जिसने राष्ट्र को माँ माना

June 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शीतकाल की शुरुआत काफी पहले ही चुकी थी समूचा पेरिस नगर बर्फ की चादर ओढ़े हुए था। लगातार पड़ रही कड़ाके की सर्दी के कारण सभी अपने-अपने घरों में गर्म लिहाफों में दुबके हुए अलाव सेंक रहे थे। ऐसे में उसका यह बर्ताव सभी के लिए आश्चर्यजनक था। वह इस जानलेवा ठंड में भी बरफ जैसी शीतल धरती में भी उघाड़े, शरीर , बिना कुछ भी बिछाए बैठा था। जेल विभाग के छोटे-बड़े हर एक अधिकारी और कर्मचारी ने उस बन्दी को अपने-अपने ढंग से लाख बार समझाने व मनाने का प्रयास किया। परन्तु वे लोग उसे सूती या गरम कोई सा भी वस्त्र पहनने या ओढ़ने या बिछाकर बैठने को राजी न कर सके। जबकि ठंड के मारे उसके दाँता बज रहे थे। मुँह की रंगत उड़ चुकी थी, रंगे नीली पड़ रही थी, कहने -सुनने की तानि भी परवाह नहीं की। जो स्वयं सर्दी की इस असहनीय पीड़ा को अपने मन से झेल रहा हो, उसे डाँटने मारने के प्रभाव की आशा करना बेकार था। बस, वह तो चुपचाप बैठा सर्दी से काँपता रहा- पत्ते की तरह रात के साथ-साथ सर्दी का प्रकोप भी बढ़ता गया। तभी सम्राट नैपोलियन प्रतिदिन की तरह बंदियों का निरीक्षण करते हुए उस ओर भी आ पहुँचे । जेलर ने आगे बढ़कर सम्राट से उस अजीब किस्म के हठीले कैदी के बारे में निवेदन किया, तो नैपोलियन भी एक पल के लिए सोच में पड़ गए। उन्होंने एक दो बार पहले भी इस युद्ध बन्दी के बारे में सुन रखा था। अभी पिछले दिनों हुई फ्रांस और जर्मनी की लड़ाई में जर्मनी हो हार के बाद उसे पकड़ा गया था। अन्तिम समय तक इस जर्मन युद्ध बन्दी ने अप्रतिम शौर्य और साहस का प्रदर्शन किया था। उसकी वीरता के चर्चे फ्राँस के सिपाहियों की जुबान पर थे। नैपोलियन स्वयं भी वीर था, बहादुरों के सम्मान करना उसका स्वभाव था। वह उसी पल उस जर्मन बन्दी के सामने जा खड़े हुए। एक सैनिक होने के नाते सम्राट का अभिवादन करना तो दूर उस बन्दी ने पलकें उठाकर उसकी ओर देखा तक नहीं। मानों वह किसी गम्भीर ध्यान में तल्लीन हो। हाँ उसकी देह में कंपकंपी जरूर छूट रही थी। जिससे उसके दाँत बज रहे थे। बन्दी से नैपोलियन ने कई काम की बाते जाननी चाहीं, पर उसकी जुबान से एक शब्द भी नहीं निकला। वहाँ उपस्थित लोगों ने एक बार फिर उसे समझाने की कोशिश की, पर वह चुप्पी साधे रहा। उसकी जिद देखकर अधिकारियों को बहुत ही क्रोध आ रहा था वे लोग उसे छोड़कर जाना चाहते हैं लेकिन उसकी बिगड़ती जा रही शारीरिक दशा ने जैसे उसके पाँवों को जकड़ दिया। वे जा नहीं सके। कैदी की हालत को चिन्ताजनक देख सम्राट का कठोर हृदय भी दया से पसीज उठा। उन्होंने फिर बड़ी आत्मीयता से पूछा। सैनिक, तुम बेधड़क होकर अपनी समस्या मुझे बताओ। तो सही, अभी इसी पल उसका समाधान हो जाएगा। इस स्नेह भरे वाक्य ने कैदी पर मानो जादू कर दिया, उसके होठ हिले। काँपते स्वर में कहने लगा, महोदय मेरे न बोलने और न कपड़े पहनने, ओढ़ने से आप सब दुःखी है पर मैं अपने मन से लाचार हूँ क्या करूं? मैंने स्वदेशी कपड़े ही पहनने, ओढ़ने का प्रण कर रखा है सो आप लोग मुझे क्षमा करें मैं आपके देश के इन कपड़ों की पहन, ओढ़कर प्रण बचाने की अपेक्षा अपने प्राण की रक्षा के लिए प्राण त्यागना बेहतर समझता हूं। स्वदेश प्रेम पर मर-मिटने के लिए तैयार उस युद्ध बन्दी की देश भक्ति के सामने सम्राट नैपोलियन नतमस्तक हो गए। उन्होंने आस-पास खड़े। अधिकारियों को तुरन्त आज्ञा दी कि जैसी भी हो सके इस देशभक्त बन्दी के लिए जर्मन वस्त्रों की शीघ्र ही व्यवस्था की जाए। आदेश देकर सम्राट नैपोलियन अन्य बन्दियों की ओर उनका हाल-चाल जानने के लिए चल दिए और अधिकारीगण भी आज्ञानुसार तुरन्त भाग-दौड़ करने लगे। किन्तु सवेरा होने तक उस अनूठे देशभक्त कैदी की आत्मा, दुश्मन की कैद और संसार के बन्धनों से अपने को मुक्त करके अनन्त की ओर प्रस्थान कर चुकी थी। प्रातःकाल इस समाचार को सुनकर नैपोलियन की आँखों से दो आँसू लुढ़क पड़े। अनचाहे उसने हैट उतार कर उस देशभक्त को सलाम करते हुए कहा’- “काश। हर देश में ऐसे देश-भक्त पैदा हों जो देश की जमीन को मिट्टी का टुकड़ा न समझ उसे अपनी माँ समझे। देश के स्वाभिमान के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर सके।” इतना कहते हुए वह एक ओर चला गया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118