स्वाध्याय-मनन-चिन्तन की तीन पदों वाली विचार शैली में ‘चिन्तन’ अन्तिम पद है। एक पैर अथवा दो पैरों वाली तिपाई खड़ी नहीं होती। तीन पैरों वाली स्थिर खड़ी नहीं होती। तीन पैरों वाली स्थिर खड़ी तिपाई ही उपयोग में लाई जा सकती है। उपयोग में लाई जा सकती है। इसलिए केवल स्वाध्याय अथवा मनन महत्वपूर्ण क्रियाएँ होते हुए भी फलहीन बनी रहती हैं और इच्छित परिणाम प्रस्तुत नहीं कर पाती। चिंतन के साथ जुड़कर ही वे पूर्णता। चिन्तन के साथ जुड़कर ही वे पूर्णता प्राप्त करती हैं। और सार्थकता सिद्ध करती है।
स्वाध्याय के द्वारा अपने दोष गुण जान लिये, स्वीकार अपने दोष गुण जान लिये, स्वीकार भी कर लिये। मनन द्वारा इन दोष-गुणों को विस्तार से ढूँढ़ भी लिया गया। जहाँ से वे पोषण पाते हैं, उन मनोवृत्तियों, संस्कारों को भी देख लिया गया। किन्तु इतना जान लिये व खोज गया। किन्तु इतना जान लेने व खोजे लेने से तो दोष घटेंगे-मिटेंगे नहीं । न तो गुण विकसित हो पायेंगे, न ही इच्छित परिणाम प्राप्त होगा, क्योंकि अभी एक सोच और बच रहा है-
“जाने गये अपने दोष, दूषित मनोवृत्ति एवं कुसंस्कार को हटाने के लिये हम कौन-से व्यावहारिक उपाय अपनायें? खोजे गये अपने श्रेष्ठ गुण, श्रेष्ठ वृत्ति व श्रेष्ठ संस्कार को अधिक विकसित करने के लिए और क्या करें? दोषों को दूर करने का, श्रेष्ठताओं को बढ़ाने का यह सोच ही ‘चिन्तन’ है।
युद्ध जीतने के लिए अनेक प्रकार की मोर्चाबन्दियाँ या व्यूह रचनाएँ की जाती हैं। इन व्यूह रचनाओं का उद्देश्य ही यह होता है। कि प्रत्येक परिस्थिति में शत्रु इनमें पहुंचकर घिर जाए और तब उसे नष्ट कर दिया जाए और तब उसे नष्ट कर दिया जाए। पुराणों में वर्णित देवासुर संग्राम के आख्यान ऐसी व्यूह रचनाओं से भरे पड़े है। दुर्गुणों को नष्ट करके श्रेष्ठताओं को स्थापित करना ही देवों का असुरों के विरुद्ध संग्राम है। इस संग्राम में ‘चिन्तन’ दुर्गुणों को नष्ट करने के लिये की गई व्यूह रचना है।
चिन्तन दो प्रकार की व्यूह रचना प्रमुख रूप से करता है। जिस प्रकार प्रकाश से अन्धकार को दूर किया जाता है, जल से अग्नि को बुझाया जाता है। वैसे ही सत्कर्म से दुष्कर्म को, सद्विचार से कुविचार को और सद्भाव से दुर्भाव को काटा जाता है। अतः चिन्तन-दुर्गुण का शमन, उन्मूलन करने के लिये विपरीत सद्गुण का विकास करने वाली उपयुक्त क्रियाओं का अभ्यास निर्मित करता है। उदाहरण स्वरूप, लोभ का शमन करने के लिये अपनी शुद्ध आये के एक निश्चित अंश का श्रेष्ठ कार्यों के लिए नित्य विनम्र अर्पण करना। जिस प्रकार वायु की सहायता पाकर अग्नि अधिक प्रज्ज्वलित होती है। जल की सहायता पाकर पृथ्वी अधिक उपजाऊ बन जाती है। वैसे ही सत्कर्म या सद्भाव के साथ सहयोगी सत्कर्म या सद्भाव को संबद्ध कर देने से उसकी प्रभावशीलता व गुणवत्ता बढ़ जाती है। अतः चिन्तन श्रेष्ठ गुण की अभिवृद्धि करने के लिये उपयुक्त सहायता करने की व्यावहारिक विधि को खोजता है। उदाहरण के लिये, केवल सेवा-भाव से किये जा रहे कार्य में सहानुभूति अथवा करुणा का समान रूप से योग करना।
किन्तु सबसे बड़ी व्यूह-रचना तो श्रद्धा, विश्वास और लगन करते हैं। यह तीन तत्व व्यक्ति में हों तो ही वह अपने जीवन के भौतिक, मानसिक और भावात्मक स्तरों को ऊपर उठाने के लगातार प्रयास करता रहता है। यह तीन भाव आध्यात्मिक जीवन के तो मानो प्राण ही हैं। यह न हों तो अपने वर्तमान जीवन में झाँकने और उसे सुधारने के चक्कर में भला कोई क्यों पड़ेगा। श्रद्धा, विश्वास व लगन से छलछलाती आध्यात्मिक वृत्ति ही व्यक्ति को श्रेष्ठ जीवन जीने श्रेष्ठ गुणों को विकसित करने के लिये उकसाती है, चेतना को झकझोरती है, आशा को जगाती है। “इस गई-गुजरी स्थिति में भी मेरे व्यक्तित्व में सुधार सम्भव है (श्रद्धा) यह सुधार मेरे जीवन में आएगा, अवश्य आएगा। (विश्वास) मुझे प्रयास करते रहना है, असफल होऊँ तो भी बार-बार प्रयास करते रहना है (लगन)।” ऐसे प्राणवान व्यक्ति की प्रगति को भला कौन सा दुर्गुण रोक सकता है? इन्हीं तीन सर्वोच्च भावों से युक्त होकर प्राणवान चिन्तन’ का भी आरम्भ होता है
दो पहलवानों के बीच दंगल हो तो कोई एक तो हारेगा ही। किन्तु हारने वाले पहलवान को निराश होते कभी नहीं देखा गया। हारने वाला तत्काल तीन बातों की खोज करता है। पहला, वह बारीकी से खोजता है। कि उसने कौन-कौन सी गलतियां कीं (स्वाध्याय)। दूसरा, इन गल्तियों और कमियों को दूर करने के लिये अब क्या करना चाहिए? शरीर बल में कमी हो तो कौन से व्यायाम बढ़ाए जायँ? कौशल में कमी हो तो कौन से दाँव-पेंच सीखें और क्या करें जिससे कि भविष्य में जब भी दंगल का अवसर आए तव विजय श्री मिले (चिन्तन)। सम्भव है कि इतनी तैयारियों के बाद भी अगला दंगल फिर हार जाये। किन्तु हार उसका मनोबल नहीं तोड़ पाती, क्योंकि उसने जीतने का संकल्प मन में ठाना है। अगले-और-अगले दंगल के लिये वह लगन के साथ दंगल के लिये वह लगन के साथ अपना बल और कौशल बढ़ाता रहता है। ‘अगला दंगल मुझे ही जीतना है’ इस आशा भरे विश्वास को वह उत्साहपूर्वक सँजोए रखता है। यही’ श्रेष्ठ चिंतन ‘ की शैली है। श्रेष्ठ चिन्तन कभी निषेधात्मक नहीं होता वह कभी निराश नहीं करता, क्योंकि वह कर्म और भविष्य में विश्वास करता है।
हमारी कमजोर मनः स्थिति के कारण तथा डगमगा देने वाली बाह्य जीवन की आकर्षक किन्तु हानिकारक परिस्थितियों के कारण हानिकारक परिस्थितियों के कारण हमारे दोष पनपते हैं और बार-बार हमारी श्रेष्ठताओं पर आक्रमण कर उनका स्तर घटाते रहते हैं। हमारे कुसंस्कार इतने प्रबल हो जाते हैं।कि अवसर पाते ही वे हमारे शरीर से बरबस ही दुष्कर्म करा लेते हैं और प्रतिरोध करना चाहकर भी हम कुछ नहीं कर पाते। वे कभी तृष्णा के मोर्चे से, कभी वासना के मोर्चे से आक्रमण करते हैं इस भयंकर संग्राम में एक कुशल सेनापति के समान ‘चिन्तन’ इन सभी मोर्चों से आक्रमणों को विफल करने की प्रभावी कार्य योजना बनाता है। साथ ही श्रेष्ठ संस्कारों के, सत्कर्मों के, संयम और संकल्प आदि के अपने भी ऐसे मोर्चे खड़े करता है। जहाँ से इन दोषों-दूषित मनोवृत्तियों पर प्रत्याक्रमण कर उन्हें उखाड़ा जा सके। अतः जब तक देवासुर संग्राम होता रहेगा, जब तक श्रेष्ठता और निम्नता के मध्य युद्ध जारी रहेगा, तब तक विजय के लिए ‘चिन्तन’ जैसे कुशल देव-सेनापति की अनिवार्य आवश्यकता बनी रहेगी।
चिन्तन बेतुकी और काल्पनिक कार्य योजना नहीं बनाता, न ही ऐसी दुरूह योजनाएँ बनाता है। जिन्हें कार्यान्वित करने में उच्च इच्छाशक्ति संपन्न भी कठिनाई अनुभव करें। वह तो स्वाध्याय व मनन के निष्कर्षों के अनुरूप सरल, साध्य अभ्यासों की बना करता है। इतना ही नहीं वह कार्य-योजना का विस्तार भी उतना ही करता है, जितना अपनी वर्तमान क्षमता व इच्छाशक्ति के द्वारा संपन्न होना सम्भव हैं इस कारण चिन्तन व्यावहारिक एवं उपयोगी होती है। कुल मिलाकर चिन्तन प्रक्रिया का उद्देश्य बहुत सीधा और स्पष्ट है “आज हमारी जैसी भी मनः स्थिति व परिस्थिति है, जैसी भी क्षमता व इच्छाशक्ति है, हमें तो उतने से ही अपने दोषों को हटाने और गुणों को बढ़ाने का प्रयास करना है। अतः हम निश्चित करें कि हम अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कौन-कौन से उपायों-अभ्यासों का सतत् प्रयोग कर पायेंगे, जिससे कि वर्तमान स्थिति से बेहतर मानसिक व आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ सकें।
अपनी कार्य-योजना बनाने के लिए ‘चिन्तन’ जिन उपायों को साधनों को, काम में लाता है उनमें से अधिकांश वैचारिक स्तर के होते हैं, कुछ स्थूल-साधन भी होते हैं।
उदाहरण के लिये, मन को डाँवाडोल करने वाली अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ होती हैं। प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने के लिये अथवा उसका निराकरण करने के लिये उसके अनुरूप तथा प्रभावशाली प्रेरक वचन, श्लोक, चौपाई को कण्ठस्थ करना तथा समय आने पर उन्हें दुहराना एक प्रकार के साधन हैं। सेवा कार्य करते समय संवेदना, करुणा जैसे सहायक भावों को साथ रखना दूसरे प्रकार का साधन है। नित्य अर्थ-दान, ज्ञान-दान के अभ्यास द्वारा क्रमशः त्याग व सेवा भाव को विकसित करना जिसके द्वारा लोभ व स्वार्थ भावों का उन्मूलन किया जा सके, तीसरे प्रकार का साधन है। प्रीति भाव इनमें सबसे अधिक प्रभावी साधन है। इन्द्रदेव गुरुदेव अथवा किसी अत्यन्त प्रिय व्यक्ति के प्रति भाव से उनका करने के लिए तथा अनेक दोष-दुर्गुणों का शमन करने के लिए तथा अनेक श्रेष्ठ गुणों को बढ़ाने के लिए शक्तिशाली प्रोत्साहन देता है। यह प्रीति अथवा उत्कृष्ट जीवन के प्रति श्रद्धा चौथे प्रकार का साधन हैं यज्ञोपवीत का दर्शन, स्पर्श तथा नमन स्थूल साधनों का प्रकार है। इनके तथा अनेकों साधनों का उपयोग चिन्तन की कार्य योजना बनाते समय उपयुक्तता के आधार पर किया जा सकता है।
चिन्तन मनोमय कोश की उच्चस्तरीय साधना है। उत्कृष्ट जीवन जीने की आकांक्षा, अपनी थोड़ी या अधिक क्षमता पर विश्वास तथा धर्म जैसे गुणों के साथ नियमित अभ्यास करने से जीवन की अनेक प्रकार की समस्याओं का सफल समाधान खोजने में तथा व्यक्तित्व के विकास में यह साधना बहुत सहायक है। स्वाध्याय, मनन-चिन्तन को मन्त्र जप के समान महत्व देते हुए आश्वमेधिक अनुयाज में इसीलिए प्रथम स्थान दिया गया है।