कर्मयोग के मूल मर्म को समझें, आत्मसात करें

June 1996

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कर्म की धुरी पर ही सृष्टि का गतिचक्र अविराम चक्कर काट रहा है। अविराम चक्कर काट रहा है। संसार का दृश्य स्वरूप इस गति प्रक्रिया पर अवलम्बित है। जड़ परमाणु पर अवलम्बित है। जड़ परमाणु एक सुनिश्चित परिकर में गति करते और अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं और चेतन जीव दूसरे तरह की हलचल में अपने को नियोजित रखते हैं। कर्म किए बिना यहाँ की हलचल में अपने को नियोजित रखते हैं। कर्म किए बिना यहाँ कोई नहीं रह सकता। जीवित रहने के लिए कर्म आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। अविकसित मनुष्येत्तर जीवों में यह प्रकृति प्रेरणा से परिचालित है, शिश्नोदर जीवन तक सीमित है। उदर शिश्नोदर जीवन तक सीमित है। उदर पूर्ति और-तुष्टि जैसे दो सीमित प्रयोजनों तक उनके सुख और आनन्द की अनुभूतियाँ परिसीमित है। इसके इर्द-गिर्द ही उनका समूचा जीवन परिभ्रमण करता रहता है और एक दिन काल के गर्भ में समा जाता है। अस्तु उनके लिए सुख-दुःख की उच्चस्तरीय वैचारिक और बन्धन-मुक्ति की आत्मिक अनुभूतियाँ निरर्थक है।

मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से सुविकसित होने के कारण मनुष्य इंद्रिय सुख की निम्न परिधि में नहीं रह सकता। उसे उच्चस्तरीय और शाश्वत आनन्द की खोज है, जिसके लिए वह साँसारिक मृग-मरीचिका में अज्ञानवश भटकता रहता है। ऋषियों ने इस भटकाव से बचने और जीवन-मुक्ति के शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्ति के अथवा कर्मयोग का मार्ग अपनाने का निर्देश कर्मयोग का मार्ग अपनाने का निर्देश दिया है। कर्मयोग के पथ को राजकर्मयोग का मार्ग अपनाने का निर्देश दिया है। कर्मयोग के पथ को राजमार्ग इसलिए माना गया है कि यह हर तरह की मनःस्थिति के व्यक्तियों एवं आज की परिस्थितियों के अनुकूल है। भटकाव की गुँजाइश कम है। जबकि ज्ञानयोग अथवा कम हैं। जबकि ज्ञानयोग अथवा भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए एक निश्चित प्रकार की मनःस्थिति का होना अनिवार्य है। कर्मयोग सभी के लिए इसलिए अधिक उपयुक्त है क्योंकि मनुष्य जीवन-पर्यंत किसी न किसी रूप में कर्मों से जुड़ा रहता है-उनसे विरत रहना सम्भव नहीं है। अस्तु, यदि कर्मयोग युक्त जीवन शक्य हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द लेना हर किसी के लिए सम्भव है।

‘कर्म’ आत्मा और परमात्मा को एकाकार कर देने वाला ‘योग’ तब जाता है जब वह निष्काम हो। निष्काम क्यों-कामना से युक्त क्यों नहीं? क्योंकि मन की कामना ही नहीं? क्योंकि मन की मना ही भव-बन्धनों का कारण है। गीतकार ने इसी सत्य का रहस्योद्घाटन इस ने इसी सत्य का रहस्योद्घाटन इस प्रकार किया है- “मनः एवं मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयो” अर्थात् ‘मन ही मनुष्य के बन्धन या मुक्ति का कारण है।’ कामना युक्त कर्म जहाँ बन्धनों में बाँधता है, निष्काम कर्म ‘मुक्ति’ का साधन बन जाता है। एक क्षण के लिए भी कर्म से विरत रहना सम्भव नहीं है, साथ से विरत रहना सम्भव नहीं है, साथ ही कर्म भव-बन्धनों में भी जकड़ता है, फिर संसार में किस तरह रहा जाय? जीवन-मुक्ति का आनन्द कैसे उठाया जाय? जीवन-मुक्ति का आनन्द कैसे उठाया जाय? यजुर्वेद का ऋषि इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है- “तेन त्यक्तेन भुँजीथाः” अर्थात् ‘संसार को भोगो, परन्तु निर्लिप्त होकर, निस्संग होकर, निष्काम भाव से।’

निष्काम कर्मयोग के पथ पर चलने वाला साधक अपनी समस्त इच्छाओं, आकाँक्षाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है। कर्मफल के प्रति उसकी आसक्ति नहीं रहती। अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति उसकी आसक्ति नहीं रहती। अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति वह तत्पर और सजग रहता है। उनके निर्वाह में सन्तोष की अनुभूति करता है। शरीर से कर्म और मन से चिन्तन करते हुए भी वह साँसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियों के प्रति निरासक्त होता है।

अर्जुन को सम्बोधित कर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “योगस्थः कुय कर्माणि, सड्र त्यक्त्वा धनंजय। सिद्वयासिद्वयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”

अर्थात् ‘हे अर्जुन। आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि के विषय में समबुद्वि रखकर, योग में स्थिर होकर कर्म कर। समत्व को ही योग कहते हैं।’

‘समत्व’ का अर्थ हुआ समान भाव, संभव वृत्ति की एकरूपता, चित्तवृत्तियों की चंचलता पर निरोध। जिसे पतंजलि ने “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः “करके समझाया है, उसे भगवान ने यहाँ एक ही शब्द ‘समत्व’ में गूँथ दिया है। हर पल चित्त की चंचलता कर्मों को करने में बाधा चंचलता कर्मों को करने में बाधा डालती है। सुख-दुःख, जय-पराजय, हानि-लाभ के द्वन्द्व मानस पटल पर सतत् उभरते हैं। जय होने से घमण्ड होता है और पराजय से व्यक्ति हताश, होता है और पराजय से व्यक्ति हताश होता है और पराजय से व्यक्ति हताश हो जाता है। परिस्थितियों से जो हताश हो जाता है। परिस्थितियों से जो मनः हो जाता है। परिस्थितियों से जो मनः स्थिति को प्रभावित न होने दे, वह समत्व योग की ही उपासना करता है। बाह्य परिस्थिति जैसी भी बने, जिसकी वृत्ति में चंचलता नहीं है, वही कुछ कर्त्तव्य पालन कर सकते हैं।

चित्त की चंचलता के कई कारणों में, अनुकूल भोग पाने की इच्छा भी एक प्रमुख कारण है। मनोवृत्ति की यही चंचलता असंयम को जन्म देकर उसे पथ भ्रष्ट कर देती है। समत्व योग का उपासक वस्तुतः निष्काम कर्मयोगी के साथ चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण रखने वाला कठोर साधक भी है, जो पल-पल अपनी मनःस्थिति पर पैनी नजर रखता है। सिद्धि हो, चाले असिद्धि, हम जीवन क्षेत्र में सफल हों अथवा असफल, कभी भी अपनी समस्वरता पर उसका, कभी भी अपनी समस्वरता पर उसका प्रभाव न पड़ने देंगे-यही साधक का लक्ष्य होता है।

इसी श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है- “संगं त्यक्त्वा” अर्थात् फल की आसक्ति भी त्यागी जाय। वही मानव आमन्त्रित दुर्बुद्धिजन्य आपत्तियाँ हैं। संग से ही विषयासक्ति की कामना, कामना से क्रोध से मूढ़ता मूढ़ता से भ्रम, भ्रम से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि का नाश ही मनुष्य के नाश का कारण है। यह सर्वविदित तथ्य है।

ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म बहुत अनिवार्य है। साधारण मनुष्य जो कर्म करता है वह स्वार्थवश करता है। उस समय इस जीव को परमात्मा का उस समय इस जीव को परमात्मा का चार गौण होता है। काम कर्म करने वाला मनुष्य अपने अंश रूप आत्मा को प्रधान और सर्वव्यापी परमात्मा को गौण मानता है। किरण को प्रधान मानना और सूर्य का विचार तक न करना अज्ञान का ही द्योतक है। इसलिये इस अज्ञान के निवारण तथा ब्रह्मर्पण कराने वाले, इस ‘समत्वयोग’ को ‘निष्काम कर्मयोग ‘ के अलावा ‘बुद्धियोग’ भी कहा गया है।

कर्मफल के प्रति अनासक्ति का होना इसलिए भी आवश्यक मात्र कर्म करने पर है। फल पर उसका कोई अधिकार नहीं है। यह सच है कि कर्मों का फल अपने निश्चित समय पर मिलता है, पर यह भी उतना ही सत्य है कि यह प्रक्रिया किसी अदृश्य के हाथों संचालित है। कई बार कर्मफल प्रक्रिया में व्यतिरेक पड़ते भी दिखाई पड़ता है। एक निश्चित प्रकार के कर्म करते हुए भी उसका परिणाम उल्टा देखकर मन में कर्मफल व्यवस्था के प्रति आशंका उठती है। प्रायः ऐसा कर्मफल के सिद्धांत को सही रूप से न समझने के कारण ही होता है। प्रत्यक्ष जीवन और उससे जुड़ी भली बुरी उपलब्धियाँ मात्र इसी जीवन की ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों उचित कर्मों का परिणाम होती है। बार अच्छे कर्म करते हुए अनुकूल नहीं विष विघ्न जाती है। जिन्हें हटाने में मानवी पुरुषार्थ असमर्थ सिद्ध होता है। यह वस्तुतः उन अदृश्य कर्मों के फल होते हैं जो पिछले जन्मों में लिए गये होते हैं। जो कर्मफल के सुनिश्चित विधान के अनुसार कालान्तर में रोग-शोकों के रूप में प्रकट होते दिखायी देते हैं। अस्तु, कर्मफल का सिद्धांत अक्षरशः सत्य होते हुए भी उसमें आसक्ति का न होना ही श्रेयष्कर है। फलासक्ति होने और तद्नुरूप होती है।

भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश को निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहते हैं-”जो सुख दुःख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, जीत हार, यश-अपयश, जीवन-मरण, भूत-भविष्य की चिन्ता न करके मात्र अपने कर्त्तव्य-कर्म में निरत रहता है वही सच्चा निष्काम-कर्मयोगी है।” कर्मयोगी इस सत्य से भलीभाँति परिचित होता है कि साँसारिक द्वन्द्व तो एक के बाद एक आते हैं और आते रहेंगे। इनका प्रभाव क्षणिक और अस्थायी तथा मात्र नाशवान शरीर तक सीमित है। स्थायी, शाश्वत तो आत्मा है, उसका उत्थान और पतन ही मनुष्य का वास्तविक उत्थान और पतन है। अस्तु, जो भी कर्म किये जायँ आत्मोन्नति को ध्यान में रखकर।

सृष्टि का नियामक, संचालक होते हुए भी परमात्मा ने मनुष्य का अतिरिक्त रूप से विवेक बुद्धि देकर उसे कर्मों का अधिष्ठाता बनाया है। उसे कर्म का अधिष्ठाता बनाया है। उसे कर्म करने की पूरी-पूरी छूट दे रखी है। चाहे तो वह सत्कर्म का मार्ग करने की पूरी-पूरी छूट दे रखी है। चाहे तो वह सत्कर्म का मार्ग अपनाकर आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ सकता है अथवा दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर अपनी अवनति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। भले-बुरे कर्मों के लिए इस प्रकार पूर्णरूपेण उत्तरदायी। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि कर्मों के लिए प्रेरणाएँ परमात्मा से मिलती है तो इस सत्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि “सत्यं शिवं सुन्दरम्” से युक्त परमात्मा कभी मनुष्य को दुष्कर्म करने की प्रेरणा देगा। ऐसी प्रेरणाएँ अपने ही मन की उपज-प्रतिनिधि आत्मा के रूप में अपने भीतर बैठा है, जो सदा उच्चस्तरीय प्रेरणाएं ही सम्प्रेरित करता है, पर मन द्वारा उनकी उपेक्षा-अवहेलना होने से वे व्यवहार में नहीं उतर पातीं। मन की अपेक्षा यदि सचमुच ही अपनी गतिविधियों को आत्मप्रेरणा के अनुरूप परिचालित किया जाय तो कभी दुष्कर्मों की ओर बढ़ने का अवसर ही न प्रस्तुत हो। अस्तु कर्माकर्म का दायित्व अपने ऊपर न मानकर परमात्मा पर मानना अनासक्त कर्मयोग का गलत अर्थ लगाना है।

अनासक्त कर्मयोग शब्द स्वयं भी अपने वास्तविक आशय को प्रकट करता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- अनासक्त और कर्मयोग। अनासक्ति का अर्थ यह है कि राग न रखना। कोई भी छोटा अथवा बड़ा काम क्यों न किया जाय, उसके प्रति कर्तृत्व का अहंकार न जोड़ा जाय। ‘पापमूल-अभिमान’- अहंकार को सभी पापों की जड़ माना गया है। अहंकार की उत्पत्ति आसक्ति से होती है। दूसरा शब्द है- कर्मयोग। गीता इसकी व्याख्या इस प्रकार करती है-

“योगः कर्मसु कौशलम्”-कर्म में कुशलता ही योग है। कार्य कुश लव ही हो सकता है जिसे उचित अनुचित कर्मों के बीच स्पष्ट अन्तर का बोध हो। कुशल शब्द के अंतर्गत सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का भाव प्रवाहित है। इसलिए कार्य कुशलता में अशुभ कर्मों के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। अनासक्त कर्मयोग का वास्तविक तात्पर्य यही है कि किसी भी काम को पूरी कुशलता के साथ कर्त्तापन का अभिमान छोड़कर किया जाय और उसके फल के प्रति निर्लिप्त-निस्पृह रहा जाय। निष्काम कर्मयोग के तत्व-दर्शन को हृदयंगम करने और इस राजमार्ग का अवलम्बन लेकर साधक संसार में रहते हुए भी स्वर्ग-मुक्ति का उच्चस्तरीय आनन्द प्राप्त कर सकता है।


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