवन इसी कुचक्र में समाप्त हो जाता है। फिर भी उसकी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो पाती और आदमी दीन-हीन स्थिति में इस संसार से विदा हो जाता है, किन्तु जिसे आत्मलाभ हो गया, उसकी सारी ग्रन्थियाँ, सारी कामनाएँ, समस्त वासनाएँ विसर्जित हो जाती हैं। उसके आगे फिर कुछ भी नहीं, न धन, न पद, न प्रतिष्ठा कारण कि उसे परम् धन, परम् पद और परम् सुख की प्राप्ति हो गई होती है। यही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है।

उक्त स्थिति सिर्फ खाद्य-पदार्थों के नियमन, नियंत्रण और चयन द्वारा नहीं प्राप्त की जा सकती। इसके लिए समग्र आहार पर ध्यान देना होगा। एक आहार वह है, जो शरीर-रक्षा के लिए ग्रहण किया जाता है। दूसरा वह, जिससे आत्मा की भूख मिटती है। जीवात्मा भूखी हो और शरीर तृप्त हो इससे बात बनने वाली नहीं, हमें ऐसे उपाय करने पड़ेंगे, जिससे जीवात्मा प्रखर बन सके। तृप्ति-तुष्टि की अनुभूति कर सके, पूर्णता की प्रतीति हो और शान्ति अनुभव कर सके। ऐसे ही अध्ययन, श्रवण, सान्निध्य और दर्शन द्वारा उसे खुराक मिलती है। इन्हें यदि परिमार्जित तथा परिष्कृत नहीं किया गया, तो सत्वशुद्धि आत्मशुद्धि एवं आत्मोन्नति की बात करना बेमानी होगी। हम परिष्कृत अध्ययन, परिष्कृत चिन्तन, परिष्कृत श्रवण एवं परिष्कृत दर्शन करें तथा परिष्कृत वाणी बोलते हुए परिष्कृत ही आचरण करें। यदि ऐसा हो सका, तभी यह समझा जाना चाहिए कि समग्र आहार की अवधारणा और उसमें छिपे तत्त्वज्ञान को हम सही-सही समझ सकें, इससे कम में नहीं।


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