शिष्यगण गुरुदेव से स्वर्ण-नरक का विवरण पूछते रहते। गुरुदेव ने बताया, वे दोनों इसी धरती पर है। कर्मों के अनुसार इसी जीवन में मिलते रहते हैं।
शिष्यों का दर्शन कराने, वे एक बहेलिये के धर गये, जो जीव हत्या करके पेट पालता, किन्तु था सर्वथा निर्धन। बच्चे सब के सब कुकर्मी, विग्रही और दुर्गुणी। घर में प्रत्यक्ष नरक था।
दूसरा घर वेश्या का था। युवावस्था में उसने कमाया भी खूब और गिराया भी बहुतों को ; पर इस वृद्धावस्था में वह अनेक रोगों से ग्रसित हो गयी थी। तिरस्कार सहती और भिक्षा से पेट भरती थी।
तीसरा घर एक सद्गृहस्थ का था। संयमी, परिश्रमी, उदार और सद्गुणी। पूरा परिवार सुखी-समृद्ध था। धर में स्नेह-सौजन्य बिखरा फिरता था।
चौथा प्रवेश एक सन्त की कुटी में हुआ। मस्ती देखते ही बनती थी। शिक्षा और प्रेरणा पाने सुखी-समृद्ध था। घर में स्नेह-सौजन्य बिखरा फिरता था।
चौथा प्रवेश एक सन्त की कुटी में हुआ । मस्ती देखते ही बनती थी। शिक्षा और प्रेरणा पाने के लिए अनेकों श्रेयार्थी श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में बैठे थे।
गुरु ने दो नरक के और दो स्वर्ग दिखाये और शिष्यों से कहा-”कर्मफल के अनुरूप इन दोनों ही परिस्थितियों को कही चरणों में बैठे थे।
गुरु ने दो नरक के और दो स्वर्ग के रूप दिखाये और शिष्यों से कहा-”कर्मफल के अनुरूप इन दोनों ही परिस्थितियों को कही भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
गृहस्थ एक प्रत्यक्ष स्वर्ग है, इसी धरती पर है। घर में सत्प्रवृत्तियों की फसल बोकर उससे सब कुछ पाया जा सकता है, जिसकी कि स्वर्ग में होने की आलंकारिक गाथायें कही जाती हैं।