सूर्य साधना का महात्म्य समझें और लाभ उठाये

June 1996

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सूर्य को समूचे सौर-मण्डल का ध्रुव केन्द्र समझा जाता है यही कारण है कि विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय के लोग उसे दैवी शक्ति के स्वरूप में मानकर पूजा अर्चना का उपक्रम बिठाते रहे है। मिश्र की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हिलियों पोलिस को सूर्य की राजधानी कहा गया हैं एपोलो, यूनान और रोम के निवासियों का आराध्य एवं इष्टदेव सूर्य है उनकी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य पुत्र फीथन ने जब आग्नेय रथ को आकाश मार्ग से हाँकने का प्रयास किया तो पृथ्वी की कक्षा के सन्निकट आ पहुँचा । तभी से वह अपने अस्तित्व का परिचय दे रहा है। ईसाइयों के धर्मग्रन्थ ‘ओल्ड टेस्टोमेंट’ अनुसार , जोशुआ को सूर्य प्रासाद में ही दफनाया गया। पादरी जाब ने अपने जीवनकाल में केवल एक ही उपदेश दिया कि सूर्योदय के समय ही मेरे पास विचार विमर्श हेतु आया करें अर्थात् प्रभातकालीन सूर्य की सुनहरी रश्मियों की उपस्थिति में सत्संग का पूर्ण लाभ उठाया जा सकता है। उन्होंने अपने निवास का नाम ही ‘वेथ रोमेश’ रखा, जिसका अर्थ ‘सूर्य भवन’ से लगाया जाता है। चिरपुरातन ‘इन्का’ संस्कृति पर दृष्टि दौड़ाई जाय तो पता चलता है कि राजधानी ‘कुन्को’ में एक विशाल सूर्य मेदिन बना हुआ है जिसे देखकर यही कहा जा सकता है। कि उनका आराध्य देव सूर्य हो रहा होगा। मैक्सिको के देवालय साके में आज भी विशाल सुनहरे रंग की स्वर्ण चकतियाद्द सूर्योपासना की प्रमाणिकता को सिद्ध करती हैं ब्राजील, न्यूजीलैण्ड के आदिवासी समुदाय में रहने वाले लोग सूर्य को एक विराट आत्मा के रूप में मानते हैं इतना ही नहीं उनका यह भी विश्वास है कि सूर्य अपनी आवश्यकतानुरूप मनुष्य शरीर धारण करता और मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए प्राणियों को ज्ञान ज्योति के सहारे भवसागर से पार करता है उत्तरी अमेरिका में निवासरत कई प्रकार की जाति-प्रजातियां ऐसी है जो सूर्य को ही अपना देवी-देवता मानते और पूजा-अर्चन का उपक्रम बिठाते हैं क्रो, प्यूबलों, नैचेज, ब्लैकफुट इरोकोइस और सिओवस के नाम प्रमुख रूप से लिए जाते हैं। ध्रुव प्रदेशों के एस्किमो जाति के लोग ‘सूर्यनृत्य’ में बहुत रुचि रखते हैं यहूदी और ईसाई धर्म के अनुयायी अपना धार्मिक दिन रविवार हो ही मानते हैं जिससे सूर्य की गरिमा और महत्ता एवं उपयोगिता का ही पता चलता है।

सूर्य अग्नि का एक प्रचण्ड गोला भी है तो प्राण शक्ति का प्रखर भांडागार भी । उसकी अन्तर्निहित शक्तियों से ध्वंसात्मक सरंजाम भी जुट सकता है तो सृजनात्मक प्रयोजन भी पूरा होता रह सकता है। मानवी बुद्धि के ऊपर ही निर्भर करता है कि वह इस दैवीय ऊर्जा शक्ति का कैसा और किस प्रकार का प्रयोग कर सकता है। ईसा से 447 वर्ष पूर्व एथेन्स के सुप्रसिद्ध हास्य कवि ऐरिस्टोफेनीज ने ‘मेघ’ नामक अपनी रचना में एक शीशे का वर्णन किया है, जिसके माध्यम से सूर्य की ऊर्जा शक्ति को अवशोषित किया जा सकता है उनके मतानुसार जिस प्रकार काँच का इस्तेमाल करके सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है, ठीक उसी तरह मानवी चेतना में प्राण ऊर्जा का संचार सूर्य के संपर्क सान्निध्य में आकर किया जा सकता है चूंकि चेतना की ज्योति का उद्गम स्त्रोत महासूर्य को ही माना जाता है इसलिए उसके अंश आत्मसत्ता में प्रखरता सम्पादित करने का सत्प्रयोजन भी पूरा होता रहता है। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्किमिडीज ने सौर ऊर्जा के प्रयोग के लिए एक दाहक शीशे का इस्तेमाल किया , जिसका दुरुपयोग लोगों ने किया और बुद्ध जैसी विनाशकारी विभीषिका उत्पन्न कर दी। रोम के एक जहाजी बेड़े ने सिराक्यूज पर आक्रमण करते समय आर्किमिडीज के दाहक शीशे का ही युद्ध आयुध के रूप में प्रयोग किया। यूनानी लोग सूर्य को अपोलो के नाम से भी पुकारते हैं दूसरा नाम हीलियोस हैं अंग्रेजी भाषा के हीलियम शब्द की व्युत्पत्ति इसी से हुई है उनकी दृष्टि में विभिन्न प्रकार के जीवनोपयोगी तत्वों का उद्गम केन्द्र सूर्य को ही माना जाता है। भारती शास्त्रों, ग्रंथों में भी इसी को स्पष्ट किया गया हैं कि सम्पूर्ण विश्व चर-अचर सबको जीवन देना वाला, प्राण देना वाला , ऊर्जा देना वाला सूर्य ही है। ऋग्वेद 10।37।4-5 में कहा गया है कि सूर्य ने न केवल सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक, प्रवर्तक, धारक एवं प्रेरक हैं वरन् उनकी किरणों में आरोग्यवर्धन-दोष निवारण की अभूतपूर्व क्षमता विद्यमान है। उसकी उपासना करने, सेवन करने से दुःख स्वप्न जनित अनिष्ट एवं नवग्रह जन्य पीड़ा का निवारण होता है राक्षसों से , दुष्प्रवृत्तियों से भी छुटकारा दिलाने-उनसे रक्षा करने वाली शक्ति सूर्य किरणों में है। ऋग्वेद 1।115।1-6 में कहा है कि “हे प्रकाश रश्मियों! टाज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो इस संसार में जो कुछ भी निन्दनीय है। दुःख दारिद्रय हैं गर्हणीय है उन सबसे हमारी रक्षा करो तात्पर्य यह है कि सूर्य किरणों में समस्त रोग-शोकों को विनष्ट करने की क्षमता विद्यमान है। सूर्य ही अपने प्रकाश से , तेज से सबको प्रकाशित करते हैं । यजुर्वेद में सूर्य को, सम्पूर्ण भुवन को प्रकाशित करने वाला बतलाया गया है। अथर्ववेद में प्रकाश रश्मियों द्वारा हृदय की दुर्बलता हृदय, रोग और कास रोग को दूर करने का प्रतिपादन किया है। सूर्य की किरणें धरती पर गीले पदार्थों को सुखा देती हैं तथा समुद्र से जल का वाष्पीकरण कर उन्हें पीन योग्य बनाती हैं सूर्य किरणों में कुष्ठ रोग निवारण को अपूर्व क्षमता है साम्बोपाख्यान में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता हैं श्री कृष्ण द्वारा किया था। प्रकाश किरणों के सेवन से उनका रोग जाता रहा ‘सूर्य शतक’ नामक उत्कृष्ट कोटि के सूर्य स्रोत की रचना करने वाले सातवीं शताब्दी के महान कवि मयूर को कुष्ठ रोग हो गया था कुष्ठ जनित आत्मवेदना से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने सूर्य की उपासना की। प्रकाश किरणों के प्रभाव से वे रोग मुक्त हुए थे। मत्स्य पुराण में 67।79 में सूर्य को आरोग्य के अधिष्ठाता देवता बताया गया है। और कहा गया है- “आरोग्य भस्करादिच्छेत् “ अर्थात् आरोग्य की कामना भगवान भास्कर से करनी चाहिए। सूर्य किरणों में आँखों के सभी रोगों के निवारण की क्षमता है। रामचरित-मानस में भी कहा गया हैं- “नयन दिवाकर कच घन माला” ।15।3 योग विद्या के विशारदों का कहना है कि शरीर में स्थित सूक्ष्म चक्रों का सम्बन्ध तत्व विशेष से होता है। उन्हें प्रभावित करने एवं सक्रिय बनाने के लिए किसी विशेष रंग का ध्यान करना होता हैं उदाहरण के लिए, ‘सोलर प्लेक्सस’ अर्थात् मणिपुर चक्र जो अग्नि तत्व प्रधान है- उसे जाग्रत करने के लिए स्वर्धिम आभायुक्त पीले रंग या इस रंग के कमल का ध्यान किया जाता है। उनके अनुसार, सूर्य की सप्तवर्णी किरणों का इन चक्रों से विशेष सम्बन्ध है। ध्यान से इस क्षेत्र के तत्वों में सूक्ष्म प्रकम्पन पैदा हो जाते हैं परिणामस्वरूप शरीरस्थ व्यष्टि प्राण चेतना समष्टिगत प्राण चेतना की ओर प्रवाहित होने लगती है और दोनों में आदान - प्रदान का क्रम चल पड़ता हैं सुविख्यात भौतिक बानी प्रो0 ए॰ हेर्ण्डसान का कहना है कि ब्रह्माण्ड में सर्वोत्तम यदि कुछ है तो वह सूर्य और उसकी किरणें । यह किरणें 176000 मील प्रति सेकेंड की तीव्रगामी गति से चलकर पृथ्वी पक पहुँचती एवं जीवधारियों तथा वृक्ष-वनस्पतियों में नवजीवन फूँकती है। विश्व-ब्रह्मांड के जड़- चेतन की उत्पत्ति का मूल आधार इन किरणों की प्राण शक्ति हैं सूर्योपनिषद् में चराचर जगत की उत्पत्ति का एकमात्र कारण सूर्य को बतलाया गया है और उन्हीं को सम्पूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्मा बतलाया गया है। पतंजलि योग दर्शन में कहा गया है।-”भूवनज्ञानं सूर्य संयमात्” अर्थात् सूर्य में संयमन करने से सम्पूर्ण विश्व का स्पष्ट ज्ञान हो जाता हैं सूर्य की सात किरणें ग्रहों के सात , ईश्वर, कास्मिक, प्लैनेटरी लोगोई ‘ के रूप में मानी गई है। ’फर्स्ट बुक ऑफ थियोसॉफी” नामक पुस्तक में पी पावरी ने इसका विशद् विवेचना किया है। उनके अनुसार सूर्य मंडल का प्रत्येक ग्रह सात प्रकार के अणुओं से बना है। उनका सामूहिक स्वरूप सुर्य की सप्तवर्णी किरणों के रूप में परिलक्षित होता है। उसी पुस्तक में उन्होंने आगे बताया है कि पदार्थों की मात्र ठोस, द्रव एवं गैस नामक तीन प्रमुख अवस्थाएँ ही नहीं है वरन् यह सात अवस्थाओं में बँटा होता है पदार्थ की चौथी, पांचवीं छठी एवं सातवीं अवस्था ईथर है, जो अलग-अलग और सूक्ष्म अवस्था में होते हैं साथ ही उनके भी सात-सात उप अवस्थाएँ (सब स्टेट्स) होते है। यह सभी पदार्थ एक-दूसरे से मिले हुए होते हैं इन्हीं से ग्रह-नक्षत्रों का निर्माण हुआ हैं सात रंगों के प्रकम्पन इन्हीं पदार्थों के हैं, जिनका मुख्य स्त्रोत सूर्य हैं मानव जीवन पर इनका गहरा प्रभाव पड़ता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि काय संरचना में भी उन्हीं तत्वों की भरमार है, जो विश्व - ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं प्रकृति सात हैं साँख्कारिका सूत्र 3 में कहा गया है कि महत्व अहंकार और पंच तन्मात्राएं सात प्रकृति है। सुप्रसिद्ध थियोसाफिस्ट लेडवीटर ने अपनी पुस्तक ‘मैन विजिबल एण्ड अनविजिबल्स ‘ मैं बताया है कि संसार में सप्त लोक हैं उसी तरह मनुष्य के शरीर में सात तत्व कार्यरत है। ये हैं (1) फिजीकल (2) एस्ट्रल (3) मेण्टल (4) बौद्धिक (5) निर्वाणिक (6) परा निर्वाणिक (7) महापर निर्वाणिक । प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी फ्रान्ज हार्टमैन ने अपनी कृति- ‘आकल्ड साइन्स इन मेडिसा’ में चिकित्सा विज्ञान के गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डाला हैं उन्होंने उक्त पुस्तक में आधुनिक चिकित्सा के जन्मदाता थियोफ्रैस्ट्स पासैल्सस और उनकी पुस्तक ‘द फण्डामैण्टों सेपियेण्ठी’ का उल्लेख किया हैं उनके अनुसार पासैल्स अपने समय के प्रख्यात चिकित्साशास्त्री थे। शारीरिक-मानसिक रुग्णता दूर करने के आधुनिक तरीकों के बारे में उनका कहना था कि रोगों का प्रमुख कारण मात्र स्थूल अवर ही नहीं-ढूंढ़ा जाना चाहिए । इसका जड़ मनुष्य को प्राण चेतना में सन्निहित होती हैं जिसका अधिपति सूर्य हैं उस आश्रय लेकर मनुष्य न केवल स्थूल काया की बीमारियों से छुटकारा पर सकता है वरन् समष्टि चेतना का सम्बन्ध स्थापित करके उच्चता के सोपान पर आगे बढ़ सकता है। सूर्य का पृथ्वी के साथ अविच्छिन्न रूप में संबंध जुड़ा हुआ है। सूर्य की गतिविधियों से जितना समूचा भूमण्डल प्रभावित होता है उतना ही पृथ्वी की हलचलों के कारण क्षुब्ध अथवा प्रसन्न होकर सूर्य बढ़ा सुख मिल जाय , तो विक्षिप्तता टल जाती और एक अनिर्वचनीय आनंद मिलने लगता है पागलपन तो उस स्थिति में आता है, जब मनुष्य उपलब्ध में सुख को त्याग दे, किंतु सामने कोई दूसरा सुख नहीं हो। यदि कोई दूसरी बड़ा सुख मिल जाए तो निश्चय की वह पहले वाला छोटा और गौण हों जायेगा? एवं उसकी महत्ता नगण्य जितनी रह जायेगी, ठीक वैसे जैसे छोटी रेखा के आगे कोई बड़ी लकीर खिंच जाय, तो पहले वाली अप्रथान और दूसरी प्रमुख हो जाती हैं इसकी उपलब्धि के लिए ऋषियों ने एक सारगर्भित सूत्र दिया है। यदि उसे जीवन में उतारा गया, तो निस्संदेह उस बड़े आनंद की प्राप्ति की जा सकेगी, जिसके आगे काम-सुख तुच्छ हो जाता है यह सुख है-अंतर्यात्रा का? बहिर्यात्रा व्यक्ति को ‘काम’ में उलझाती है, जबकि अंतर्यात्रा उसे ‘राम’ तत्व का रसास्वादन कराती है। इस अंतर्यात्रा का सही ढंग से अभ्यास किया गया, तो भोग से भी अधिक रस इस अंतर्योग में आने लगेगा। यदि इसके पीछे की वैज्ञानिकता को समझ लिया जाय, तो बात और भी स्पष्ट हो जायेगी। यथार्थ में हम जिसे सुख मानते और बाहरी वस्तुओं में तलाश करते हैं, वह वास्तव में अंदर की मन की चीज है। बाहरी जगत से उसका रंचमात्र भी संबंध नहीं। यदि ऐसी बात नहीं रही होती , तो सी सामग्री के उपभोग के पश्चात् वह फीकी लगती प्रतीत नहीं होती और रस की खोज में मन फिर किसी अन्य की माँग नहीं करता, पर दैनिक जीवन में अनुभव इसके विपरीत होते जान पड़ते हैं इससे स्पष्ट है-मन ही सरसता और नीरसता के लिए जिम्मेदार हैं इस मन के सुख की जो व्याख्या आप्त वचनों में की गई है, उसके अनुसार जब मन का योग एक विशेष प्रकार की विद्युत धारा से होता है, तो सुख की अनुभूति होती है और जब दूसरी प्रकार के प्रवाह से होता है तब दुःख का कारण बनता है। अर्थात् दोनों स्थितियों के लिए आँतरिक तरंगें ही उत्तरदायी हैं ब्रह्मचर्य के दौरान इन्हीं में से एक तरंग की जगाना पड़ता है, पर यह जगे कैसे? इसकी भी प्रक्रिया बतायी गई है। विज्ञान के अनुसार यह तरंगें सिर के पीछे स्थित दो छोटी परस्पर सटी ग्रंथियों के कारण पैदा होती हैं। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि इनमें से यदि सुखोत्पादक ग्रंथि जाग जाय तो फिर चाहे कितना भी दारुण कष्ट उपस्थित हो जाय, भयंकर घटना घट जाय, व्यक्ति का कभी भी दुःख नहीं होगा। इसी तरह क्लेश पैदा करने वाली ग्लैण्ड के जाग्रत होने से आदमी कदापि सुखी नहीं रह पायेगा, भले ही उसे कुबेर जितनी संपत्ति मिल जाय, साधनों का अंबार लग जाय, अनुकूलता की अट्टालिका खड़ी हो जाय, पर इन सबके बावजूद वह पीड़ित बना रहेगा, कारण कि उक्त ग्रंथियों से संबंधित अंतस् की जो संवेदना थी, वह जाग गई यह जागरण व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण भी हो सकता है, परन्तु यहाँ वे मात्र संवेदना को जगाने का निमित्त बनते हैं, सुख-दुख का नहीं सुख-दुख का निमित्त हो वह भीतरी स्पन्दन ही हैं जिसके कारण ्राँथ्यों सक्रिय बनती और तत्सम भाव को प्रतीति कराती हैं इसे संवेदना का विज्ञान कहा गया है। ब्रह्मचर्य के दौरा इसी का संयम करना पड़ता है। इसके मार्ग को जिसने समझ लिया, वही ठीक -ठीक उसका पालन कर सकता है अन्यथा इसके रहस्य को जाने बिना वह बाहरी पदार्थों में ही भटकता रहेगा संसार में पलायन करेगा, इस उम्मीद में कि शायद कंदरा में ब्रह्मचर्य सध जाय, पर वहाँ भभ् उसे दुख के अतिरिक्त कुछ भी हस्तगत नहीं होगा और जीवन यों ही बरबाद होता चला जायेगा। यहां तनिक उस शरीरशास्त्र की समझा लेना जरूरी है। जो काम वासना का निमित्त हैं ज्ञातव्य है कि शरीर की अधिकाँश क्रियाएं रस-स्रावों पर निर्भर हैं यह स्राव यदि ज्यादा हुआ, तो तत्संबंधी क्रिया भी असामान्य स्तर की हो जाती है और होने पर भी वह असामान्य बनी रहती है दोना के स्तर में अंतर होता है। अधिक बनने से क्रियाविधि काफी तीव्र हो जाती है। जबकि कम होने पर मंद जाती है। सामान्य भूमिका में वह तभी रह पाती है। जब हारमोन संतुलित मात्रा में निकले। यही सहजल स्थिति है। वासना की दशा में यौन हार्मोन के स्राव पर पहले पिट्यूटरी का कठोर नियंश होता है। यही कारण है कि बालकों को आरंभ के कुछ वर्षों तक काम-लिप्सा का ज्ञान आरंभ के कुछ वर्षों तक काम-लिया का ज्ञान तक नहीं हो पाता उसके सताने की बात तो दूर है किंतु जब वह 14-15 साल की अवस्था के हो जाते हैं, तो निसर्ग के नियमानुसार यौन हारमोन्स पर पिट्यूटरी ग्रंथि का नियमन ढीला पड़ने लगता है उसके ढीला पड़ते ही ‘काम’ संबंधी रसस्राव गोनैड (काम केन्द्र) को प्रभावित करने लगता है यही वह आरंभिक अवस्था है, जिसमें ‘काम’ संबंधी जानकारी का प्रथम उदय बालकों में होता है बाद में जिसमें जिस अनुपात में काम पैदा होता उसमें उसी अंश में उसके प्रति ललक देखी जाती है। कई व्यक्तियों में कई बार यौन के प्रति भयंकर अतृप्ति पायी जाती है जबकि कुछ सामान्य ढंग इसके प्रति एकदम अश्चि होती है। इस भिन्न-भिन्न मात्रा की ही भूमिका होती हैं । इस यौन प्रवृत्ति को नियंत्रित कैसे किया जाय? इसके दो तरीके है। एक-दूसरी का तरीका है, दूसरा उदात्तीकरण का है जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं दमन से विक्षिप्तता आ सकती है व्यक्ति असामान्य बन सकता है किंतु उदात्तीकरण से आनन्द की उपलब्धि होती है। यह एक व्यापक आध्यात्मिक प्रयोग है, जिसमें काम वृत्ति को इतना परिष्कृत और विशाल बना दिया जाता है, कि सताने जैसी कोई बात शेष रह नहीं जाती । काम नियंत्रण के द्वारा जब प्राण शक्ति को संबंधित किया जाता है। तो वही प्रतिभा, प्रखरता, साहस, मनोबल, पुरुषार्थ , पराक्रम विवेक सहिष्णुता जैसी कितनी ही धातुओं के रूप में प्रकट और प्रस्फुटित होती हैं धूति , स्मृति, आत्मविश्वास, शारीरिक स्वस्थता, कायिक बलिष्ठता, ओज, तेज, - यह सब ब्रह्मचर्य के ही सत्परिणाम है। जो इसे जितने अंशों में धारण करेगा, उसी परिणाम में हाथों-हाथ यह विभूतियाँ मिलती चली जायेगी। भी अपनी प्रभावशीलता का परिचय देता है यू0 के0 ईस्ट ऐंब्लिया यूनिवर्सिटी के क्लाइमेटिक रिसर्च यूनिट के अनुसंधानी टी0 एम॰ एल॰ चिगले के अनुसार पृथ्वी की जलवायु अथवा मौसमीय परिवर्तनों की जानकारी 11 वर्षीय सोलर स्पाट साइकल और 22 वर्षीय मैगनेटिक साइकल के द्वारा आसानी से की जा सकती है। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में किसी भी प्रकार का विक्षेप उत्पन्न होने का अभिप्राय सूर्य को क्षुब्ध करने का ही होता है। उन दिनों कुछ ऐसा ही घटित हो रहा हैं वायुमण्डल में घुली हुई विषाक्त गैसों और रेडियोधर्मी विकिरण के फलस्वरूप पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को विशेष आघात पहुँचा हैं सौर विस्फोट और हैलियों मैग्नेटिक डिस्टरवेंसेज अर्थात् सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में भी विक्षोभ उत्पन्न होने लगा है, जिससे धरती पर निवासरत प्राणियों को भिन्न-भिन्न तरह के प्राकृतिक प्रकोपों का शिकार बनना पड़ा रहा हैं नेशनल फिजीकल लैबोरेटरी दिल्ली के भौतिक विज्ञानी ए॰ पी0 मित्रा के अनुसार, सूर्य की इस विध्वंसकारी प्रतिक्रिया का कुप्रभाव समताप मण्डल (स्ट्रटोस्फीय ) के माध्यम से देखा-समझा जा सकता है इसमें विद्यमान वायु कण के कारण पृथ्वी के विद्युतीय क्षेत्र को विशेष प्रकार का खतरा उत्पन्न हो रहा है। यह सब मानवी कृत्यों की परिणति हैं अणु विस्फोट और जहरीली गैसों के उत्सर्जन से ही ऐसी विपन्न हुई हैं वायुमण्डल के परिशोधन के बिना उक्त समस्या ज्यों की त्यों ही बनी रहेगी और समूचा पृथ्वी मण्डल मौसम सम्बन्धी विषमताओं का शिकार बनता रहेगा। भौतिकविदों का कहना है कि फैले विकिरण में विकिरण में विशेष प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा हैं विश्व के विकिरण में 0.1 प्रतिशत से कम का परिवर्तन भले ही दिखता रहे पर किसी स्थान विशेष के विकिरण की परिवर्तनशीलता को देखा जाय तो इसका औसत 10 प्रतिशत से भी अधिक होता है वायुमण्डल प्रदूषित होने के कारण ही इस तरह की अप्राकृतिक हलचलें देखने को मिल रही है। ज्योतिर्विज्ञान से चीन के ज्योतिषी 4000 वर्षों से भविष्यवाणियों करते आये है। और लोगों को पूर्व जानकारी देकर प्रकोपों से बचाते आए है। यूनान के बेलीज ने इससे सूर्य ग्रहण को जानकर मेडीज और लाइडियन्स के बीच भारी युद्ध बन्द करोगे । तो सूर्य देवता 27 मई, 575 को काला पड़ जायेगा और तुम्हें श्राप देगा। उस दिन से डरकर उन्होंने युद्ध बन्द कर दिया। भारत के ज्योतिषियों ने जान लिया है कि 6545 दिनों बाद ग्रहणों के गतिचक्र की पुनरावृत्ति होती है इससे वे हजारों वर्ष बाद पड़ने वाले ग्रहणों का दिन, समय आदि बतला देते हैं आस्ट्रिया के देवज्ञ थियोडोर ओपोल्जेर न भावी 7000 वर्ष के सूर्य ग्रहणों एवं 52 वर्षों के चन्द्र ग्रहणों की तिथि एवं निकाला हैं इसमें लोग सूर्य एवं चन्द्र ग्रहणों के दुष्प्रभावों को पूर्व से जानते हुए उनसे दीर्घकाल तक बचें रहेंगे। महर्षि वशिष्ठ ने सूर्यवंशीय वुहद्बल को अभिलक्ष कर सूर्य के वैभव का ही वर्णन किया है। उनके अनुसार सूर्य की किरणों में 4 किरणें जल बरसाती है, तीस किरणें हिम (शील) उत्पन्न करती है। इन्हीं सूर्य किरणों की औषधि शक्ति बढ़ती हैं अग्नि में दी गई आहुति सूर्य तक पहुँचकर अन्न उत्पन्न करती हैं यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न को होना शास्त्र सिद्ध और लोक प्रसिद्ध हैं जल का अनन्त चक्र सूर्य ही चलाता है गायत्री उपासना से जिन स्ळाल लाभों की चर्चा की जाती हैं वह सूर्य देव की प्रकाश शक्ति का ही चमत्कार हैं जिस तरह मन में जब काम वासना के विचार उठते हैं, उसकी शारीरिक इन्द्रियों पर उत्तेजना परिलक्षित होती हैं उसी प्रकार मन का ध्यान जब सूर्य लोक में करते हैं तो सूर्य की सबसे समीप वाला किरणों में मन का व्नान होता है और उसकी श्रेष्ठ शक्तियों के चमत्कारी परिणाम भी निश्चित रूप से शरीर में परिलक्षित होते हैं सूर्य भगवान का ध्यान करने से मानसिक शुद्धि ओर आत्मिक पवित्रता भी बढ़ती है, इसलिए ही सूर्य को लोक एवं परलोक दोनों प्रकार के सुखों का दाता कहा गया है। सूर्य सृष्टि का प्राण है। प्राणों की उपेक्षा कर मानवी जीवन के अस्तित्व की रक्षा नहीं की जा सकती , इसलिए स्वस्थ, बलिष्ठ रोग मुक्त और आत्मिक प्रगति के लिए हमें सूर्य किरणों सूर्य के प्राण तत्व की उपासना करनी ही चाहिए।


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