सप्तलोक, सप्त आयामों का ज्ञान एवं विज्ञान

June 1996

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शास्त्रों में सप्त लोक, सप्त घोड़ों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। उपरोक्त सात समूह वस्तुतः चेतना की सात परतें, सात आयाम - जिनका अलंकारिक वर्णन इन रूपों में किया गया है। उनकी चमत्कारी सामर्थ्य की गाथाओं से सारा पुराण-इतिहास भरा पड़ा है। जो जितनी परतों को जान लेता, उन पर अधिकार कर लेता है, लेता, उन पर अधिकार कर लेता है, वह उसी अनुपात में शक्ति संपन्न इतिहास भरा पड़ा है। जो जितनी परतों को जान लेता, उन पर अधिकार कर लेता है, वह उसी अनुपात में शक्ति संपन्न बन जाता है। समस्त जड़-चेतन इन्हीं सात आयामों के भीतर गतिशील हैं। सात आयामों के भीतर गतिशील हैं। दृश्य-अदृश्य समस्त सत्ताओं का अस्तित्व इन सात आयामों के भीतर है। पदार्थ एवं चेतना का दृश्य एवं अदृश्य स्वरूप इन आयामों के ऊपर निर्भर रहता है।

ब्रह्म विद्या में सात आयामों की चर्चा अक्सर की जाती है। यही सात लोक गायत्री मन्त्र के साथ प्राणायाम उच्चारण किया जाता है। भू, भुव, स्वः, तप, जन, महः, सत्यम्। ये सात व्याहृतियाँ सात लोकों की परिचायक है। इनकी चर्चा इस संदर्भ में होती है कि प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए ही हमें अगले आयामों में पदार्पण करना चाहिए। तीन लोक भौतिक हैं-भूः, भुवः एवं स्वः। इन्हें धरती, पाताल और आकाश भी कहते हैं। भौतिकी इसी सीमा में अपनी हलचलें जारी रखती है। अगले चार लोक हलचलें जारी रखती है। अगले चार लोक सूक्ष्म हैं। चौथा भौतिकी और आत्मिक का मध्यवर्ती क्षेत्र है। पाँचवाँ, छठा, सातवाँ लोक विशुद्ध चेतनात्मक है। इन्हें पदार्थ सत्ता से ऊपर माना गया है। इसे और भी अच्छी प्रकार समझना हो तो भूः स्वः को सामान्य जगत, तपः को चमत्कारिक सूक्ष्म जगत एवं जनः, महः, सत्यम् का देवलोक तपः को चमत्कारिक सूक्ष्म जगत एवं नः, सत्यम् को देवलोक कह सकते हैं। मनुष्य सामान्य जगत में रहते हैं, सिद्ध पुरुषों का कार्यक्षेत्र सूक्ष्म जगत है। देवता उस देवलोक में रहते हैं। जिनकी संरचना जनः, महः, सत्यम् तत्वों के आधार पर हुई है।

समझा जाता है। कि सातों लोक ग्रह-नक्षत्रों की तरह वस्तु विशेष हैं और उनका स्थान कहीं सुनिश्चित है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये लोक अपने ही जगत की गहरी परतें हैं। उनमें क्रमशः ऐसा है नहीं। ये लोक अपने ही जगत की गहरी परतें हैं। उनमें क्रमशः प्रवेश करते चलने का चक्र व्यूह को बेधन करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। इस प्रगति क्रम में सशक्तता बढ़ती चलती है और अन्तिम चरण पर पहुँचा हुआ मनुष्य सर्व समर्थ बन जाता है। इसी को आत्मा की परमात्मा में परिणति कह सकते हैं। यह सात लोक ही सात ऋषि हैं। इन्हीं में पहुँचे हुए देवात्मा एक से एक बढ़-चढ़कर उच्चस्तरीय सिद्धियां प्राप्त करते हैं।

सामान्यता तीन आयाम तक ही हमारा बोध क्षेत्र है। लम्बाई चौड़ाई, ऊँचाई तथा गहराई के अंतर्गत समस्त पदार्थ सत्ता का अस्तित्व है। इन्द्रियों की बनावट भी कुछ ऐसी है कि वह मात्र तीन आयामों का अनुभव कर पाती है- लम्बाई, चौड़ाई ऊँचाई (या गहराई)। जो भी पदार्थ स्थूल नेत्रों को दृष्टिगोचर होते हैं, उनके यही तनी परिणाम हैं। चतुर्थ आयाम की ऊहापोह वैज्ञानिक क्षेत्रों में चल रही है। काल, दिक् के रूप में पाश्चात्य दार्शनिकों एवं पूर्वार्त्त दर्शन के मनीषियों द्वारा वर्णित यह आयाम अनेक रहस्य अपने अन्दर छिपाये आइन्स्टीन से लेकर नार्लीकर व अब्दुस्सलाम तक कई वैज्ञानिकों को शोध हेतु आकर्षित करता रहा है। दार्शनिक मान्यताओं करता रहा है। दार्शनिक मान्यताओं के अनुसार, चतुर्थ आयाम में पहुँचने पर हमारी पूर्व स्थापित धारणाओं एवं जानकारियों में आमूलचूल परिवर्तन होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। सम्भव है कि जो दूरी हमें दो-चार हजार मील की मालूम पड़ती है, रह जाय। चौथे आयाम में पहुँचकर प्राणी के कुछ पल में अमेरिका व ब्रिटेन पहुँचकर भारत वापस लौट आने की पूरी -पूरी सम्भावना है। ऐसे अनेकों प्रामाणिक प्रसंग समय-समय पर सामने आते रहे हैं। उनका अदृश्य हो जाना, कुछ पलों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाना सम्भवतः चतुर्थ आयाम में पहुँचकर ही सम्भव हो सका होगा। जिस चतुर्थ आयाम की कल्पना अभी वैज्ञानिक जगत में की जा रही है। उसकी जानकारी हमारे ऋषियों को पूर्वकाल से है।

चतुर्थ आयाम का बोध होते ही हमारे सामने ज्ञान का एक अनन्त क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार भिन्न रूप में दिखायी पड़ने लगता है। उन मान्यताओं को जिन्हें हम सत्य यथार्थ मानते हैं, सम्भव है भ्रान्ति मात्र लगने लगें। आइन्स्टाइन की कल्पना के अनुसार काल को भूत, वर्तमान, भविष्य काल से नहीं बाँधा जा सकता। हाइजन की कल्पना के अनुसार काल को भूत, वर्तमान, भविष्य की सीमाओं से नहीं बाँधा जा सकता। हाइजन वर्ग जैसे वैज्ञानिक ने सिद्ध किया कि ‘काल’ भूत से वर्तमान एवं भविष्य से भूतकाल की ओर भी चलता है।

जब अतीत की ओर लौटना सम्भव हो जायेगा तो हमारी मान्यताएँ अस्त-व्यस्त हो जायेगी । तब रामकृष्ण, बुद्ध, विवेकानन्द, गान्धी को उसी प्रकार देखा जा सकेगा जैसे सामने जीवित खड़े हों। जीवन-मरण की मान्यताएँ तब उलट जायेंगी। पाँचवाँ, छठा एवं सातवाँ आयाम पदार्थ सत्ता से परे है। ये आयाम विशुद्धतः चेतना से सम्बन्धित हैं भौतिकी की पकड़ यहाँ तक नहीं है। भौतिक यन्त्रों एवं इन्द्रियों की सीमा से बाहर है।

पांचवां आयाम विचार जगत से संबंधित है। विचारों की महत्ता एवं उनकी चमत्कारी शक्ति से हर कोई परिचित हैं मनुष्य जैसा भी है विचारों की प्रतिक्रिया मात्र हैं शारीरिक हलचलें उनकी प्रेरणा से ही होती हैं विचारों में माध्यम से वस्तुओं के स्वरूप के माध्यम से वस्तुओं के स्वरूप की कल्पना की जाती हैं विचार जगत में उठने वाली तरंगें वातावरण एवं मनुष्यों को प्रभावित करती हैं तथा अपने अनुरूप लोगों को चलने के लिए बाध्य करती है। महामानव, ऋषि महर्षि अवतार आने सशक्त विचारों का संप्रेषण सूक्ष्म अन्तरिक्ष में करते रहते हैं। इस आधार पर वे असंचय मनुष्यों की मनःस्थिति एवं परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं जन प्रवाह उन विचारों के अनुकूल चलने के लिए विवश होता है प्रथम आयाम की रहस्यमय शक्ति को जानने एवं उसको करतलगत कर सदुपयोग करने से ही बड़ी-बड़ी आध्यात्मिक क्रान्तियां सम्भव हो सकी है। कन्दरा में बैठें ऋषि एक स्थान पर बैठकर अपने विचारों को पंचम आयाम में प्रस्फुटित करते रहते हैं तथा अभीष्ट परिवर्तन कर सकने में समर्थ होते हैं छठा आयाम भावना जगत हैं कहते हैं कि इस लोक में मात्र देवता निवास करते हैं इस अलंकारिक वर्णन में एक तथ्य छिपा है कि भावों में ही देवता निवास करते हैं। अर्थात् भाव सम्पन्न व्यक्ति देव तुल्य हैं भावना की शक्ति असीम हैं इसके आधार पर पत्थर में भगवान पैदा हो जाते हैं व्यक्तित्व का समूचा कलेवर अंतरंग की आस्था से ही विनिर्मित होता है। विचारणा तथा क्रिया-कलाप तो आंतरिक मान्यताओं से ही अभिप्रेरित होते हैं। इसे ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव चेतना को जोड़ने और उससे लाभ उठाने का सशक्त माध्यम कहा जा सकता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन मिलन कितना आनन्ददायक होता है। इसका अनुमान भौतिक मनःस्थिति द्वारा लगा सकना सम्भव नहीं हैं तत्वज्ञानी उसी आनन्द की मस्ती में डूबी रहते हैं तथा जन-मानस को उसे प्राप्त करने की प्रेरणा देते रहते हैं। तुलसीदास जड़-चेतन सबमें। परमात्म सत्ता की अनुभव करते हुए लिखते हैं” सियाराम मय सब जग जाती”। “ईशावास्यमिर्द सर्वे यत्किंचित् जगत्याम जगत।” ईशासास्योपनिषद तथा रामायण के इस उद्धरण में अद्वैत स्थिति का वर्णन किया गया है। सप्तम आयाम की यही स्थित हैं इसमें पहुंचने पर जड़-चेतन में विभेद नहीं दीखता। सर्वत्र एक ही में विभेद नहीं दीखता। सर्वत्र एक ही सत्ता-ब्रह्मा की एकरूपता सातवें आयाम में दिखाई पड़ने लगती है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं इसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। सातवें आयाम का ही वर्णन सप्तम लोक के रूप में किया गया है। सप्त लोक, सप्त आयाम, चेतना की सात परतें एक के भीतर एक छिपी हुई हैं। इनमें विभेद स्वरूप मात्र है। जिस प्रकार पोले स्थान में हवा भरी रहती हैं हवा में ऑक्सीजन तथा ऑक्सीजन में प्राण-सभी एक के भीतर एक परतें हैं उसी प्रकार चेतना की सात परतें एक के भीतर एक विद्यमान है। एक तीन आयामों से युक्त पदार्थ जगत की विशेषताओं से सभी परिचित हैं स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थ में चेतना की शक्ति अनेक गुना अधिक है आइन्स्टीन के चतुर्थ आयाम की कल्पना मात्र से वैज्ञानिकों के हाथ में एक बहुत बड़ी शक्ति मिलने की आशा बन चली है लेजर किरणों से ‘होलोग्राफी ‘ के आधार पर त्रिमिजीय सिनेमाओं का निर्माण कई देशों में हो चुका हैं जहाँ पर्दे पर मनुष्य मोटर , गाड़ी शेर हाथी यथावत् चलते दिखाई देते हैं अनभ्यस्त व्यक्तियों को प्रायः यथावत् होने का भ्रम हो जाता है त्रिआयामीय चित्रों की यह विशेषता है इसके पश्चात् चतुर्थ , पंचम, पृष्ठ सप्तम आयाम कितना विलक्षण एवं शक्ति सम्पन्न हों सकता है इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वस्तुतः सात लोगों का अस्तित्व अपने ईद-गिर्द एवं भीतर-बाहर भरा पड़ा है। उसमें से इंद्रियों एवं यन्त्र अनुभव किया जा सकता है चौथे लोक में यदि प्रवेश सम्भव हो सकें तो इन्हीं इन्द्रियों और इन्हीं यन्त्र अनुभव किया जा सकता है चौथे लोक में यदि प्रवेश सम्भव हो सके तो इन्हीं इन्द्रियों और इन्हीं यन्त्र उपकरणों से उसे कुछ देखा-समझा जा सकेगा । जिसे आज की तुलना में अद्भुत ही कहा जायगा। तब गीता के अनुसार “आश्चर्यवत् पश्यति विश्चदेन ....................” की स्थिति सामने होगी। भूः स्वः के बाद यह चौथा आयाम चेतना जगत और भौतिक जगत का घुला-मिला स्वरूप हैं इसे ‘तप’ लोक कहा गया हैं तपस्वी इसमें अभी प्रवेश पाते और अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न सिद्ध पुरुष कहलाते हैं इसे ऊपर के जनः+ महः और सत्य लोक विशुद्धतः चेतनात्मक हैं उनमें प्रवेश पाने वाला देवलोक में विचरण करता है दैवी शक्ति से सम्पन्न होता है और उस तरह की मनःस्थिति एवं परिस्थिति में होता है जिसे पूर्ण पुरुष जीवनमुक्त, परम हंस जनों द्वारा तो कहा सुना ही जा सकता है।


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