काँटे वरदान है। प्रभु के

June 1996

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मुस्कराते गुलाब की पंखुड़ियों पर जल बिन्दु थे। ऐसा लग रहा था, जैसे उसकी आन्तरिक पीड़ा उपलब्धियों की मुस्कान को पार कर छलक उठी है। वह सोच रहा था- भगवान् ने मुझे सुन्दरता और सुगन्ध से भरा-पूरा किया। चारों तरफ मेरी प्रसिद्धि है। मनुष्यों के ही नहीं देवताओं के माथे पर भी मुझे चढ़ाया जाता है। ईश्वर के लिए की जाने वाली आराधना मेरे सान्निध्य के बिना अधूरी रह जाती है।

एक और इतना सब कुछ देने वाले भगवान् ने न जाने क्यों मुझमें काँटे भर दिये। चारों ओर से मुझे काँटों से घेर दिया। इन्हीं काँटों के कारण लोग मेरे काँटों से हिचकते हैं। बच्चे मुझे कँटीला कहकर मुझसे कतराते हैं। काश! इन कांटों से से छुटकारा मिल पाता तो कितना अच्छा होता।

काफी समय तक गुलाब अपने इन्हीं विचारों में डुबा रहा। उसका दुःख विचारों में डूबा रहा। उसका दुःख पंखुड़ियों से जल-कण बनकर ढुलकता रहा उसे परमात्मा की यह करामात जरा भी अच्छी न लग रही थी। उसे अपने ऊपर की गई इस नाइंसाफ़ी का इतना गम हुआ कि उसने जमीन से भोजन तथा पानी लेना भी बन्द कर दिया। धीरे-धीरे उसका हँसता-खिलखिलाता अस्तित्व मुरझाने लगा।

उसकी यह दशा किसी से छिपी न रही। बगीचे के अन्य पौधे आश्चर्यचकित थे। आखिर ऐसा क्या हुआ, अभी दो दिन पहले यह कितना प्रसन्न था। तने से फुनगी तक अनगिनत कलियों से लदा था। चारों ओर इसकी सुगन्धि के चर्चे थे। आखिर क्या हो गया इसे? सबने मिलकर उसके दुःख का कारण पूछा।

गमगीन मन से गुलाब ने अपनी व्यथा पूछने वालों से कह सुनायी। उसकी बात सुनकर सभी पौधे सोच में पड़ गए। सभी को उससे सहानुभूति हो चली थी। अन्ततः सबने निश्चय किया कि गुलाब को भगवान् के दरबार में पहुँच कर अपने साथ की गयी नाइंसाफ़ी के बारे में पूछना चाहिए।

उसे भी अपने साथियों की बात अच्छी लगी। मार्ग की बाधाओं को पार करते हुए संकल्प, साहस और मनोयोग ने उसे भगवान के दरबार तक पहुँचा दिया। उसके पहुँचते ही वहाँ का वातावरण सुगन्धित हो उठा। भीनी-भीनी खुशबू सारे दरबार में फैल गयी। सारे दरबारी निहाल ही उठे।

वे सभी आश्चर्य से इधर-उधर ताक ही रहे थे, तभी गुलाब ने उन सबके बीच, प्रवेश किया। सबकी आँखें एकबारगी उस पर जा टिकीं। हरेक के हाथ उसे पाने के लिए मचल उठे। वे तो उसे झपट कर मसल ही देते, तभी गुलाब के काँटे उनकी हथेलियों में चुभ गए। आखिर सबको हाथ मलते पीछे हटना पड़ा। गुलाब की तो जैसे जान लौटी।

अब गुलाब की नजर भगवान् की ओर गयी। वह सुनहरी आभा बिखेरते सिंहासन पर बैठे मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे। गुलाब की उनकी यह मुस्कान कतई अच्छी न लगी। वह खिन्न मन अपनी समस्या पर विचार करने लें लीन था, तभी जैसे किसी संगीत लहरी ने उसके अस्तित्व को भिगो दिया, भगवान् पूछ रहे थे- “कहो वत्स, तुम्हारे यहाँ आने का कारण क्या है?”

भगवान् के इस प्रश्न पर गुलाब के अंतर्मन की पीड़ा शब्दों में छलक उठी। वह बोला- “हे सृष्टि के सिरजनहार। आपने मुझे रंग, रूप, सुगन्ध सब कुछ दिया। आपके इस अनुदान ने सारे संसार में मुझे प्रसिद्ध किया। लेकिन सब कुछ देकर मुझमें काँटे क्यों भर दिये? क्या यह मेरे साथ अन्याय नहीं है? इन्हीं काँटों के कारण मुझे पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पा रहा है। लोग खुलकर मेरे पास नहीं आते । बच्चे मेरी शाखाओं को छूने में हिचकते हैं। मैं उनके स्पर्श के लिए तरस कर रह जाता हूँ”

भगवान् गुलाब की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उनके होठों पर मुस्कान थिरक रही थी। सब कुछ सुनने के बाद वे गुलाब से बोले- “वत्स! तुम्हारा दुःख व्यर्थ है। ये काँटे तुम्हारे लिए अन्याय नहीं, प्रकृति देवी का वरदान है। इनके महत्व के बारे में यदि तुमने ठीक से विचार किया होता, तो तुम मेरे पास शिकायत लेकर न आते।”

गुलाब को भगवान् की बातें समझ में न आयी। वह उनकी बातों का मर्म जानने के लिए उतावला हो उठा। गुलाब की आतुरता का समाधान करते हुए परमेश्वर कहने लगे- “वत्स ! जिस क्षण तुमने दरबार में प्रवेश किया था, उसी समय तुम्हारी सुगन्ध से अकर्षित होकर सबके सब तुम्हारे ऊपर

झपट पड़े थे। उन्होंने तुम्हें पाना चाहा, परन्तु काँटों के कारण सबके सब हाथ मलकर रह गये। इससे साफ जाहिर है, वे तुम्हें सिर्फ मनोरंजन के लिए पाना चाहते थे। यदि उनके हृदय के पारखी हैं। जिन्हें तुमसे सच्चा अनुराग होगा, वे काँटे झेलकर भी तुम्हें पाने से सकुचायेंगे नहीं।”

“इस सृष्टि में जिसे विपत्ति कहकर कष्टकारक समझा जाता है, उसका भी अनोखा रहस्य है। जिसने रहस्य समझ लिया, वह अभिशाप को भी अनुदान बना लेता है। तुम्हारे जीवन के काँटों का भी यही रहस्य है।” इतना कहकर भगवान् चुप हो गए।

गुलाब का मन अपनी हीन भावना से मुक्त हो गया।


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