अध्यात्म हर दृष्टि से वरिष्ठ एवं वरेण्य है।

June 1996

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इस विश्व-ब्रह्मांड के प्रत्येक घटक की संरचना में दो तयि अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष। प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियगम्य है। परोक्ष वह है जो इंद्रियातीत कहा जा सकता है। इन्द्रियातीत अर्थात् बुद्धिगम्य। प्रत्यक्ष को ज्ञान कहते हैं और परोक्ष की विज्ञान। इन्हीं दो पक्षों को अध्यात्म की भाषा में स्थूल एवं सूक्ष्म कहा जाता हैं

हर घटक की प्रत्यक्ष क्षमता एवं उपयोगिता स्वल्प है। उसका वर्चस्व परोक्ष में छिपा है। समग्र क्षमता एवं उपयोगिता समझने पर ही समुचित लाभ उठाया जाना सम्भव है अन्यथा इस दुनिया में सर्वत्र मिट्टी बिखरी पड़ी है। पानी के गड्ढे और पेड़-पौधे भर दृष्टिगोचर होते हैं। चाबीदार खिलौनों की तरह कुछ जीवधारी चित्र विचित्र हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं। इतने भर से सन्तोष होता और काम चलता होता तो मनुष्य भी अन्य प्राणियों की भाँति अपने निर्वाह की आवश्यकता जुटाने भर तक सीमाबद्ध रहा होता । प्रस्तुत प्रगति की न आकाँक्षा उठती है और न आवश्यकता प्रतीत होती है।

जमीन पर बिखरी धूलि की कोई कीमत नहीं। पर उसके छोटे से परमाणु की परोक्ष शक्ति की जो जानकारी-रहस्य का पर्दा उठने पर मिलती है उसे देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। आकाश नीले शामियाने जैसा दीखता है, पर इस प्रत्यक्ष से आगे बढ़कर इन्द्रियातीत रहस्यों का पता चलता रहता है। कि उस पोल में उससे भी अधिक सम्पदा भरी पड़ी है, जितनी कि इस धरती पर इन्द्रियों के सहारे बिखरी हुई लगती है। यह रहस्य लोक ही है जिसे इन्द्रियातीत या बुद्धिगम्य कहते हैं। परोक्ष भी प्रत्यक्ष के साथ ही गुँथा हुआ है पर उसे जानने, पकड़ने और करतलगत करने के लिए इन्द्रियों की क्षमता से काम नहीं चलता, उसके लिए बुद्धि क्षेत्र की प्रखरता उभारकर उसके सहारे गहराई में प्रवेश करने और मोती ढूँढ़ निकालने का पुरुषार्थ करना पड़ता है। प्रत्यक्ष जानकारी को ज्ञान और परोक्ष के रहस्योद्घाटन को विज्ञान कहते हैं। ज्ञान सब प्राणियों को समान मिला है। विज्ञान मनुष्य की अपनी उपलब्धि है।

विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में इन दिनों तक इतनी सामर्थ्य प्रदान कर दी है कि उसे पौराणिक महादैत्यों के समतुल्य मानने में कोई अत्युक्ति नहीं। पाँचों देवता उसकी सेवा में नियुक्त हैं। अग्नि देव खाना पकाते हैं। वरुण देव नल में विराजमान आज्ञा की प्रतीक्षा करते हैं। पवन पंखा झलते हैं। धरती अपनी उदरदरी की छिपी हुई सम्पदा की तिजोरी सुनाते हैं। धरती अपनी उदरदरी की छिपी हुई सम्पदा की तिजोरी खोल-खोलकर उसका वैभव बढ़ाती चली जाती है। प्राचीनकाल के पौराणिक महादैत्यों ने भी इसी प्रकार देवताओं का वशवर्ती करके उनके माध्यम से विपुल वैभव और वर्चस्व उपलब्ध किया था।

अब जो मिल है वह आदि मानव को आश्चर्यचकित कर सकता है। भविष्य में जो मिलने वाला है उसे भी इतना ही महत्वपूर्ण और रहस्यमय समझा जा सकता है कि आज का मनुष्य हजार वर्ष बाद फिर लौटकर इस धरती पर आये तो देख कि वह सन् 16 के युग को करोड़ों मील पीछे छोड़ कर किसी देवमानवों के लोक में आ पहुँचा । यह पदार्थ विज्ञान की देन है। विज्ञान अर्थात् परोक्ष। परोक्ष अर्थात् इन्द्रिय शक्ति से परे बुद्धिगम्य। पदार्थ की प्रकृति सत्ता और मनुष्य की जिज्ञासा जन्य तत्परता के समन्वय का चमत्कार ही है, जिसके कारण हम इस समूचे ही है, जिसके कारण हम इस समूचे ब्रह्मांड के कदाचित् सर्वश्रेष्ठ लोक में निवास करने का गौरव पा रहे और आनन्द ले रहे है।

पदार्थ जगत के साथ विज्ञान की प्रखरता जुड़ जाने से जो सम्पदा हस्तगत हुई है, होने वाली है उस पर हम सभी प्रसन्न हैं, गौरवान्वित हैं और भविष्य में इस से भी अधिक पाने की अपेक्षा लगाये बैठे हैं। इस प्रकार विज्ञान को जितना सराहा जाय उतना ही कम है। उसे देवाधि देव न कहकर दैत्यादिदैत्व तो ही जा सकता है। दैत्य शक्ति को कहते हैं और देव सम्पदावानों को। इसलिए विज्ञान को देव न कहकर दैत्य ना देना ही ठीक है।

अब सृष्टि संरचना के दूसरे पक्ष का प्रसंग आता है वह है-चेतना। चेतना प्राणियों में पायी जाती है। इसलिए उसे प्राण भी कहते हैं। प्राण होने से प्राणी भी कहते हैं। प्राण होने से प्राणी कहे गये या प्राणियों की आधारभूत सत्ता होने के कारण उस चेतना को प्राण कहा गया। इस विवाद में न पड़कर इतना मान लेने से ही काम चल जायगा कि प्राणियों की काया देखने में जैसी भी लगती हो, करने को जो कुछ भी करती हो, पर यह उनका निर्वाह पक्ष भर है। उनकी रहस्यमय क्षमता इन्द्रियातीत है परोक्ष-बुद्धिगम्य। मनुष्य की हलचलें उसी सीमा तक सीमित हैं जिसके सहारे अव अपना निर्वाह करता है। निर्वाह क्षेत्र में ही आजीविका और परिवार क्षेत्र में ही आजीविका और परिवार को जोड़ा जा सकता है। अन्य प्राणियों के पेट-प्रजनन की सीमा छोटी है। मनुष्य जीवन में उन्हीं दो आवश्यकताओं ने थोड़ा विस्तार करके आजीविका एवं परिवार क्षेत्र तक विस्तार कर लिया है। व्यक्तिगत विशेषता देखनी हो तो उसकी वाणी, भाषा, सज्जा, शिल्प, कला आदि की गणना हो सकती है। इन्द्रिय लिप्सा की प्रबलता उसे और कुछ प्रपंच रचने, सरंजाम जुटाने को बाधित करती रहती है। इसके अतिरिक्त मूर्धन्य समझे जाने वाले मनुष्य का भी क्या विवेचन विश्लेषण किया जाय? औरों की तरह वह भी खाता, सोता और सांसें पूरी करके मौत के मुँह में चला जाता है। सामान्यता मनुष्य की व्याख्या और क्या की जाय? उसकी विशेषता और क्या बताई जाय? इंद्रियगम्य उसका प्रत्यक्ष रूप इतना ही तो है। अनय प्राणियों की तुलना में मनुष्य की प्रत्यक्ष विशेषता इतनी ही आँकी जा सकती है कि उसकी चतुरता एवं संपन्नता की दृष्टि से कुछ अधिक सुविधाएं उपलब्ध हैं।

मनुष्य नहीं परोक्ष है। वह चतुरता और संपन्नता से बहुत आगे की वस्तु है। मानवी परोक्ष को अध्यात्म करते हैं। यह वह उद्गम स्त्रोत है जहाँ से उसे सर्वतोमुखी प्रगति के लिए आधारभूत सामर्थ्य उपलब्ध होती है। यह वह उद्गम स्त्रोत है जहाँ से उसे सर्वतोमुखी प्रगति के लिए आधारभूत सामर्थ्य उपलब्ध होती है। असली व्यक्तित्व, हाड़-माँस की टोकरी में नहीं है वरन् उस लचीली तिजोरी में भरा हुआ बहुमूल्य रत्न भंडार है। इतना बहुमूल्य जिसकी तुलना में इस वसुधा पर बिखरी हुई समूची सम्पदा वसुधा पर बिखरी हुई समूची सम्पदा भी कम पड़ती है। यदि मानवी बुद्धिमत्ता प्रकाश में न आई होती तो इस धरती वह यह स्वरूप ही न निखरता और उसकी रहस्यमयी क्षमता अविज्ञात के पर्दे में ही छिपी पड़ी रहती जैसे कि अन्य ग्रहों में उपेक्षित जैसे कि अन्य ग्रहों में उपेक्षित पड़ी हुई है। सृष्टि में क्या है-क्या नहीं, इस असीम, अनन्त और अचिन्त्य को कौन जाने? जो प्रकाश में, उपयोग में आया वही तो सब कुछ बना और गौरवान्वित हुआ। इस दृष्टि से न केवल प्रकृति वैभव का वरन् परब्रह्म तक का सृजेता न सही उद्घाटन कर्त्ता तो मनुष्य ही ठहरता है। कोयले के समतुल्य किसी खंदक में पड़े हीरे का अपना महत्व कुछ भी क्यों न हो, श्रेय तो उस जौहरी को ही मिलेगा, जिसने उसे ढूंढ़ निकालने से लेकर खरीदने और आभूषण का रूप देने की कला दिखाई। इस प्रकार सृष्टि का-स्रष्टा का उद्घाटन कर्त्ता होने का श्रेयाधिकारी यदि मनुष्य को ठहराता जाय तो इसे अतिरंजित नहीं कहा जाना चाहिए।

पदार्थ शक्ति की सम्भावनाओं का अनुमान लगाते-लगाते वैज्ञानिक पसीने-पसीने हो जाते हैं। दूसरे पक्ष चेतन की प्रत्येक तरंग का मूल्याँकन किया जा सके तो उसकी भूतकालीन उपलब्धियों और भावी सम्भावनाओं को देखते हुए चेतना क्षेत्र को सूक्ष्मदर्शियों को और भी अधिक आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है मनुष्य जो न्यूनाधिक मात्रा में अपने तथाकथित वानर पूर्वजों से कुछ ही बात में विशिष्ट प्रतीत होता है, जिन विभूतियों वानर पूर्वजों से कुछ ही बात में विशिष्ट प्रतीत होता है, जिन विभूतियों से भरा-पूरा है, वे उसके कार्य संरचना एवं मस्तिष्कीय विशेषता तक सीमित नहीं हैं, वरन् अन्तराल की गहन परतों में छिपी पड़ी हैं। व्यक्तित्व की परिभाषा शोभा, सज्जा, सम्पदा एवं चतुरता के रूप में नहीं हो सकती। इनके सहारे तो वह मात्र सुविधा-सामग्री एवं इंद्रियजन्य प्रसन्नता ही प्राप्त कर सकता है जिस आधार पर वह महान् बनता है वे तत्व तो उसके अंतःकरण की गहन गुफा में प्रसुप्त जैसी ही पड़ी होती हैं।

महर्षि व्यास का कथन है- “मैं एक अद्भुत रहस्य का उद्घाटन करता हूँ कि इस विश्व में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं।” इस रहस्य को प्रकट करते हुए वे यह बनाता चाहते थे कि चेतना का उच्चस्तरीय प्रतिनिधित्व करने वाली क्षमता मनुष्य के अन्तराल में छिपी पड़ी है। उसे समझने, उभारने और प्रयोग में लाने की विद्या का नाम अध्यात्म है। प्रकृतिगत अणुसत्ता और तरंग सत्ता की खोज एवं उपलब्धि को विज्ञान कहते हैं और चेतना की भावनात्मक विभूतियों के रहस्योद्घाटन एवं उपार्जन उपयोग को अध्यात्म।

विज्ञान के स्वरूप एवं प्रयोग क्रमबद्ध होने से उसकी महत्ता सर्वसाधारण के सम्मुख है, किन्तु अध्यात्म की सुनियोजित न किये जाने के कारण वह अनपढ़, अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ा रहा। उपयोगी सिद्ध होने के स्थान पर विकृत स्थिति में पहुँच जाने के कारण अवास्तविक, उपहासास्पद एवं दयनीय भी बन गया। आज उसकी वही दुर्गति है इतने पर भी तथ्य अपने स्थान पर जहाँ के तहाँ ही रंगे जैसे कि बदली छा जाने से सूर्य और चन्द्रमा ढक जाते हैं फिर भी प्रखरता के कारण उनका अस्तित्व यथावत् बना रहता है और बदली हटते ही वे पूर्ववत् फिर चमकने लगते हैं। विज्ञान की तरह अध्यात्म भी एक तथ्य है। विज्ञान ने प्रकृतिगत सम्पदा और समर्थता को मनुष्य के हाथ में सौंपा। अध्यात्म में वह क्षमता विद्यमान है कि चेतना के परोक्ष स्वरूप को प्रकाश में लाये और उसके वर्चस्व से शोधकर्त्ता साधक को समर्थ बनाये। साथ ही उसकी विशिष्टता से समूचा लाभ भी उठाए।

मनुष्य समुदाय की शरीर संरचना में कोई बड़ा अन्तर नहीं। कुछ अपंग अपवादों को छोड़कर मनःसंस्थान भी एक जैसा है। साधनों में न्यूनाधिकता हो सकती है, पर परिस्थितियाँ सभी के लिए एक जैसी हैं। इतने पर भी किसी को पतित- पराजित, दीन-दुर्बल, दुखी-दरिद्र देखा जाता है, कोई चैन के दिन गुजारते हैं, किन्तु किन्हीं-किन्हीं की वरिष्ठता ऐसी होती है कि उसके सहारे वे न केवल प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचते हैं- न केवल असाधारण पर पहुँचते हैं- न केवल असाधारण सफलताएं पाते हैं- वरन् अपनी प्रतिभा-प्रखरता से असंख्यों का मार्गदर्शन करते हैं-अपने क्षेत्र एवं समय के वातावरण को प्रभावित परिवर्तित करने की भूमिका निभाते हैं। इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में क्या अन्तर है, इसकी गहराई में उतर कर जाँच-पड़ताल करने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुँचता पड़ता है कि साधन, सहयोग, परिस्थिति इन भिन्नताओं में कारण या बाधक उतने नहीं रहे हैं जितने कि इन वर्गों की अपनी-अपनी मनःस्थिति। यही है वह उद्गम केन्द्र जो अन्तराल में सन्निहित रहने पर भी बाह्य जगत की परिस्थितियों को प्रभावित करता है ओर उपयुक्त सहयोगी तथा साधन अपने चुंबकत्व के सहारे खींच बुलाता है । यही है उत्थान-पतन का रहस्य।

वस्तु का स्वरूप देखने से ही काम चलाना, उसकी विशेषताओं को समझना, उभारना एवं प्रयोग में लाना भी आवश्यक होता है। चेतना वस्तु नहीं शक्ति है। इसलिए उसके रहस्यों को जानने तथा प्रयोग करने में और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। ईंट-पत्थरों को इधर से उधर हटाया, पटका जा सकता है, किन्तु आग या बिजली की उलट-पलट करने में अधिक जानकारी तथा सतर्कता की आवश्यकता होती है। पदार्थ को अनुपयुक्त रीति में प्रयोग करने में जितनी हानि है, उससे कहीं अधिक बिजली जैसी शक्तियों के सम्बन्ध में अनजान या प्रमादग्रस्त रहने से होती है। मनुष्य के पास उसकी चेतना का अस्तित्व ही सर्वोपरि सम्पदा हैं। यह ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती हुई काय- कलेवर में विद्यमान है। इस वैभव के सम्बन्ध में अभीष्ट जानकारी एवं प्रयोग-प्रक्रिया से मनुष्य को अवगत होना ही चाहिए। इसी को ब्रह्म विद्या-अध्यात्म विद्या आदि के रूप में तत्वदर्शियों ने विवेचन, निरूपण, निर्धारण किया है। इससे अनजान रहना या विकृत मान्यताएँ अपनाये रहना या विकृत मान्यताएँ अपनाये रहना प्रत्येक सचेतन के लिए उतना ही हानिकारक है जितना कि कपड़े में आग छिपाये फिरना या अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना।

शस्त्र, पेट्रोल, बारूद, बिजली आदि शक्तिशाली पदार्थों का प्रयोग करने एवं सुरक्षा रखने में हर कोई समुचित ध्यान रखता है चेतना महा-शक्ति है। वह अपने अन्तराल में विद्यमान हैं। हर स्तर के शाप वरदान देने की सामर्थ्य उसमें विद्यमान है। देवता अपमानित, असंतुष्ट होने पर शाप देते, अनिष्ट करते हैं। प्रसन्न होने पर वरदान देते ऋद्धि-सिद्धियां बरसाते और निहाल कर देते हैं।

चेतना को ही आत्मदेव कहते हैं। जीवनचर्या के साथ यह उसी हैं। जीवनचर्या के साथ यह उसकी प्रकार गुँथी है जिस प्रकार कि जीवकोषों, अंग-अवयवों एवं श्रस् धातुओं के साथ रक्त-माँस की गतिविधियों में चेतना की शक्ति ही करती है। प्राण निकल जाने काया निश्चेष्ट हो जाती है और देखते-देखते सड़ने लगती है। ठीक इसी प्रकार जीवन की अंतरंग एवं बहिरंग की गतिविधियों पर चेतना का प्रभाव रहता है। चिन्तन एवं चरित्र के रूप में उसी का अनुशासन चलता है। कहना न होगा कि अन्तराल की गहन गुफा में विद्यमान यह सचेतन किन्तु अदृश्य व्यक्ति ही मनुष्य के भाग्य का निर्माण करता है। तिरस्कृत, विकृत, अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित किये जाने पर उसी के शाप उभरते हैं और मनुष्य को दुःखी दरिद्र, पतित, पराजित बनाकर दयनीय स्थिति में पटक देते हैं। उसी सत्ता को सम्मानित, सुसंस्कृत, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने पर विभूतियाँ अन्तराल से उभरती है, उन्हीं के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि वे किसी अदृश्य लोक से, दैवी शक्ति द्वारा सौभाग्य या वरदान की तरह अनुग्रहपूर्वक दी गई हैं।

आत्म-साधना का नाम अध्यात्म है। चेतना को किस प्रकार मल आवरण, विक्षेपों से बचाया जाय? किस प्रकार उसे प्रगतिपथ पर अग्रसर होने का अवसर दिया जाय?

किस प्रकार उसे बलिष्ठ, प्रखर और परिष्कृत बनाया जाय? इसी विद्या का नाम ‘अध्यात्म’ है। वह विज्ञान से कनिष्ठ नहीं वरिष्ठ है। विज्ञान ने मनुष्य को अगणित सुविधा-साधन दिये हैं। किन्तु यदि पदार्थों की ही तरह चेतना की भी शोध और साधना की जाय तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य जीवन में देवताओं जैसा अन्त प्राप्त न कर सके, कोई कारण नहीं कि वह सामान्य परिस्थितियों और सीमित साधनों के सहारे भी स्वर्गीय वातावरण में कोई रहने का आनन्द न ले सके।


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