ध्यान साधना से अन्तःशक्तियों का जागरण -प्रस्फुटन

June 1996

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पतंजलि के योगदर्शन का प्रथम सूत्र है- “योगःचित्तवृत्ति निरोधः।” अर्थात् चित्त वृत्तियों को निरोध ही योग है। दूसरे शब्दों में, मन की चंचलता है अवरोध को रोक कर उसकी स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर अभीष्ट प्रयोजन में निरत करने के अभ्यास को योगाभ्यास-ध्यान कहा जाता है। धार्मिक क्षेत्र में इसके लिए देव प्रतिमाओं को निमित्त बनाया और मनःशास्त्रियों ने प्रकाश , बिन्दु, काला गोला या अन्य कोई ध्यानाकर्षण में सहायक माध्यम एकाग्रता के लिए प्रयोग किया । सूर्य की किरणें आतिशी शीशे के माध्यम से एक केन्द्र पर केन्द्रित करने के फलस्वरूप आग जलने लगती हैं सुई की नोक ही बारीक छेद द्वारा पिस्टन तक पहुँचाने पर उसका दबाव बढ़ता है और रेल दौड़ने लगती है। फायर ब्रिगेड के पाइप का मुँह छोटा पर धारा दूर तक पहुँचाती है और उसमें तीव्रता भी रहती है। बन्दूक की नली में डाली गई एक दिशा विशेष में चलने के लिए बाधित की गई तनिक -सी बारूद किस तेजी से चलती और लक्ष्य बेधती है। इस आधार पर एकाग्रता -ध्यान का चमत्कार समझा जा सकता है मस्तिष्कीय क्षमताएँ अनेक प्रयोजन में उड़ती रहती हैं इन्हें यदि नियन्त्रित करने और दिशा विशेष में लगाने का कौशल हस्तगत हो सके तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी विलक्षणों से आगे निकल सकता है वैज्ञानिक , कलाकार , साहित्यकार, शिल्पी आदि को इसी आधार पर अपने - अपने कार्यों में प्रवीणता और सफलता मिलती है। इसे ही ध्यान कहते हैं । आत्म नियंत्रण का अर्थ है-अपने चिन्तन तंत्र पर अधिकार अपना नियन्त्रण स्थापित करना । यह कार्य विचारों की अनियन्त्रित उछल-कूद की इच्छित दिशा धारा में लगा सकने के रूप में सम्पन्न होता है इसका अभ्यास ध्यानयोग के द्वारा किया जाता है। कुसंस्कारी मन आलस्य, प्रमाद से लेकर दुर्व्यसनों, दुष्कर्मों, दुष्प्रवृत्तियों में रस लेने में अभ्यस्त रहा हैं उसे रोकने, सम्हालने, साधने और सुसंस्कृति बनाने के लिए ही ध्यानयोग का समूचा शास्त्र गढ़ा गया है। ध्यान के कई उद्देश्य हैं- अनगढ़ दिमागी उछल-कूद को नियन्त्रित करना नियन्त्रित विचार शक्ति को अभीष्ट प्रयोजनों में नियोजन करना, एकाग्रता द्वारा बौद्धिक प्रखरता उत्पन्न करना, संकल्प शक्ति को किसी भी चमत्कारी हलचलें उत्पन्न करना, चेतना की रहस्यमयी परतों को अपने की मनोबल से उभारना, उछालना, अवांछनीय कुसंस्कारों का उन्मूलन, प्रतिकूलताओं के बीच भी सन्तुलन बनाये रहना, हर स्थिति में आनन्द और उल्लास भरी मनोभूमि बनायें रहना, अपनी विचार-विद्युत से संपर्क क्षेत्र को प्रभावित करना और वातावरण में सुख शान्ति संवर्धक तत्वों को बढ़ाकर लोक मंगल का पथ प्रशस्त करना। यह ध्यान धारणा के लौकिक-बौद्धिक प्रयोग है। यह लाभ थोड़ी-सी सावधानी एवं तन्मयता के सहारे कोई भी नास्तिक समझा जाने वाला व्यक्ति भी उठा सकता है जो ध्यान प्रक्रिया के माध्यमिक स्तर का प्रयोग मात्र है इससे आगे ध्यान के उच्चस्तरीय लाभ है इसके लिए विशिष्ट श्रद्धा एवं भाव संवेदनाओं से सम्पन्न अन्तः करण की आवश्यकता पड़ती हैं इसके अंतर्गत साधक अपनी चेतना को महत् चेतना से जोड़ सकता है। गुरु एवं इष्ट की शक्तियों को आकर्षित करना, उन्हें धारण करना’इसी स्तर के ध्यान प्रयोग से सम्भव होता है आत्म तत्व को परमात्मा तत्व से एकाकार करना इसी के सहारे सम्भव होता है यह ठीक है कि मनुष्य में स्वतः ही विद्यमान है और वह उन्हें अपने प्रयत्न-पुरुषार्थ से जाग्रत कर सकता है प्राथमिक माध्यमिक स्तर का ध्यान प्रयोग इसलिए है

किंतु उच्चस्तरीय ध्यान प्रयोग में दिव्यात्माओं का प्रत्यक्ष संयोग पा सकना, मनुष्य की सीमित सत्ता से असीम सत्ता का योग-संयोग सम्भव हैं ईश्वर प्राप्ति, जीवन लक्ष्य प्राप्ति ध्यान-धारणा के उच्चस्तरीय उद्देश्य हैं जिस प्रकार शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक सुसम्पन्नता के संवर्द्धन में अपने-अपने संपर्क क्षेत्र की और सार्वजनिक हित साधन की संगठना बढ़ती है, उसी प्रकार मनःसंस्थान के परिष्कृत और प्रखर बनने से भी व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारक परिस्थितियों उत्पन्न होती हैं स्थूल जगत से हम अनेकों प्रकार के लाभ अपने प्रत्यक्ष पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहते हैं सूक्ष्म जगत की विभूतियों और भी बढ़ी-चढ़ी है। उन्हें आकर्षित कर सकना । जिस प्रचण्ड मनोबल द्वारा सम्भव होता है। उसे उत्पन्न करने के लिए ध्यानयोग की प्रक्रिया अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होती हैं ध्यानयोग की आराधना को किसी चमत्कारी देवता की आराधना करने के समतुल्य ठहराया जा सकता है। ध्यान से भगवान प्राप्त होते हैं-आत्म साक्षात्कार का अवसर मिलता है नीरोगता और शक्तियों जाग्रत होती हैं, ऋद्धि-सिद्धियों से भरे वरदान प्राप्त होते हैं जैसे अनेकों लाभ साधना शास्त्र में गिनाये गये हैं यह कथन यथार्थ हैं चेतना की सामर्थ्य अनन्त है उससे लाभान्वित होने में एक ही बाधा है कि मनोनिग्रह की कला हस्तगत नहीं होती । जिसने इस कौशल में प्रवीणता प्राप्त कर ली, समझना चाहिए कि उसने अनेकों देव-दानव वशवर्ती कर लिए। पंचकोशों की ध्यान-धारणा से अपनी ही चेतना के पाँच प्राण, अपनी की काया के पंचतत्व इतने प्रखर परिष्कृत हो जाते हैं कि उन्हें दस दिक्पालों , दस दिग्गजों की उपमा दी जा सके। गायत्री माता की पंचमुखी प्रतिमाओं में अलंकारिक रूप से इन्हीं अंतर्जगत के पाँच देवों की शक्तियों सन्निहित होने के संकेत हैं कुण्डलिनी जागरण की ध्यान साधना में, काय-कलेवर में बीज रूप से समाहित असंख्य शक्तियों के उद्भव एवं उपयोग का द्वार खुलता है। कुण्डलिनी शरीरगत ऊर्जा है, जिसके सहारे भौतिक जगत की अनेक शक्तियों को आकर्षित करके समर्थ, शक्तिवान बना जा सकता है पंचकोश अनावरण में चेतना शक्ति हैं आत्म सत्ता को पंचकोशों के और काय सत्ता को कुण्डलिनी के माध्यम से प्रखर बनाया जा सकता है इस उभयपक्षीय प्रयोजन की सिद्धि में अन्य साधनाओं के अतिरिक्त ध्यान -धारणा का सर्वोपरि स्थान हैं हर मस्तिष्क की संरचना भाव चित्र उभारने ध्यान में अभीष्ट दृश्य देखने की नहीं होती। अस्तु, उनके लिए ध्यान को केन्द्रित करने के लिए दृश्य प्रतीकों का, बिन्दु योग का अभ्यास नहीं कराया जाता। मूल उद्देश्य विचार प्रवाह के बिखराव को रोक एक समिति प्रयोजन में केन्द्रित होने का अभ्यास कराया जाता है यह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकता है। कर्णेन्द्रिय के माध्यम से नादयोग, नासिका द्वारा गन्धयोग , जिह्वा द्वारा रसनायोग , त्वचा द्वारा स्पर्शयोग की अनेकों विधि-विधान हैं जिनमें सूक्ष्म नेत्रों द्वारा दृश्यों को देखा जाता है। आरम्भ के साधकों के लिए यह अधिक उपयुक्त है कि एक श्रेष्ठ विचारधारा के प्रवाह में बहने के लिए रास्ता बना दिया जाय। वैज्ञानिक , साहित्यकारों, दार्शनिकों की ध्यान-धारणा इसी प्रकार की होती हैं कि वे एक सीमित विचार पद्धति को अपनाकर, वे उसी दायरे में अपने चिन्तन क्रम में नियोजित किये रहते हैं और उसके आश्चर्य-जनक सत्परिणाम उपलब्ध करते हैं। पंचकोशों और कुण्डलिनी जागरण की ध्यान-धारणा में यही नीति अपनाई गई हैं

शांतिकुंज के पाँच दिवसीय एक मासीय एवं नौ दिवसीय साधना सत्रों में त्रिकाल ध्यान-धारण का क्रम सम्पन्न होता है। प्रातःकाल उगते सूर्य का ध्यान-प्रज्ञायोग, दोपहर कालीन दीपक की ज्योति पर ध्यान-ज्योति अवधारण ध्यान-साधना एवं संध्याकालीन को करनी पड़ती हैं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में प्रत्येक साधकों का विभिन्न पर प्रयोग किया जाता है। ध्यान के पूर्व एवं बाद में कितना अन्तर आया, मानवी काया पर क्या प्रभाव पड़ा? इसके लिए मल्टीचैनेल पालीग्राफ (इलेक्ट्रो एनसेथ्फलोग्राम) , बायोफीडबैक (टेम्परेचर पल्स ई॰ ई॰ जी0 जी0 एस0 आर0) आदि मशीनों से साधकों को गुजरना पड़ता है। रक्त के श्वेत कणों एवं विविध हारमोन्स एन्जाइम जीवनी शक्ति बढ़ाने वाले द्रव्यों तथा फेफड़ों की रक्त शोधन प्रक्रिया पर आहार शुद्धि योगासन, ध्यान-धारणा का प्रभाव रेखांकित किया जाता है। ध्यान-साधना के अंतर्गत , मानवी सत्ता के अंतर्गत विशिष्ट शक्ति स्रोतों अद्भुत व्यक्तित्वों का विकास किया जाता है। अपने अन्दर बीज रूप में सन्निहित महाशक्ति को जाग्रत करके, इसके अधोगाती प्रवाह को रोककर बलपूर्वक ऊर्ध्वगति बनाया जाता है उच्चस्तरीय ये साधनाएँ आत्मसत्ता को परमात्मा सत्ता से जोड़ने उस स्तर तक पहुँचाने में समर्थ है।


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