उज्ज्वल भविष्य के कदमों की आहट में तेजी के साथ ही महाकाल ने युग निर्माण मिशन के कन्धों पर एक और जिम्मेदारी का बोझ सौंपा है। नवयुग, का नेतृत्व कर सकने लायक वरिष्ठों एवं विशिष्टों की ढूँढ़-खोज, इन्हें तलाशने और तराशने का काम। यूँ कहने-सुनने का नेताओं की कमी नहीं, वेश-भूषा और लच्छेदार बातों से इन्हें कहीं भी पहचाना जा सकता है। पर अगले दिनों नेतृत्व के लिए यह पहचान काफी न होगी। भावी युग न केवल परिवर्तित, परिस्थितियों, बल्कि बदली परिवर्तित, परिस्थितियों, बल्कि बदली मान्यताओं, नग प्रतिमानों, नवीन मानदंडों का युग होगा। जिनके का कोई स्थान न होगा। जिनके व्यक्तित्व लोभ-मोह के चक्रवात में तिनकों की तरह उड़ा करते हैं, वे भला देश और समाज के नीड़ को क्या सुरक्षित रख पाएंगे।
मानवीय इतिहास की पोथी को उलट-पलट कर देखें तो यह तथ्य कहीं अधिक मुखर हो, अपना स्पष्टीकरण देता है। कबीलेख् यूथों के सामुदायिक निवास से राजतन्त्र, लोकतन्त्र, साम्यवाद, समाजवाद के उत्थान और अवसान की गहराइयों में यही स्वर गूंजते हैं, यथार्थ में कोई भी प्रणाली या विधि-व्यवस्था उतनी खराब नहीं होती, जितनी कि हम सब समझ बैठते हैं। यदि राजतन्त्र का नेतृत्व करने वाले विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त वाले विक्रमादित्य, और चन्द्रगुप्त सदृश व्यक्ति हों, जिन्होंने समूचे जीवन का उद्देश्य मात्र जन-कल्याण मान रखा हो, तो शायद राजतन्त्र अभी भी अपनी सामयिकता सिद्ध कर सके। इसी प्रकार लोकतन्त्र की बागडोर जनहित में आधी धोती पहनने वाले गाँधी के हाथ में हो तो राम-राज्य अभी भी अपनी अभिव्यक्ति लिए बिना न रुके। यही बात अन्य प्रणालियों के बारे में भी सच है। हो सकता है, यह सवाल किसी के मन को परेशान करने लगे कि यदि व्यक्ति की इतनी महत्ता है, कर्णधार इतने अधिक उपादेय हैं, कर्णधार इतने अधिक उपादेय हैं, तब फिर यह प्रणालियों में उलट-फेर क्यों? क्या इन प्रणालियों को जन्म देने वालों की अबल गड़बड़ थी।
इन सवालों के जवाब में यही कहा जा सकता है। कि व्यवस्था की अपनी उपयोगिता है। इनकी संरचना में फेर-बदल करने वाले असंदिग्ध रूप से बुद्धिमान थे। इतने पर भी नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों का महत्व कम नहीं हो जाता। बदलते समय के अनुरूप व्यवस्था की संरचना में फेर बदल सिर्फ इसलिए करना पड़ता है ताकि इसकी सहायता से मानव महासागर में खोए, उपेक्षित पड़े सुयोग्य प्रतिभाशाली तत्कालीन समाज चैन की साँस ले सके। कोई भी प्रणाली जब अपना यह दायित्व निभा सकने में अक्षम होने लगती है, नीतिज्ञ उसे बदल डालने के लिए नई स्थानापत्र विद्या की ढूंढ़-खोज में लग जाते हैं।
प्रकारान्तर से यह ढूँढ़-खोज नेतृत्व संभाल सकने योग्य व्यक्तियों की होती है। उसका स्वरूप और प्रक्रिया भले ही कुछ भी और कैसी भी हो। स्वाभाविक है इसे जीतने की लालसा बहुतों में जगे। हर कोई यह जानना चाहे कि वह कौन-सी योग्यता है जो मनुष्य को इस योग्य बनाती है। विशेषकर जिसे अपनाकर हममें से कोई भावी समाज की नौका का खेवनहार बन सकने योग्य बन सके।
सही भी है, संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्यों के लिए एक विशेष योग्यता और शक्ति की आवश्यकता योग्यता और शक्ति की आवश्यकता होती है। अनेक व्यक्ति महत्वपूर्ण करने की आकाँक्षा तो करते हैं, पर उनको करने के लिए जिस क्षमता एवं शक्ति की जरूरत होती है, उसे सम्पादित नहीं करते फलस्वरूप उन्हें सफलता से वंचित ही रहना पड़ता है। जिन्होंने भी कोई बड़ा पुरुषार्थ किया है, बड़ी विजय प्राप्त की है। उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों से ही सब कुछ प्राप्त नहीं किया। बल्कि उनकी पूर्व तैयारी ही उस सफलता का कारण रही है।
इस तैयारी की उपेक्षा अब मानना करने वाले ही नर पशु कहलाते हैं। उन्हें तो सिर्फ इन्द्रिय विलास, शरीर सज्जा और अर्हता का परिपोषण करने वाली सुविधा-सम्पदा चाहिए। दिखने में तो उनकी संरचना भी मनुष्य जैसी लगती है पर वस्तुतः होते हैं वो जड़ कलेवर। चलते फिरते पेड़-पौधे इन्हीं को कहा जाता है। इन्हें सड़न-सीलन और घुटन चाहिए। जान-बूझकर या अनजाने वे इसी को चाहते और इसी को खरीदते हैं। विलास-संजय और अहंकर की खाई को पाटने में जीवन भर अथक श्रम करते हैं, किन्तु हाथ में छाले, कमर में दर्द और मन में असंतोष के अतिरिक्त इन्हें मिले भी क्या? अन्धी भेड़ों का अनुकरण करते हुए, वे एक पीछे एक चलते हुए, गहरे गर्त मेँ गिरते हुए जिस-तिस पर दोषारोपण करते हुए, खोजते-कलपते दिन बिताते हैं।
पीड़ा और पतन के गर्त में गिरी हुई या गिरने के लिए आतुर नर पामरों की यह मण्डली निश्चय ही दया की पात्र है। इन्हें सान्त्वना मिलती चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो राहत के साधन भी जुटने चाहिए। मानवीय करुणा का तकाजा है कि दुखियारा भले ही अपने पतनोन्मुख दृष्टिकोण और गर्हित क्रिया-कलाप को अपनों से विपत्ति के जाल में जा घुसा हों। फिर भी भ्रमित तो भ्रमित है। उसे दृष्ट या भ्रष्ट कहना व्यर्थ है। ऐसों के लिए ‘भटका हुआ देवता’, क्योंकि इन्होंने अपनी भटकन के चलते अपना देवत्व गवाँ दिया। इसके अलावा इस सम्बोधन से चिन्तन में शालीनता झलकती है और पीड़ित के प्रति ममता। ये सेवा और सहायता के पात्र है, इन्हें वह मिलनी भी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन इनसे नेतृत्व की आशा कना, मार्गदर्शन की जिम्मेदारी सौंपने की बात सोचना व्यर्थ है।
को अपनों से विपत्ति के जाल में जा घुसा हों। फिर भी भ्रमित तो भ्रमित है। उसे दृष्ट या भ्रष्ट कहना व्यर्थ है। ऐसों के लिए ‘भटका हुआ देवता’, क्योंकि इन्होंने अपनी भटकन के चलते अपना देवत्व गवाँ दिया। इसके अलावा इस सम्बोधन से चिन्तन में शालीनता झलकती है और पीड़ित के प्रति ममता। ये सेवा और सहायता के पात्र है, इन्हें वह मिलनी भी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन इनसे नेतृत्व की आशा कना, मार्गदर्शन की जिम्मेदारी सौंपने की बात सोचना व्यर्थ है।
इसके अलावा मनुष्यों का दूसरा वर्ग वरिष्ठों एवं विशिष्टों का है। वरिष्ठ वे जो अपनी समस्या का आप समाधान कर सकें, साथ ही बचे हुए पराक्रम का उपयोग दूसरों को उबारने में कर सकें। महत्ता इन्हीं की उबारने में कर सकें। महत्ता इन्हीं की है। नदी की प्रचण्ड धारा को चुनौती देने वाले ये माझी न हों तो भयानक आपत्तिकाल सामने रहने पर भी लोग नदी किनारे खड़े असहाय, अपंगों की तरह रोते-कलपते रहेंगे। पुरुषार्थ उस माझी का है, जिसकी माँसपेशियाँ चप्पू को दोनों हाथों से पकड़ती है। और नाव पर लदे हुओं को पार उतारने का विश्वास भरा अभयदान देती है। पर उतरने के लिए व्याकुल भीड़ की तुलना में एक माझी वरिष्ठ है, फिर वह आयु और सुविधा सम्पदाओं की दृष्टि से औरों से कितना भी गया-गुजरा क्यों न हो?
रोगियों की कहीं कमी नहीं । आवश्यकता कुशल चिकित्सक की है। ज्योति गँवाकर दिन में रात्रि जैसा अंधेरा अनुभव करने वालों की कमी नहीं। अनुभव करने वाले की कमी नहीं। अनुभव करने वालों की कमी नहीं। सराहनीय वे हैं, जिन्हें निष्णात चिकित्सक कहा जाता है। वे अस्पताल में प्रातःकाल घुसते हैं। और सन्ध्याकाल तक आप्रेशन की मेज पर योगी की तरह समाधिस्थ होकर शल्यक्रम चलाते रहते हैं। शल्यगृह से वापिस निकलने पर खोई ज्योति फिर पा लेने वाले सराहना करें या उपेक्षा इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, तथ्य वरिष्ठता के सौभाग्य का है, जिसे वह मिला, वह सन्तोष के साथ जिएगा। और शान्तिपूर्वक मरेगा। भगवान किसी को धन कुबेर भले ही न बनायें, पर उनकी करुणा बरसती ही न बनायें, पर उनकी करुणा बरसाती ही हो तो उस चिकित्सक की पदवी मिल जिसने असंख्यों का अंधतमिस्रा से उबारा और आलोक की दुनिया में ला बिठाया।
इस भाव को व्यापक, अर्थ दे तो लोकमान्य, तिलक, गान्धी, गोखले, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर, श्री अरविन्द, रमण महर्षि जैसे महामानव उपरोक्त श्रेणी में आते हैं। इनकी योग्यता और कार्यक्षेत्र भले अगल-अगल रहे हों पर कार्य का उद्देश्य एक ही रहा है, जन-साधारण की दशा सुधारना, दिशा देना, उनके भीतर ऊर्जा प्रवाहित करना। ऐसों के क्रिया-कलाप ही मृतकों में प्राण का संचार करते, अपंगों, अपाहिजों, को हाथ पकड़कर को तूफान में फँसे तिनके की तरह आसमान की बुलन्दियों पर जा बिठाते हैं।
जब-जब ऐसे व्यक्तियों का समाज में बाहुल्य होता हो जाती हैं। पूर्वकाल में लाखों वर्षों तक सतयुग को सुख-शान्ति भरी परिस्थितियाँ इस संसार में रही है। कि उस समय के लोक-नायक, मार्गदर्शक आत्मशक्ति से संपन्न रहे और केवल वाणी से नहीं बल्कि अपनी अपनी आन्तरिक महानता कि किरणें फेंककर लोक-मानस को प्रभावित करते रहे। मस्तिष्क की वाणी मस्तिष्क तक पहुँचती है। और आत्मा की आत्मा तक। कोई सुशिक्षित व्यक्ति अपनी ज्ञान शक्ति का लाभ सुनने वालों की जानकारी बढ़ाने के लिए दे सकता है। पर अन्तःकरण में जमी हुई आस्था में हेर-फेर करने का कार्य ज्ञान से नहीं तपशक्ति से संपन्न होना सम्भव हो सकता है। प्राचीनकाल के लोकनायक ऋषि मुनि इसी तथ्य को भली-भाँति जानते थे। इसीलिए वे दूसरों को उपदेश देने उनकी बाह्य सेवा करने में जितना समय खर्च करते थे। उतना हो प्रयत्न स्वयं के जीवन को सँवारने तप के साँचे में डालने के निमित्त करते थे। जिसकी प्रेरणा से किसी के मन पर जमे बुराइयों के आकर्षक कुसंस्कारों को हटाकर अच्छाइयों के कटनायक मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जा सके।
प्राचीन इतिहास की ही भाँति पिछले दो हजार वर्षों में आधार पर जनमानस का सुधा ओर परिष्कार सम्भव होता रहता है। भगवान बुद्ध के मन में अपने तथा संसार के दुःखों के निवारण की लालसा जगी। इसके लिए उन्होंने पच्चीस वर्ष की आयु से मोह बन्धनों को तोड़कर बीस वर्ष तक लगातार आत्म-निर्माण की साधना की। पैंतालीस वर्ष की आयु में उनका व्यक्तित्व लोकनायक के रूप में उभरा। भगवान महावीर ने अपनी आयु का तीन-चौथाई भाग तप में और एक-चौथाई भाग जन-नेतृत्व में लगाया। इन दोनों महापुरुषों ने उपदेशों की बौछार उतनी नहीं की, जितने आज के सामान्य उपदेशक कर लेते हैं। तब भी उनका प्रभाव पड़ा और आज भी संसार की एक चौथाई से अधिक जनता उनके मार्गदर्शन पर आस्था रखती है।
समस्त विवादों से परे परिभाषा है “स्वयं के जीवन की समस्त खोटों को निकाल फेंकना। साथ ही अध्यात्म के उन प्रयोगों को रोजमर्रा के जीवनक्रम की अंतःशक्तियों को जगाते वर्षों की तपश्चर्या के बलबूते अपने समय के मार्गदर्शन का दायित्व संभाला। गुरु गोविन्द सिंह ने लोकपत नामक स्थान में जो तप प्राण बटोरा, उसी को बिखेरकर स्वयं को युग निर्माता के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। छत्रपति शिवाजी का प्रतिष्ठित कर सके। छत्रपति शिवाजी का व्यक्तित्व गढ़ने वाले समर्थ रामदास ने तप कौशल गढ़ने वाले समर्थ रामदास ने तप कौशल से स्वयं को साँचा बना डाला था।
संभवतः 1724 के कुम्भ में स्वामी दयानन्द को हरिद्वार प्रवास के दौरान कोरी वाणी फीकी मालूम पड़ी। इस न्यूनता की पूर्णता के लिए उन्होंने कठोर तप को ही साधन बनाया।
श्री रामकृष्ण परमहंस ने पचास वर्ष की आयु में विशुद्ध तीस वर्ष तप साधना में लगाए। संसार के अन्य भूमिका की ओर बढ़ाया, निश्चित रूप से तपस्वी थे। पैगम्बर मुहम्मद ने पच्चीसवें वर्ष में साधना की ओर कदम बढ़ाया और चालीस साल तक उसी में लगे रहे। महात्मा ईसा के जीवन के छत्तीस वर्ष तपश्चर्या में लगे। यहूदी जरथुस्त्र की दीर्घकालीन तप साधनाएँ प्रसिद्ध हैं। स्वयं परमपूज्य गुरुदेव के जीवन को तप का पर्याय कहना अतिशयोक्ति न होगी।
इसी सोच को आधार मानकर शान्तिकुँज के संचालन तन्त्र ने भावी युग के लोकनायकों के चयन एवं निर्माण के लिए व्यापक एवं प्रभावी योजना तैयार की है। पिछली अखण्ड ज्योति एवं प्रज्ञा अभियान पाक्षिक के पृष्ठों में परिजनों ने इस सम्बन्ध में पढ़ा भी होगा। शान्तिकुँज के दिव्य वातावरण में चलायी जाने वाली यह शिक्षण योजना अपनी बौद्धिक एवं भावनात्मक विशेषताओं के सँजोये रहने पर भी मूलतः तप प्रधान होगी। स्वयं के चरित्र-चिन्तन और व्यवहार को प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा सोना साबित करने वाले ये लोग ही भविष्य में समाज एवं शासन की बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां उठाने में समर्थ होंगे।
अपने परिजनों को इसे समय की चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए और क्षेत्रों में कार्यरत ऐसे करके यहाँ की शिक्षण योजना में भेजना चाहिए, बल्कि उनके क्रिया कलापों, गतिविधियों का संक्षिप्त हवाला देते हुए उनका नाम, पता आदि विवरण केंद्रों को भी प्रेषित करना चाहिए।
इन दिनों ऐसे ही उदारचेताओं की अत्यधिक आवश्यकता है। महाकाल का युग निमन्त्रण उन्हीं के लिए उतरा है। युग सन्धि के इस पुण्य पर्व पर उन्हें आगे आना चाहिए। अन्तः- प्रेरणा का अनुसरण करना चाहिए फैसला होने की इस निर्णायक बेला में युग पुरुषों जैसा रोल अदा करना चाहिए। इन महतीय व्यक्तियों की गलाई-ढलाई ही इस शिक्षण योजना का उद्देश्य है। इसमें शामिल होने वाले अन्धड़ की तरह उभरे बिना न रहेंगे। भविष्य में उनका वेग जिस दिशा में जिस तेजी के साथ बढ़ेगा, उसी अनुपात में लोक समूह तिनकों, उड़ते-लुढ़कते उनका अनुगमन करने के लिए विवश होगा। इसे किसी युग प्रत्यावर्तन करने वाले भगवान महाकाल का स्पष्ट आश्वासन माना जाना चाहिए।
जो कल था, वह आज नहीं है। जो आज है वह कल नहीं रहेगा। यह आज है वह कल नहीं रहेगा। यह आज और अभी की गतिविधियों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है। विगत चुनावों में जिन्होंने लोक सम्पदा की बेतहाशा बरबादी देखी है, उनमें से किसी को कभी ख्याल भी नहीं आया होगा। कि कभी चुनाव इतने शान्त भी हो सकते हैं, लाउडस्पीकरों की चीख-चिल्लाहट रंगी-पुती दीवारों को शोभा और सुषमा का सत्यानाश किए बिना भी चुनाव, संपन्न हो सकते हैं, इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य को वर्तमान चुनावों में स्पष्ट देखा और अनुभव किया गया है। इसी तरह राजनीतिज्ञों के चेहरे एक के बाद एक बड़ी तेजी से बेनकाब होते चले जाएंगे और उन्हें जेल के सीखचों के पीछे जाना पड़ेगा। कभी का यह असंभव भी आज सच है। अकेले राजनीतिज्ञ भी आज सच है। अकेले राजनीतिज्ञ ही क्यों, तन्त्र-मन्त्र की जादुई ताकतों का भय और लोभ दिखाकर देश के नेतृत्व को गुमराह करने वाले और स्वयं को सर्वथा अजेय समझने वाले भी आज जेल की सलाखों में बन्द देखे जा सकते हैं।
अभी तो यह शुरुआत है, जो यह समझने के लिए काफी है कि कूड़े का ढेर लिए काफी है कि कूड़े का ढेर पहाड़ जितना ही विशालकाय क्यों न हो, आने वाला तूफानी बवंडर उसके अस्तित्व को मिटाए बिना न रुकेगा। इस तूफान में मिटाए बिना ने रुकेगा। इस तूफान में तिनके ही नहीं मजबूत समझे जाने वाले वृक्ष भी उखड़ते-उड़ते देखे जा सकेंगे। हममें से किसी को यदि सतयुग के आगमन पर यदा-कदा अविश्वास होता है तो सिर्फ इस कारण क्योंकि हमें कूड़े के ढेर की वीभत्सता, उसकी दुर्गन्ध की वीभत्सता तो साफ दिखाई देती है, लेकिन नजदीक से नजदीक बढ़ते चले आ रहे प्रलयंकारी तूफान की ताकत का अन्दाजा नहीं। जो अपने एक ही झटके में इस विषाक्तता के ढेर का मटियामेट किए बिना न रहेगा। आने वाला समय ओछे, हल्के नेतृत्व जैसे महान कार्य के लिए इन जैसों के बारे में सोचना ही ठीक नहीं। यह महान कार्य महान आत्माएँ ही कर सकेंगी और महान आत्माओं के अनेक गुणों में प्रमुख एक तपश्चर्या भी है। इसलिए शान्तिकुँज में चलने वाले तप प्रधान शिक्षण की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। इसे युगान्तरकारी सत्ता द्वारा दिये जाने वाले अनुदानों के एक अलभ्य अवसर के रूप में लिया जाना चाहिए।