फिर से आत्मचिन्तन करें कि हमारे पाँव किधर मुड़ चले हैं। लगता है हम राह भटक गए। लगता है हम यह भटक गए। शायद यही कारण है कि इन्सानी पुरुषार्थ अपराधों के चक्रव्यूह में जा फँसा है। डाँवाडोल आस्थाएँ, भ्रमित मान्यताएं उसे दिशा न दे सकीं। इसी वजह से उसे दिशा न दे सकीं। इसी वजह से साधन जुटाने के चक्कर में साध्य भुला दिया गया। इस भूलभुलैया ने ही निरंकुश भोगवाद को जन्म दिया। निरंकुश भोगवाद को जन्म दिया। फलतः “ऋणंकृत्वा घृतं पिवेत” की चार्वाकी प्रवृत्ति अब ऋण लेकर घी बरबाद करने में भरोसा रखने लगी है।
रोज-मर्रा से समाचार पत्रों का दो-तिहाई हिस्सा अपराधों की दास्तान से रँगा रहता है। मनोवैज्ञानिक परेशान हैं, समाजशास्त्री हताशा। विदेशी शासन की तकरीबन 80 वर्षीय अवधि में कानूनों की कुल संख्या 400 थी। अब प्रजातन्त्रीय शासन की 40 वर्षीय अवधि में इनकी संख्या बढ़कर 5000 हो गई है। 1959 से 1991 तक के 40 सालों में जनसंख्या 135ण्3 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि अपराधों में 158ण्3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसी तरह सन् 1986 से 1991 तक जनसंख्या वृद्धि 19.6 प्रतिशत हुई, जबकि अपराध 19.4 प्रतिशत बढ़े।
बढ़ते अपराधों के कारण दिल्ली भारत की राजधानी के साथ अपराधों की राजधानी बन गयी है। 1988 में यहाँ 350 हत्याएँ, 14 डकैतियाँ, 615 अपहरण, 162 बलात्कार, 615 अपहरण, 162 बलात्कार, 212 लूट, 1448 धोखाधड़ी एवं 364 गम्भीर अपराधों के मामले दर्ज हुए थे। वर्ष 1990 में आंकड़ों में और वृद्धि हुई, जिसमें 314 हत्याएँ, 21 डकैतियाँ, 657 अपहरण, 177 बलात्कार, 224 लूट, 1479 धोखाधड़ी व 501 गम्भीर हमलों के मामले दर्ज हुए। इसी तरह 1991 में हत्या के 496, डकैती के 33, अपहरण के 658, बलात्कार के 200, लूट के 274, धोखाधड़ी के 1479 तथा गम्भीर हमलों के 501 मामले दर्ज हुए। 1992 में हत्या के 524, डकैती के 48, अपहरण के 706, बलात्कार के 270, लूट के 348, धोखाधड़ी के 1507 तथा गम्भीर हमलों के 608 अपराध लिखित रूप में दर्ज किए गये। वास्तविक आँकड़े इनसे बहुत अधिक हैं, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की अपराध शाखा के अनुसार उपलब्ध आँकड़ों में 25, प्रतिशत और अधिक जोड़ देने पर ही शायद अपराधों की सही संख्या पायी जा सके।
पाश्चात्य चिन्तन शैली के अभ्यस्त कई समाजशास्त्रियों के अनुसार हत्याओं और अपराधों में यह बढ़ोत्तरी स्वाभाविक है, क्योंकि भारतीय समाज आज संक्रमण काल से गुजर रहा है और औद्योगिक क्रान्ति के दबाव से नए सामाजिक तनाव पैदा हो रहे हैं। आर्थिक दबाव यानि कि अपरिचय, इसके मुख्य कारण बताए जाते हैं। सामाजिक जागरुकता की वृद्धि गरीबों में धनिकों के प्रति क्षोभ उत्पन्न करती है तथा शहर में एक-दूसरे के कुल-शील, ठौर-ठिकाने का अता पता न होने से अपराध कर गुलाम हो जाना आसान हो जाता है। ऐसा इन समाजशास्त्रियों द्वारा विश्लेषित किया जाता है।
पर बात कुछ और ही है। यदि विपन्नता और संपन्नता की भीषण विषमता से उत्पन्न तनाव अपराधों का मुख्य कारण रहा होता ता संपन्न देशों में स्थिति कुछ और होती। जबकि एक सर्वेक्षण के अनुसार अर्जेन्टीना में प्रति एक लाख व्यक्ति पर 706, जापान में 1418, स्वीडन में 5116, ब्रिटेन में 5108 तथा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में 5128 अपराधों का औसत है। भारत का औसत बड़े तथा विकसित, विकासशील देशों की अपेक्षा बहुत कम है। भारत में प्रति एक लाख 3.2 हत्या, अर्जेन्टीना में 4.1 तथा अमेरिका में 10.2 का औसत है। बलात्कार के मामले में भारत में 2 तथा पाकिस्तान में 5.4 का औसत है। राहजनी में प्रति एक लाख व्यक्ति पर कनाडा में 10.2, अर्जेन्टीना में 1040 तथा भारत में 1 है। चोरी के मामले में भारत में 23, अर्जेन्टीना में 218, जापान में 199, स्वीडन में 6212, ब्रिटेन में 4151, तथा अमेरिका में 5265 का औसत है।
स्पष्ट है अपराधों की जड़ साधनों की प्रचुरता या अभाव अथवा अवसरों की उपलब्धि से सम्बन्धित नहीं है। यदि गुमनामी या अपरिचय की सुविधा वृत्ति का उभारने वाली हुआ करती, तो तीर्थयात्री भी अपरिचित स्थानों पर जाकर भीड़-भक्कड़ में अपराध किया करते। जबकि वे लोग अधिक ही उत्कृष्ट आचरण का प्रयास करते हैं। वस्तुतः मूल कारण मानवीय चिन्तन से सम्बन्धित है। सामाजिक परिवेश अपराधों के लिए उत्तरदायी तो है किन्तु सामाजिक परिवेश का अर्थ समाज का भौतिक ढाँचा या समाज में साधनों -उपकरणों का औसत नहीं है। बल्कि समाज में किन गुणों, मूल्यों और आदर्शों की प्रतिष्ठा है, इससे सामाजिक परिवेश बनाया है।
इसमें लगातार होती जा रही गिरावट ही वह कारण है। जिसकी वजह से भारत में सन् 1951 में एक लाख की जनसंख्या में अपराधों की कुल संख्या 179.9 थी, जा 1990 में बढ़कर 195.2 तक पहुँच गयी। 1976 से 1990 के बीच कुछ राज्यों में अपराधों की वृद्धि इस प्रकार रही- आन्ध्र प्रदेश में 5.8 से 6.4 प्रतिशत, बिहार में 7.5 से 7.8 प्रतिशत, गुजरात में 5.1 से 6.7 प्रतिशत, हरियाणा में 1.6 से 1.8 प्रतिशत, कर्नाटक में 5.8 से 6.2 प्रतिशत, केरल में 3.8 से 4.2 प्रतिशत, मध्य-प्रदेश में 12 से 13.1 प्रतिशत व राजस्थान में यह प्रतिशत 5.8 से 6.4 से 6.4 तक बढ़ा।
सन् 1976 से देश के विभिन्न जिलों, शहरों में भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अपराधों में भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अपराधों का असर भी बढ़ा है। सन् 1986 में केवल 51 जिलों-शहरों में 5,000 विचार करने योग्य अपराध घटे थे। सन् 1989 एवं 1990 में ऐसे जिले-शहरों की कुल संख्या बढ़कर 73 व 89 हो गयी। इसी प्रकार सन् 1986 में 10.,000 से अधिक अपराध होने वाले शहरों की कुल संख्या 1 थी, जो 1990 में बढ़कर 14 हो गयी। भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अपराधों में गम्भीर अपराध भी बढ़े हैं। सन् 1953 में जहाँ इनकी संख्या 49,578 थी वहीं 1990 में बढ़कर यह 2,34,338 तक जा पहुँची। 1988 से 1990 के तीन वर्षों में केवल हत्याओं में 21.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी प्रकार रही-डकैती 29.2 प्रतिशत, लूट 17.7 प्रतिशत चोरी एवं धमका फूलता कर भागा ले जाना 17.9 प्रतिशत बलात्कार 10.6 प्रतिशत, उपद्रव 9 8.7 प्रतिशत और हत्या के प्रयासों में यह प्रतिशत में यह प्रतिशत 31 रहा।
ठीक भी है, जब तक सामाजिक परिवेश मानसिक उद्वेगों को बढ़ाने वाला रहेगा, समाज में उद्धत आचरण और अपराध कर्म बढ़ते रहेंगे। वातावरण में ही व्यक्तियों का अंतरंग-बहिरंग ढाँचा बदलने की क्षमता होती है। यदि वर्तमान ढाँचे अस्वस्थ, असुन्दर और अशिव रूपों का निर्माण, असुन्दर और अशिव रूपों का निर्माण करने वाले प्रतीत होते हैं, तो उनका स्वरूप परिवर्तित करने की ही आवश्यकता है। ऐसा न हो सकने की स्थिति में पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी अपराध की शिकार होती रहेंगी। शायद यही कारण है कि अपराधों में बढ़ोत्तरी के सिलसिले में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में सन् 1977 से 1990 के बीच तीन वर्षों में 9.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सन् 1988 में इन अपराधों की संख्या 53.933 थीं जो सन् 1990 में बढ़कर 58,933 थीं जो सन् 1990 में बढ़कर 48,164 तक जा पहुँची। सबसे अधिक बढ़ोत्तरी बलात्कार सम्बन्धी मामलों में हुई जो 10.6 प्रतिशत रही। सन् 1977 में इन अपराधों की संख्या 1099 थी। जो 1990 में-10,068 हो गयी । इसी तरह महिलाओं को सताने सम्बन्धी अपराधों में भी 13.2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। सन् 1988 में इन अपराधों की कुल संख्या 17,836 थी, जो भी सन् 1989 व 1990 में बढ़कर क्रमशः 12,497 और 20,194 हो गयी अर्थात् प्रति वर्ष 34.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी।
महिलाओं के विरुद्ध अत्यन्त आधुनिक अपराध दहेज के कारण काफी भारी संख्या में हत्याएँ हुई हैं। सन् 1980 और 1990 के बीच इनमें 197.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सन् 1980 औसतन प्रतिवर्ष 66 प्रतिशत । इन अपराधों के 68.3 प्रतिशत। इन अपराधों में भी केवल पाँच राज्यों में कुल अपराधों में भी कुछ अपराधों में भी केवल पाँच राज्यों में कुल अपराधों के 68.3 प्रतिशत घटे हैं। ये राज्य है -मध्य प्रदेश 19.9 प्रतिशत उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश 8.1 प्रतिशत, राजस्थान 7.6 प्रतिशत और दिल्ली 6.6 प्रतिशत, शेष बाकी राज्यों एवं केन्द्रीय शासित क्षेत्रों में केवल 31.7 प्रतिशत, अपराध हुए हैं।
अपराधों की यह भरमार, वह भी स्वयं को समझदार, सर्वज्ञ समझने वाले मनुष्य के द्वारा, देख-सुनकर आश्चर्य होता है, छोटी श्रेणी के पशु मात्र शरीर स्वार्थ की पूर्ति के लिए हत्याएँ करते हैं। किन्तु मनुष्य तो ऐसी भी हत्याएँ और अपराध करते देखे जाते हैं, जिनसे न तो उनके शरीर को कोई लाभ पहुँचता है न ही मन को। यह चिन्तन और भावनाओं की विकृति नहीं तो और क्या है?
अपराधी प्रवृत्ति भय, आशंका, अविश्वास, घृणा और लोभ की अधिकता से बढ़ती है। इन पर रोक लगाने का काम अन्तःकरण की वे आस्थाएँ ही कर सकती हैं, जिन्हें आस्तिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता, सद्भावनाशील, संस्कार संपन्नता के रूप में जाना जाता है। सरकारी रोकथाम से बात अधिक बनती नहीं।
सरकारी रोकथाम के आधार हैं कानून और औजार है पुलिस। विकृत वातावरण में ये दोनों ही उस पूर्ति में विफल , अक्षम सिद्ध हो जाते हैं। यह शिकायत आए दिन आती है कि पुलिस प्रशासन में ईमानदार, निष्ठावान लोगों की कमी है। परन्तु सोचने की बात यह है कि पुलिस के लोग और जनता एक ही ढाँचे की उत्पत्ति हैं। पुलिस मैन, अपराधी तथा पीड़ित तीनों ही साथ-साथ गाँव की धूल भरी पगडंडियों में, हरे-भरे खेत-खलिहानों के बीच बाढ़ और सूखे की मार सहते हुए बढ़ और सूखे की मार सहते हुए बढ़ते हैं या फिर कस्बों शहरों के मुहल्लों में साथ-साथ खेलते-कूदते बड़े होते हैं। यदि उस वातावरण में ही करुणा-संवेदना, तत्व पर्याप्त मात्रा में रहें, तो अपराध की प्रवृत्तियाँ कभी भी बढ़ नहीं सकती।
जहाँ तक कानूनों की बात है हर बुरे काम के खिलाफ कानून है। अपराधियों के लिए जेल-पुलिस, न्यायालय की पूरी गुप्तचरों का सरकारी तन्त्र है। परन्तु अपराध दिन दहाड़े जारी है। और बढ़ रहे है। पचास प्रतिशत अपराध तो अंकित ही नहीं होते। जो दर्ज कराए जाते हैं। उनमें भी दस प्रतिशत पकड़ में नहीं आते। जितने लोग पकड़े जाते हैं उनमें भी तीन-चौथाई तिकड़म, तरकीब, धन, आतंक, प्रभाव-दबाव से छूट जाते हैं। दण्ड-प्रक्रिया दुरूह है ही। एक साधनहीन को न्याय पाना कठिन हो जाता है। निःसन्देह पुलिस, न्यायालय, कारागार सभी की अत्यधिक आवश्यकता है। किन्तु अपराधों की रोकथाम इतने भर से नहीं हो सकती।
ये प्रतिबन्धात्मक कार्यवाहियाँ तो अनीति-अत्याचार की वृद्धि पर कुछ सीमा तक लगा सकती हैं। मुख्य आवश्यक उन दुष्प्रवृत्तियों की प्रेरणा। के आधारों को समाप्त करने की है, जो इन अपराधों तथा न्याय व्यवस्था में होने वाली चालाकियों के लिए उत्तरदायी है। जब तक अधिसंख्य जनता का मन दुष्प्रवृत्तियों को पकड़े रहेगा, तक अपराध की बाढ़ सामाजिक बन्धनों, मर्यादाओं को इसी तरह तोड़ती रहेगी।
जन सामान्य अपराधियों और पुलिस को कोसकर अपने को कर्त्तव्य मुक्त तथा सज्जन मान बैठते हैं। इस भयानक भ्रान्ति का कारण भी चिन्तन की विकृति ही है। मौन दर्शक बना रहकर वह उसमें सहभागी हो रहा है, बात उसे समझ में ही नहीं आती। आए दिन सड़क से युवतियों, महिलाओं का दिन-दहाड़े मार-पीट, खून-खराबा मचाया जाता है और हजारों की भीड़ सहमी-सिमटी सकपकाती रहती है। यह सब अन्तः क्षेत्र में घुसी कायरता के अतिरिक्त और क्या है?
कायरता और आक्रमण जुड़वा बहिनें है। भीतर से कायर व्यक्ति ही कमजोरों के प्रति आक्रमण होता है। इसी प्रकार स्वार्थान्धता और निष्ठुरता में घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वार्थान्ध व्यक्ति करुणाहीन होता है। तथा जिसे नीति में निष्ठा नहीं है, वह अपराधी होगा ही।
वस्तुतः अपराधों का क्रम न्याय संहिता की परिधि की पहुँच से बहुत पहले प्रारंभ होता है। जिन कार्यों के लिए दण्ड संहिता में कोई व्यवस्थाएँ नहीं हैं, वे ही अपराधों के उद्गम केन्द्र है। आलस्य, प्रमाद, असंयम, अशिष्टता, उद्धत, आचरण, द्वेष, दुर्भाव, कुदृष्टि, कुभाव, कटुभाषण, अस्त-व्यस्तता, नशा-पानी अनुशासनहीनता जैसी अवाँछनीयताएँ सरकारी अंकुश से भले मुक्त है। पर वस्तुतः अपराधों की कारणभूत उत्तेजनाएँ इन्हीं से फैलती हैं।
यही अवाँछनीयताएँ आगे बढ़कर विध्वंसक अपराधों-विभीषिकाओं का रूप ले लेती है। नैतिक और नागरिक मर्यादाओं का निरन्तर उल्लंघन तथा मानवीय संवेदनशीलता का नितान्त अभाव ही अपराधों का वास्तविक आधार और प्रेरणा केन्द्र है। क्योंकि ये ही आदमी को धीरे-धीरे खोखला ही और संकीर्ण बनाती है जिसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति अपराध करने और सहने के रूप में सामने आती है। जिन्हें स्तरहीनता, परपीड़न और मर्यादाहीनता में कोई संकोच नहीं होता, वे अनास्थावादी लोग ही अपराधी बनते, गुण्डागर्दी अपनाते, आतंक बनते, गुण्डागर्दी अपनाते, आतंक उत्पन्न करते तथा चोरी-ठगी पर उतारू रहते हैं। यही अभ्यास उन्हें हत्या, बलात्कार जैसे नृशंस क्रूर कर्म करने में भी निर्लज्ज बनाए रहता है।
अतः अपराधों की बाढ़ से बचने के लिए अनैतिकता के आरंभिक विकास पर दृष्टि डालनी होगी और उसे रोकने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। भोग की निरंकुश भूख और मन की मनमानी उछल-कूद को ही जिस समाज में स्वाभाविक मान लिया गया, वहाँ हिंसा, क्रूरता तथा अपराध अवश्यम्भावी है।
अतः आवश्यकता आस्थाओं के परिष्कार की, अन्तःकरण के उत्कर्ष की है। अन्तःकरण को सुसंस्कारित बनाने, अध्यात्म की प्राण-प्रतिष्ठा। समझाने की है। कहने वाले प्रायः कहते हैं। कि अध्यात्म से क्या होगा? उससे धन तो मिल नहीं जाएगा? उससे धन तो मिल नहीं जाएगा। उन्हें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि अध्यात्म से धन नहीं, मासिक वर्चस, आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष वास्तविक आनन्द मिलेगा, जो धन से भी अधिक महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही धन के संरक्षण-सदुपयोग के लिए भी आवश्यक है। अराजकता, असामाजिकता की चपेट से धन भी बचा नहीं रह पाता। सुख-शान्ति तो भला उस स्थिति में कभी मिलती ही नहीं।
मनुष्य मूलतः अपराधी अविश्वास असहयोगी और असंवेदनशील नहीं होता। इसके विपरीत मनुष्य स्वभाव में संवेदना-सहकारिता, स्थिति में अपराधों की वृद्धि का कारण विकृत चिन्तन और दूषित दृष्टिकोण के अतिरिक्त और दूषित दृष्टिकोण के अतिरिक्त और क्या है? स्पष्ट है कि मनुष्य को सुसंस्कृत बनाते की ओर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो आज की दुःस्थिति बदलने की नहीं।
भोगवादी दृष्टिकोण वाले समाज नाच-गाने, कामोत्तेजना और सस्ते मनोरंजन तक सिमटकर रह गया है। शायद यही कारण है कि भारतीय अपराध घड़ी के अनुसार अकेले वर्ष 1990 में भारतीय समाज में भारतीय दण्ड संहिता एवं स्थानीय एवं विशेष अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक 6.35 सेकेंड में एक अपराध हुआ है। अन्य अपराधों की दर कुछ इस तरह रही है- सम्पत्ति सम्बन्धी अपराध- दो मिनट में एक, लूटमार पाँच मिनट में एक, डकैती 14 मिनट में एक और हत्या की दर 15 मिनट में एक रही है इसको रोकने के लिए हमें साँस्कृतिक गतिविधि वही है जो व्यक्ति को साँस्कृतिक चेतना से संपन्न सुसंस्कारित बनाए। उसमें सिद्धांतों विचारों की समझ पैदा करे जब तक व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने की ओर ध्यान नहीं दिया जायेगा, तब तक समाज में पशु प्रवृत्तियों का प्राधान्य भी बना ही रहेगा।
अच्छा यही है कि अपराधियों को दण्ड देने और अपराधों की धड़ पकड़ पर जितना ध्यान दिया और खर्च किया जाता है, साँस्कृतिक चेतना के प्रसार हेतु उससे कहीं अधिक श्रम एवं शक्ति खर्च की जाए। इसे ही आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण प्रसार कहा जाता है। जब तक मनुष्यता आत्मचिन्तन के लिए प्रेरित नहीं होगी, आचरण की महत्ता व्यक्ति के अंतःकरण में अंकित नहीं होगी और अपराधों के चक्रव्यूह को तोड़ पाना सम्भव नहीं हो सकेगा।