विकास साधना की उपयोगिता, आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता, वे अपना काम करते हैं। और करना चाहिए। इतने पर भी यह असमंजस अपने स्थान पर यथावत् ही बना रहता है कि मनुष्य की अपनी निजी विशेषता एक सुनिश्चित तथ्य जैसी बनकर भारी चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहती है और बहुत हिलाने-डुलाने, उठाने-हटाने का प्रयत्न करने पर भी उत्साहवर्धक बाधा ही बनी बैठी रहती है। देखा गया कि शारीरिक और मानसिक विकास में मनुष्य की निजी विशेषता का असाधारण महत्व है। सुधार प्रयत्नों से उस पर सीमित प्रभाव ही होता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य के चेहरे, रंग एवं कार्यशक्ति पर दृष्टिपात किया जा सकता है। अफ्रीका के नीग्रो, अरब के तगड़े, काँगो, के बौने एकत्रित करके यह जाना जस सकता है। कि उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति में भी भारी अन्तर पाया जाता है। चेहरा, नाक, आँख, होंठ दाँत, बाल, नाखून जैसे अंगों को देखकर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता उन समुदायों कही निजी विशेषता है। इसका परिस्थितियों या साधनों से कोई सम्बन्ध नहीं है। काले नीग्रो अमेरिका जैसे शीत प्रधान देश में गोरों के बीच बसते हुए भी अपने रंग और चेहरे को पीढ़ी-दर-पीढ़ी यथावत् बनाये रहते हैं। इसी प्रकार गोरे लोग दक्षिण अफ्रीका जैसे गर्म क्षेत्र में शताब्दियों से बसे होने पर भी काले नहीं हुए। उनकी सन्तानें गोरे रंग की तथा माँ-बाप जैसे चेहरों की ही होती है। जबकि पड़ौस में बसे मूल निवासी अपने काले रंग, घुँघराले छोटे बाल, चौड़ी नाक, मोटे होठ जैसी विशेषताएँ यथावत् बनाये रहते हैं। सन्तानें इसी प्रकार की उत्पन्न होती रहती है।
इससे प्रतीत होता है कि प्रान्त, क्षेत्र वातावरण आदि का प्रभाव मनुष्य वातावरण आदि का प्रभाव मनुष्य की शारीरिक स्थिति पर उतना नहीं पड़ता जितना कि वंश परम्परा का । पख्तूनिस्तान में बस जाने पर भी अपने वंशजों के काय-कलेवर में कोई विशेष परिवर्तन कर नहीं पाते।
यही बात बौद्धिक संरचना के सम्बन्ध में भी है। मारवाड़ी, बंगाली, द्रविण, केरली, ब्राह्मण, कास्थ, आदिवासी जैसे वंशजों के चिन्तन, स्वभाव, कौशल, स्वर, चातुर्य आदि पर एक विशेष आवरण चढ़ा पाया जाता है। यों सुधार प्रयत्नों का कुछ लाभ तो होता ही है, पर जन्मजात विशेषता में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कि होना चाहिए।
एक ही पेड़ पर रहने वाले, एक ही वातावरण में पलने वाले, एक जैसा आहार करने वाले पक्षियों की आकृति और प्रकृति का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है। पशुओं, पक्षियों से लेकर कृमि-कीटकों तक के अगणित प्राणी, पास-पड़ौस में बसते और एक ही प्रकार के साधनों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी मौलिक विशेषताएँ बनाए रहते हैं और उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलाते रहते हैं। इसे वंश परम्परा कहते हैं।
वंश परम्परा की चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि अगले दिनों मानवी विकास के लिए किए जाने वाले प्रबल प्रयत्नों में यही कठिनाई सबसे अधिक आड़े आयेगी कि परम्परागत आकृति एवं प्रकृति में हेर-फेर कैसे किया जाय? धीमी गति से यत्किंचित् सुधार होते चलने की प्रतीक्षा करते रहना अब इस प्रगति युग में सम्भव नहीं। न इतना धैर्य है। और न अवकाश, अवसर है कि वंश परम्परा के साथ जुड़ी हुई। विशेषताओं में क्रमिक परिवर्तन की आशा लगाये बैठा रहा जाय और सुधार प्रयत्नों पर सन्तोष किया जाय?
मानवी विकास के नये आधारों में वंशानुक्रम विज्ञान का आश्रम लेने की बात गम्भीरतापूर्वक सोची जा रही है। यह विज्ञान अभी नया है और सर्वसाधारण को उसकी उतनी जानकारी नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। अतएव आवश्यक समझा गया कि इस संदर्भ में प्राथमिक जानकारी और पीढ़ी विकास के साथ उसके समावेश का आधार संक्षेप में समझा दिया जाय। इन पृष्ठों पर उसी का प्रयत्न किया जा रहा है। मानवी नस्ल को सुधारने में दिलचस्पी रखने वाले प्रत्येक विज्ञजन को इस संदर्भ में कामचलाऊ जानकारी तो नोट करनी ही चाहिए।
समझा जाना चाहिए कि मनुष्य के अन्दर एक प्रकार से दो विशिष्ट आनुवंशिक व्यवस्थाएँ है एक तो वह जिसके माध्यम से जीन्स तथा गुणसूत्र द्वारा पिता से सन्तान को जैविक द्वारा पिता से सन्तान को जैविक सूचनाएँ स्थानान्तरित होती है। दूसरी व्यवस्था वह है। जिसके माध्यम से साँस्कृतिक आदान-प्रदान होता है। उदाहरणार्थ, बोलने वाले से सुनने वाले को, पाठक को अध्ययन से, दर्शक को दृश्यावलोकन से। यही दर्शक को दृश्यावलोकन से। यही हमारी संस्कृति धरोहर बनाता है।
‘यूजोनिक्स’ उस विज्ञान का नाम है जिसके द्वारा जीन्स की सुधारने एवं वशं परम्परा को परिष्कृत करने की बात सोची जाती है। फ्राँसिस गाल्टन ने इस शती के प्रारम्भ में इस शब्द से वैज्ञानिक समुदाय को परिचित कराया । वैसे तो इससे भी पहले ‘प्लूटो’ ने ‘द रिपब्लिक’ नामक अपनी रचना में इस प्रकार की सम्भावनाओं का वर्णन किया है, जिसमें (सलोक्टिव ब्रीडिंग) सही चयन से उत्तम नस्ल का निर्माण पक्ष उलटकर आया। रूप से समर्थ एवं मानसिक दृष्टि से बुद्धिमत्तायुक्त जोड़ों को ही विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि उनसे उत्पन्न सन्तान चाहिए ताकि उनसे उत्पन्न सन्तान उत्तम कोटि की हो। जो इस दृष्टि से हीन या निम्नकोटि के पाये जायें उन्हें राज्य द्वारा विवाह की अनुमति ही न मिलनी चाहिए या सन्तानों को पैदा होने से पूर्व ही नष्ट कर देना चाहिए ताकि समाज पर अनावश्यक बोझ न बढ़े। यह तो प्लूटो का अतिवादी चिन्तन था, जो उस समय साकार न हो सका। पर गाल्टन ने इस तथ्य को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में रखकर बताया, कि डार्विन की ‘प्राकृतिक चयन’ (नेचुरल सलेक्शन) की तकनीक के बजाय समाज को बुद्धिमान प्राणी देने के लिए ‘सोशल सलेक्शन’ की विधि अपनाई जानी चाहिए।
गाल्टन एवं नीत्शे के प्रतिपादनों से समर्थन पाकर जर्मनों ने ‘यूजोनिक्स’ का हवाला देते हुए स्वयं को ‘मास्टर रेस’ घोषित कर दिया। एक जर्मन रेस’ घोषित कर दिया। एक जर्मन आर्यन एवं एक अनार्य के बीच विवाहों पर बन्धन लगा दिया गया। हिटलर के अनुसार लाखों व्यक्ति मात्र उसकी इस मान्यता के कारण मार दिया गया। हिटलर के अनुसार लाखों व्यक्ति मात्र उसकी इस मान्यता के कारण मार दिए गए कि वे अनार्य थे, हीन नस्ल के थे एवं उनके रहने से वंश-परम्परा के विकृत होने की सम्भावना था।
अमेरिका में उलटा देखा गया है। इस राष्ट्र में विभिन्न देशों की, विभिन्न वंश परम्पराओं में उत्पन्न व्यक्ति ही इसके नागरिक है। ये सभी बाहर से आकर गत चार शताब्दियों में यहाँ यह पाया गया है। कि बुद्धिमत्ता की दृष्टि से काले व गोरे एक से ही हैं बल्कि ऊँचे पदों पर अश्वेत नस्ल के व्यक्ति अधिक सक्षम पाये गये हैं।
विचारकों का कहना कि नस्ल के आधार पर विशेषताओं का निर्धारण विज्ञान सम्मत नहीं है। बुद्धि की कुशाग्रता व शरीर की बलिष्ठता किसी एक वंश की बपौती नहीं है। हाँ, यह बात जरूर है पौष्टिक आहार की उपलब्धि, संस्कृति विकास के अवसर एवं समाज की सन्तुलित व्यवस्था से ऊँचे उठने की सम्भावनाएँ किसी एक वंश को अधिक आसानी किसी एक वंश को अधिक आसानी से मिल जाने से वह अधिक श्रेष्ठ हो गयी हो।
आनुवांशिकता अपनी जगह है एवं पर्यावरण अपनी जगह। अलग-अलग जीन्स वाजं व्यक्ति उपयुक्त अनुकूल वातावरण पाकर बुद्धि की दृष्टि से सुनिश्चित विकास दर्शाते हैं। समाज और अधिक रचनात्मक व्यक्तित्व तैयार कर सकता है, यदि इसके प्रत्येक घटक को शैक्षणिक एवं आर्थिक साँस्कृतिक एवं नैतिक विकास का परिपूर्ण अवसर दिया जाय। ऐसे विकास के अभाव में कई ऐसे व्यक्ति उभर नहीं पाते जो सम्भवतः न्यूटन, वाल्टेयर, नेपोलियन, आइन्स्टीन की कोटि के जीन्स वाले थे। इस कारण दोनों ही परस्पर अन्योन्याश्रित है।
‘यूजोनिक्स’ शब्द अपने आप में पवित्र है, यदि इसमें से वंशवाद, नस्लवाद जैसे पूर्वाग्रह युक्त दुर्गुण निकाल दिये जायें। नेगेटिव यूजोनिक्स का अर्थ है, नुकसान पहुंचाने वाले जीन्स को हटाने का प्रयास कर जीन्स को हटाने का प्रयास कर सन्तरित को शुद्ध परिपूर्ण बनाना। पॉजिटिव यूजोनिक्स का अर्थ है लाभदायक (शरीरगत बलिष्ठता, मानसिक कुशाग्रता बढ़ाने वाले) जीन्स को सन्तति में पहुंचाने का प्रयास करना।
‘सलेक्टिव मेटिंग’ अर्थात् उचित नस्ल के चुनिन्दा समूहों में परस्पर संसर्ग के लिए जो एक सुझाव सामने आया था, वह था ‘वीर्य बैंक’ के रूप में जिसके प्रणेता थे- हेनरी मुलर। प्रतिभावान, प्रख्यात एवं हर दृष्टि से समग्र कुछ व्यक्तियों के वीर्य को ‘डीप फ्रीज’ में रखकर उसका समय आने पर विरोधी लिंग का उचित पात्र मिलने पर उपयोग हो उचित पात्र मिलने पर उपयोग हो ताकि इनके संपर्क से एक सर्वश्रेष्ठ सन्जति का जन्म हो, यही दृष्टि इसके पीछे थी। इसे वैज्ञानिकों ने नाम दिया ‘यूटेलेजनेसिस’। कृत्रिम गर्भाधान का इसे पर्यायवाची कह सकते हैं। ‘महामानव’ निर्माण हेतु जो नहीं परन्तु नपुंसक व्यक्तियों को पिता बनाने के लिए अवश्य अमेरिका में इसका प्रतिवर्ष 10 से 15 हजार बार प्रयोग होता है एवं करीब 40 प्रतिशत में सन्तति का जन्म इस विधि से सफलता पूर्वक हो जाता है।
एक और विधि जो सुझायी गयी है, वह है जीन्स के घटक डी0 एन0 ए0 के साथ सीधा हस्तक्षेप। इसी ‘जेनेब्कि सर्जरी’ नाम दिया गया। यूजोनिक्स की यह विधि लगती तो बड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण है, पर जिस द्वतगाति से आनुवंशिकविदों के प्रयास इस दिशा में चल पड़े हैं, उससे लगता है डी0 एन0 ए0 की संरचना में वांछित रूपांतरण करने में वैज्ञानिकों को सफलता अवश्य मिलेगी। जैनेटिक सर्जरी को कई प्रकार से प्रयुक्त किया जा रहा है।
‘जीन्स की कलम’ के समर्थक वैज्ञानिकों की प्रतिपादित विधि में शारीरिक ऊतकों को प्रयोगशाला में भूणवत् (एम्ब्रियोनिक) बना लिया जाता है। ऐसे ‘क्लोन्स’ या कलम उन गुणों से भरे-पूरे होते हैं जो उस व्यक्ति के क्रोमोसोम्स में परिपूर्ण मात्रा में थे, सम्भवतः निषेचन से उनमें परिवर्तन आ जाता। ऐसी कलम का उचित वातावरण व पोषण देकर कई कार्बन कापी उस व्यक्ति की तैयार की जा सकती हैं जिसके कि ऊतकों से कलम को तैयार किया गया था।
इस क्षेत्र में आनुवंशिक रोगों को दूर करने में लगे वैज्ञानिकों को जिस सीमा तक सफलता मिली है, उससे कहा जा सकता है। कि वह दिन दूर नहीं, जब किसी भी भावी सन्तति के डी0 एन0 ए0 में पूर्व निर्धारित क्रमानुसार वाँछित परिवर्तन कर उसकी संरचना मोड़ दिया जा सकता है, संस्कारों में परिवर्तन लाया जा सकता है एवं सम्भवतया नर पशु को देवमानव बनाया जा सकता है।