कुण्डलिनी जागरण : एक विज्ञानसम्मत अध्यात्म उपचार

June 1996

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कुण्डलिनी का सचेतन विद्युत शक्ति कह सकते हैं। बिजली की दो धाराएँ एक वह, जो जड़ पदार्थों धाराएँ हैं। एक वह, जो जड़ पदार्थों में काम करती है। और दूसरी वह जो जीवित शरीर धारियों में काम करती है। इसलिए एक को भौतिक और दूसरी को आत्मिक कहा जा सकता है।

भौतिक बिजली वह है जो घरों में बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर, रेफ्रिजरेटर, आदि, चलाती है और कल-कारखानों में मोटरों को गतिशील बनाकर उनके द्वारा भारी-भरकम काम कराती है। इसका प्रयोग सीखने के लिए तद्विषयक विद्यालयों में बढ़ना और व्यावहारिक प्रयोग सीखना पड़ता है। इस स्तर के प्रशिक्षितों को इंजीनियर कहते हैं।

चेतन विद्युत वह है जो शरीर में प्राण रूप में काम करती है। इसका बटन बन्द होते ही सारा कारखाना फेल हो जाता है। वह यथास्थान फेल हो जाता है। वह यथास्थान खड़ा तक नहीं रह सकता, सड़ता है। इसलिए उसे जल्दी ही नष्ट करना पड़ता है। जलाने, गाड़ने बहाने की जहाँ जैसी प्रथा है, अन्त्येष्टि की व्यवस्था करने में विलंब नहीं किया जाता।

इस जीवन्त प्राण विद्युत के सहारे शरीर की सभी मशीनें काम करती हैं। जहाँ कहीं उसकी पहुँच अवरुद्ध हो जाती है, वहाँ अशक्ति छा जाती है। पक्षाघात, मूढ़ता, नपुँसकता आदि ऐसे ही रोग है, जिनमें जैविक विद्युत की सप्लाई घट जाती है। कई बार तो कोढ़, गैंगरिन, नासूर जैसे रोगों में किन्हीं अंगों को काटना पड़ता है या वे स्वयं कट जाते हैं, आमाशय, आंतें, जिगर, गुर्दे आदि में जहाँ कहीं अशक्ति आती है, वही अवयव अपना काम धीमा कर देते हैं या छोड़ देते हैं। फलस्वरूप सम्बन्धित दूसरे अंग भी प्रभावित होते हैं। चित्र-विचित्र नाम-रूपों वाली बीमारियां आ दबोचती हैं। कष्ट सहना और उपचार दबोचती हैं। कष्ट सहना और उपचार करना पड़ता है। हृदय जैसे कुछ अंग तो ऐसे हैं, जिनकी शक्ति संचार में व्यवधान खड़ा होने पर कुछ ही क्षणों में मृत्यु हो जाती है।

मस्तिष्क का अपना निराला क्षेत्र है। उसमें अनेक विशेषताओं के लिए अपने-अपने केन्द्र और क्षेत्र निर्धारित है। समस्त शरीर का विद्युतीय संचार संचालन मस्तिष्क में ही होता है। इसलिए मस्तिष्क मर जाने पर ही किसी की पूर्ण मृत्यु मानी जाती है। हृदय की धड़कन रुक जाने पर तो उसे दुबारा भी चलाया जा सकता है।

मस्तिष्कीय क्षेत्र की बिजली की जिस केन्द्र में कम सप्लाई होती है, उसका प्रभाव मनुष्य की क्रिया-शक्ति और चिन्तन-शक्ति पर पड़ता है। मन्द मति, अर्थ विक्षिप्त, सनकी, बेसिर पैर की कल्पनाएँ करने वाले, निराश, भयभीत आदि स्तर के लोग ऐसे ही होते हैं, जिनके मस्तिष्क के किसी क्षेत्र विशेष में विद्युत प्रवाह कम पड़ता है। आलसी और प्रवाह कम क्षेत्र विशेष में विद्युत प्रवाह कम पड़ता है। आलसी और प्रमादी कम पड़ता है। आलसी और प्रमादी भी ऐसे ही होते हैं। उनका मन, श्रम करने को तथा आगा-पीछा सोचने को ही नहीं होता। यथास्थिति को सहन करते हुए वे किसी प्रकार दिन काटते रहते हैं।

इसके विपरीत बुद्धिमान, उत्साही, साहसी, पराक्रमी, तत्पर मस्तिष्क में प्राण विद्युत की पर्याप्त मात्रा होती है, उनकी निर्णायक बुद्धि सतेज होती है। लाभ-हानि के दोनों पक्षों पर विचार करने और किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुँचने में उन्हें देर नहीं लगती। अवसर का लाभ ऐसे ही लोग उठा लेते हैं।

यहाँ मृगी, उन्माद, सिर दर्द या मूढ़मति लोगों की चर्चा नहीं हो रही है। क्योंकि उनका सम्बन्ध शरीर के अन्यान्य अवयवों से भी होता है। उनका उपचार अस्पतालों में ही किया जाता है। इनमें से कई तो वंशानुक्रम से भी सम्बन्धित होते हैं। ऐसी दशा में उनका उपचार शरीर विज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। योग विज्ञान तो विशुद्धतः कुण्डलिनी जागरण उसी क्षेत्र की एक शाखा है।

प्रत्येक शिल्पी को अपने-अपने विषय से सम्बन्धित उपकरण, औजार एकत्रित करने पड़ते हैं। चिकित्सा निदान के काम आने वाले, शल्य क्रिया से सम्बन्धित उपकरण एकत्रित करते हैं। बढ़ई अपने प्रयोजन के कितने ही औजारों से थैला भरे रहते हैं। स्वर्णकर के पास आभूषण ढालने, खरीदने, मोड़ने आदि के काम आने वाली वस्तुएँ होती है। कुम्हार के पास खिलौने बनाने के साँचे होते हैं। सैनिकों के पास ढाल, तलवार, गोला, बारूद, कवच, वाहन आदि का प्रबन्ध रहता है। कुण्डलिनी जागरण जैसे योग वैज्ञानिकों को मानसिक क्षेत्र के साधनों से लैस रहना पड़ता है।

अध्यात्म विज्ञानियों के पास संकल्प, साहस, प्राण संयम, धैर्य के अतिरिक्त तन्मयता और तत्परता की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से एक भी कम हो तो गाड़ी लड़खड़ा जाती है और लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाती।

महत्व क्रियाओं का नहीं, आन्तरिक दक्षता का हैं नट, बाजीगर अपने कौशल में प्रवीण होते हैं। यदि उन करतबों का रहस्य बता दिया जाय और विधि-विधान की व्याख्या-व्यवस्था समझा दी जाय, तो भी यह सम्भव नहीं कि कोई अजनबी उस कौशल को सबके अजनबी उस कौशल को सबके सम्मुख प्रस्तुत कर सके। आपरेशन के समय वार्ड बॉय और सफाई कर्मचारी भी रहते हैं। वे उस कृत्य को आये दिन आँखों-देखते रहते हैं तो भी उनसे यह अपेक्षा नहीं की भूमिका निभा सकेंगे। दंगल में कुश्ती का दृश्य देखने अगणित लोग पहुँचते हैं। दाव-पेंचों को भी आँखों से देखते रहते हैं। हार-जीत का कारण भी समझते हैं। फिर भी उन्हें अखाड़े में नहीं उतारा जा सकता। हथियार बनाने वाले तक उनका सही प्रयोग नहीं कर सकते। इसी प्रकार पुस्तकीय ज्ञान संजय कर लेने या उस विषय के विशेषज्ञों के व्याख्यान सुन लेने पर भी कोई योगी नहीं बन सकता। इसके लिए उसके लिए लम्बे समय तक श्रद्धा और निष्ठापूर्वक अनवरत अभ्यास न किया गया हो तो यह आशा नहीं की जा सकती कि उन विषयों में प्रवीणता या सफलता हस्तगत ही जायेगी।

फिर प्रत्येक साधक का अपना लक्ष्य होता है। एक से दूसरे के प्रयोजन में अन्तर रहता है। तद्नुरूप साधना। विधानों में अन्तर करना पड़ता है। हर रोगी को एक बीमारी में एक ही दवा नहीं दी जा सकती। यद्यपि कैमिस्टों से पूछ कर यह जरूर जाना जा सकता है कि किस नाम की दवा किस रोग में प्रयुक्त होती हैं किन्तु उस आधार पर बिना चिकित्सक से परामर्श किये सेवन करने लगना खतरनाक है। चिकित्सक देखता है कि किस रोग के साथ क्या लक्षण मिले हुए हैं? रोगी की बीमारी कितनी हल्की या भारी है? उसकी सहन शक्ति कैसी है? बालक की, गर्भिणी की दवाओं की मात्रा में अन्तर करना होता है फिर उसकी प्रतिक्रिया में अनुकूलता उत्पन्न हो रही है या प्रतिकूलता, यह भी ध्यान रखना पड़ता है। इन्हीं सब उतार-चढ़ावों पर विचार करने के लिए चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है। उसके यहाँ जाना या बुलाना पड़ता है। यदि ऐसी आवश्यकता न समझी जाती तो किताब में पढ़कर या केमिस्ट से पूछकर कोई भी अपना इलाज कर लिया करता।

ऐसी ही आवश्यकता योग साधनाओं में भी पड़ती है। अपनी स्थिति का भली प्रकार पर्यवेक्षण जिसने किया हो और उपचार कृत्य उस मार्गदर्शक का परामर्श योग साधनाओं में उपयुक्त हो सकता है, विशेषतया कुण्डलिनी जागरण में।

कुछ कार्य सरल होते हैं। कुछ कठिन। पानी को किसी पर फेंक देना या स्वयं नहाना, पीना उतना जोखिम का काम नहीं है। जितना कि आग से खेलना। उसका उपयोग करते समय अनेक बातें ध्यान में रखती समय अनेक बातें ध्यान में रखती पड़ती है। क्या पकाने के लिए कितनी धीमी या कितनी तेज तेज आँच चाहिए, उसे कितनी देर, जलने दिया, जाय, पकड़ते, उठाते, हटाते समय किन बातोँ का ध्यान रखा जाय? इन विशेषताओं और भिन्नताओं की जिसे जानकारी है, वह उसका उपयोग ठीक कर लेगा अन्यथा अपने कपड़े जला लोग या चासनी को कड़ी जला लेगा या चासनी को कड़ी करके पत्थर जैसी जमा देगा। यही बात बिजली के सम्बन्ध में भी हैं। उसके प्रयोग से अनेक लाभ है। अनेक सुविधाएं मिलती हैं, किन्तु प्रयोक्ता को अनेक सावधानियां भी बरतनी पड़ती है अन्यथा आग लगने से लेकर अपनी जान जाने और संपर्क में आने वालों तक के लिए खतरा है।

कुण्डलिनी योग बिजली का प्रयोग है। वह गेंद खेलने की तरह सरल नहीं है कि उल्टी-सीधी फेंक देन पर भी कोई भी खेल बन जाए। गुलाम, बेगम, बादशाह के ताश, काटने में मनोरंजन भर है, किन्तु किसी तख्ते पर झूलना पड़ता है। हलवाई को सतर्कता का हर घड़ी प्रयोग करना पड़ता है अन्यथा जो बनाने चला था वह पकवान-मिष्ठान तो बनेगा नहीं, कुछ के बदले कुछ बन जायगा, या अपना हाथ-पैर गरम घी से जलेगा। कुछ काम ऐसे हो होते हैं जिनमें समग्र सतर्कता का प्रयोग करना पड़ता है किसी व्यक्ति के हाथ में कागज, ब्रश और रंगों की प्लेट थमा देने भर से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह बढ़िया किस्म के चित्र बना देगा। न किसी को पत्थर, छैनी, हथौड़ा थमा कर यह आशा की जा सकती है कि बढ़िया स्तर की प्रतिमा बनकर तैयार हो ही जायगी। चित्रकार या मूर्तिकार को इस कला में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए जो अभ्यास करना और अनुभव संचय करना पड़ता है, उसी प्रवीणता के आधार पर श्रेय की उपलब्धि होती है। संगीतकार, नर्तक भी बहुत समय तक साधना करके अपने कौशल में पारंगत होती हैं।

कुण्डलिनी जागरण का विधि विधान उतना महत्वपूर्ण नहीं है, विधान उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि साधक का परिपक्व मनोबल। किसी भी योगाभ्यास की पुस्तकें बाजार में बिकती हैं, उन्हें मुट्ठी भर पैसों में खरीदा जा सकता है। जो प्रयोग होते हैं कि उन्हें एक दो बार दुबारा लेने पर ही तद्नुसार कृत्य किया जा सके। इतने भर से कोई उन कृत्यों में सफल नहीं हो सकता । विधान तो हर कार्य के सरल होते हैं, पर उन्हें कार्यान्वित कर दिखाने के लिए अपनी मनः स्थिति एवं परिस्थिति भी तद्नुरूप विनिर्मित करनी पड़ती हैं यह पूर्व तैयारी ही सफलता का या अपयश का पक्ष पूरा करती है। साधना वस्तुतः साधना है। उसके प्रयोग में अपना समूचा व्यक्तित्व साधना और अनुभवी मार्गदर्शक का सहारा लेना पड़ता है।


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