दो धर्मात्मा

June 1996

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काफी बड़ी कोठी है। ऊँची चहारदीवारी से घिरी हुई इस कोठी के चारों ओर सुन्दर सी वाटिका है। इसे छोटा-सा राजभवन कहें तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं। इसी से सटकर चहारदीवारी के बाहर एक फूस की पुरानी झोंपड़ी है। फूस की टटियों से घिरी अनेक स्थानों से टूटी झोंपड़ी। कोठी जितनी स्वच्छ, जितनी विशाल, जितनी सजी हुई एवं वैभव संपन्न है, झोंपड़ी उतनी ही जीर्ण-शीर्ण, उतनी ही अपने में सिमटी-सिकुड़ी और उतनी ही कंगाल है। कोठी और झोंपड़ी-दोनों एक दूसरी से सटी। इनका क्या मेल? क्या सामंजस्य इनमें? लेकिन सामंजस्य जो संसार में है, यही है। दोनों में ही धर्मात्मा रहते हैं। कोठी है सेठजी की। सेठ जगतनारायण को कौन नहीं जनता, वे बड़े सज्जन हैं, बड़े धनी है, बड़े भक्त है, बड़े धनी हैं, बड़े व्यापारी हैं अर्थात् बड़े हैं! बड़े है!!!

झोंपड़ी है भोला की। जब लोग यदा-कदा उसे सम्मान से बुला लेते हैं, तो कहते भोलाराम! वह कंगाल है, श्रमजीवी है, दुबला है, ठिगना है, धीरे-धीर बोलता है, धीरे-धीरे चलता है। थोड़े में कहें तो छोटा है! छोटा !! छोटा है!!!! अन्ततः उसकी झोपड़ी भी तो छोटी है। उसके पास झोंपड़ी भी तो छोटी है। उसके पास क्या मोटर है कि, इधर से उधर सर्र-सर्र दौड़े उस पर चढ़कर। उसके पास तो एक बुढ़िया घोड़ी भी नहीं। सेठजी बोलते हैं तो कोठी गूँज उठती है; किन्तु किन्तु भोला का शब्द तो उसकी झोपड़ी में भी पूरा सुनायी नहीं देता।

सेठजी के बनवाये तीर्थों में अनेक मंदिर हैं, धर्मशालाएँ हैं। स्कूल-पाठशालाएँ कई उनके दिए खर्च पर चलती हैं और कई तीर्थों में अत्र क्षेत्र चलते हैं उनकी ओर से। गरमी के दिनों में कितनी प्याऊ सेठजी चलवाते हैं, यह संख्या सैकड़ों में है और जाड़ों में जिन-ब्राह्मण एवं कंगालों को वे वस्त्र तथा कम्बल दिलवाते हैं, उनकी संख्या तो हजारों में कहनी पड़ेगी। कोठी से थोड़ी पड़ेगी। कोठी से थोड़ी ही दूर पर सेठजी ने अपने आराध्य का मन्दिर बनवाया है। कई लाख की लागत लगी होगी। इतना सुन्दर, इतना आस-पास देखने में ही नहीं आता। दूर-दूर से यात्री मन्दिर में दर्शन करते हैं। स्वयं सेठजी रोज दो-तीन घण्टे पूजा-पाठ करते हैं। कई विद्वान ब्राह्मण उनकी ओर से जप या पाठ करते रहते हैं। नियमित रूप से सेठजी कथा सुनते हैं। उनका दातव्य औषधालय चलता है और पर्वों पर वे किसी न किसी तीर्थ की यात्रा कर आते हैं। तीर्थ में दान, दक्षिणा तथा पूजन में हजारों खर्च कर आते हैं, सेठजी, लोगों का कहना है, ऐसा धर्मात्मा इस युग में बहुत कम देखने में आता है।

भोला जब रोटी बना लेता है, प्रायः पड़ोसी की गाय हुम्मा-हुम्मा करती आ जाती है उसकी झोंपड़ी में। एक टुकड़ा रोटी भोला उसे दे देता है। गाय ने यह नियमित दक्षिण बाँध ली है। एक कुतिया ने कहीं पास ही बच्चे दिए हैं। दो-तीन पिल्लों के साथ वह भी पूँछ हिलाती आ जाती है। बेचारी हुड्डी हो गयी है, भूख के मारे और उस पर ये पिल्ले। भोला भोजन करने के पश्चात् मिल कुछ डाँट-डपट सुनने के पश्चात् मिल ही जाती है, किन्तु पानी का नल कहीं पास में है नहीं। भोला उसके घड़े में सबेरे और शाम का नियम से एक घड़ा पानी डाल आता है। वह जो पीपल के नीचे नाले के प्रवाह में पड़कर गोल-मटोल बना पत्थर रखा है, वही भोला के शंकरजी हैं। स्नान के बाद एक लोटा जल वह उनकी चढ़ा देता है, यही उसकी पूजा है। वह तीर्थ करने जाये तो पेट की फीस कहाँ मिले? यही क्या कम है कि शिवरात्रि को वर्ष में एक बार वह चला जाता है गंगा स्नान करने।

ये दो धर्मात्मा हैं । कोठों में रहते हैं सेठजी और झोंपड़ी में रहता है भोला। भोला में साहस नहीं कि कोठी में सेठजी के पास चला जाय और सेठजी के पास चला जाय और सेठजी को कहाँ इतना अवकाश की बाहर कोने में जो फूस की झोंपड़ी है, उस पर ध्यान दें और सोचें कि उसमें भी कोई दो पैर का जन्तु रहता है। ये दोनों पड़ोसी हैं पर हैं सर्वथा अपरिचित।

सेठजी दान-दक्षिणा का दम्भ तो बहुत करते है; किन्तु उनके व्यापार में धर्मादि की जो रकम निकलती है, वह भी रोकड़ बही में जमा ही रहती है। यह मन्दिर कैसे बना? ये क्षेत्र कैसे चलते है? इनका कहीं कुछ हिसाब ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि ब्लैक की जो नित्य आमदनी है, उसका एक अंश इस धर्म कमाई में इसलिए लगाया जाता है कि वह आमदनी पच सके।

ये दूसरे श्री श्री 9008 श्री कहलाने वाले अपने को बड़ा विचारक एवं सन्त मानते हैं। इनका कहना है “सेठजी के मन्दिर को देखकर वही लोग प्रशंसा कर सकते हैं, जिन्होंने सेठजी की कोठी भीतर से नहीं देखी। सेठजी ने अपने लिए जैसा मकान बनवाया है, मन्दिर उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है । भगवान के लिए जो वस्त्र आभूषण हैं, उससे अच्छे तो अपने लड़के के ब्याह में सेठजी ने नौकर-नौकरानिओं को उपहार में दिये थे। भगवान के भोग की बात छोड़ दो। ये रोटियाँ सेठजी के यहाँ झाड़ देने वाले भी नहीं छुएँगे। वैसे कुछ लोग महन्तश्री की इस नाराजगी का कारण सेठजी द्वारा उनकी एक बड़ी माँग को पूरा न करना मानते हैं।

नाराज तो नेताजी भी हैं। ये सेठजी के ही किसी कारखाने में किसी पद पर काम करते हैं। इनकी बात और भी विलक्षण है। ये मजदूरों की उपदेश दिया करते हैं कि कम से कम काम करना और पैसा ज्यादा से ज्यादा लेना ही बुद्धिमानी हैं इन सेठों से जितना जैसे भी वसूल हो जाए सब जायज है। सामने अफसर आ जाए तो काम करना और पैसा ज्यादा से ज्यादा लेना ही बुद्धिमानी है। इन सेठों से जितना जैसे भी वसूल हो जाए सब जायज है। सामने अफसर आ जाए तो काम करना नहीं तो आराम करना और कहने रोकने पर उसी का दोष, निकालकर लड़ने को तैयार हो जाना, उसे पूँजीपति या गरीबों का शत्रु बताकर चिल्लाने लगना ये ही तरीके है इन लोगों पर विजय प्राप्त करने के। ये व्याख्यानों में कहते हैं- सेठजी मजदूरों के पक्के शोषक है, दया का नाम भी इनमें नहीं है। इन नेताजी की नाराजगी के पीछे जो राज है उसकी खुस-फुस मजदूरों में चला करती है।

ये पण्डितजी भी सेठजी से सन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। स्वयं चाहें अनुष्ठान के समय ऊँघते ही रहें पर अनुष्ठान भी पहले से बहुत थोड़ी दक्षिण तय करके कराते हैं। पाठशालाओं में अध्यापकों को बहुत कम वेतन दिया जाता है। मन्दिरों और अत्र क्षेत्रों में सदा काट-कसर करते रहते हैं। धर्म में भी मोल-भाव करते हैं।

संसार में दोष देखने वालों की, गुण में भी दोष की कल्पना करने वालों की कमी नहीं है। कोई सेठजी को कंजूस कहता है, काई अनुदार बतलाता है, कोई निष्ठुर कहता है, कोई अनुदार बतलाता है, कोई निष्ठुर कहता है, काई अश्रद्धालु । स्वयं रिश्वत लेने वाले सरकारी कर्मचारी उन्हें लेने वाले सरकारी कर्मचारी उन्हें चोर बाजारी आदि का दोष देते हैं तो दूसरे दलों के नेता उन्हें शोषक कहते हैं।

जहाँ दूसरों को सेठजी के बहुत से दोष दिखते हैं, वहीं सेठजी को भी दूसरों से सन्तोष नहीं है। सबसे अधिक तो वे इस झोंपड़ी से असन्तुष्ट हैं जो उनकी विशाल कोठी से सटी खड़ी हैं। इस कूड़े के ढेर ने उनकी कोठी की शोभा ही बिगाड़ रखी हैं उन्होंने अनेक बार अपने मुनीम मैनेजर से कहा, अनेक बार प्रयत्न कराए झोंपड़ी की भूमि खरीदने के लिए। उनके नौकरों ने बताया है कि इस झोंपड़ी में एक बहुत बुरा आदमी रहता है। बुराई उसमें सबसे बड़ी यही है कि वह किसी दाम पर अपनी झोंपड़ी बेचता ही नहीं सेठजी ने कभी नहीं देखा झोपड़ी में रहने वाले इस गन्दे जीव को। वे उसे देखना चाहते भी नहीं। वह घमण्डी है, उजड्ड-मूर्ख है और न जाने क्या-क्या है सेठजी के मन में। वे उससे घृणा करते हैं। वह भला आदमी कैसे हो सकता है जबकि एक औषधालय या पाठशाला बनाने के लिए अपनी अपनी सड़ी झोंपड़ी नहीं बेच रहा।

भोला की बात छोड़ दीजिए। वह तो पूरा भोला है। कुछ मजदूर नेताओं ने उसे भड़काने की कोशिश की, कुछ दूसरे लोगों ने भी कारण विशेष से उसके कान भरे, उसे अनेक लोगों ने सेठजी के विरुद्ध बहुत कुछ बताया, किन्तु ऐसे लोगों का यही अनुभव है कि भोला पल्ले सिरे का मूर्ख और एकदम कायर है। उसमें साहस ही नहीं सेठ के विरुद्ध मुँह खोलने का । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उसे सेठ से अवश्य गुप-चुप अच्छी रकम मिलती है। भोला क्या कहता है इसे कोई सुनना नहीं चाहत। भोला कहता है-सेठजी बड़े धर्मात्मा हैं। वे तो मेरी झोंपड़ी अच्छे काम के लिए ही लेना चाहते हैं। लेकिन मैं क्या करूं? मेरे बाप-दादे की यही झोंपड़ी है। मैं इसे कैसे बेच दूँ?

यदा-कदा अटपटी बातें भी घटित हो जाती है। सेठजी बाते भी घटित हो जाती हैं। सेठजी और भोला के शहर में एक स्वामीजी आ गए। स्वामीजी अवस्था आ गए। स्वामीजी अवस्था में तरुण थे। अंग्रेजी, फारसी के पारंगत विद्वान, उन्हें बोलते देखकर लगता कि वेदान्त का अमृत चारों ओर झर रहा हो। उनके मुख से निकली ओंकार की ध्वनि श्रोताओं को अनिर्वचनीय आनन्द में डुबो देती। लोग उन्हें स्वामी रामतीर्थ कहते, पर वे अपने को रामबादशाह कहत थे। सचमुच उनकी बाल में बादशाहत था, चेहरे पर अलौकिक नूर, जीवन का फक्कड़ाना अन्दाजा। अपने प्रवचन के बाद उन्होंने सेठजी की कोठी के पास जो पीपल है, उसके नीचे आसन लगाया। पता लगने पर सेठजी दौड़े-दौड़े आए। वे एक महात्मा को इस प्रकार सर्दी सहते देखकर बहुत बढ़िया आए। वे एक महात्मा की इस प्रकार सर्दी सहते देखकर बहुत बढ़िया कम्बल लेकर आए थे। स्वामीजी ने कम्बल उठाकर आए थे। स्वामीजी ने कम्बल उठाकर एक ओर रख दया, बोले-”मैं किसी धर्मात्मा व्यक्ति की वस्तुओं का उपयोग करता हूँ। अब यह अटपटी बात नहीं तो क्या है? बेचारे सेठजी हाथ जोड़े खड़े रह गए। कोई दूसरा होता तो............लेकिन फक्कड़ का कोई क्या कर लेगा?

बात यहीं रह जाती तो भी कुछ आश्चर्य न होता। सबको आश्चर्य तो तब हुआ, जब वहाँ भोला लगभग दौड़ता हुआ आया। वह भी साधु-सन्तों का बड़ा भक्त है। दो मटमैले से कई दिन के तोड़े हुए नन्हें-नन्हें अमरूद स्वामीजी के पैरों के पास रखकर वह भूमि में पूरा ही लेट गया। स्वामीजी ने झटपट अमरूद उठा लिए और इस प्रकार उनका भोग लगाने लगे जैसे कई दिनों से कुछ खाया ही न हो।

“भगत! बड़े मीठे हैं तेरे अमरूद!” वे मस्त हो रहे थे और इस प्रकार भोला से बातें करने लगें थे जैसे वहाँ और कोई न हो- “तू बड़ा धर्मात्मा हैं आज मैं रात को बड़ा धर्मात्मा है। आज मैं रात को यहीं रहना चाहता हूँ, मेरे लिए थोड़ा-सा पुआल ला दे तू।”

“महाराज! मेरे पास ताजा पुआल...............!” भोला बहुत संकुचित हो गया था, उस बेचारे के पास संकुचित हो गया था, उस बेचारे के पास ताजा पुआल कहाँ से आवे। वह कोई किसान तो है नहीं । कहीं से कुछ पुआल ले भी आया होगा तो झोंपड़ी में बिछाकर उसी पर सोता होगा।

“सेठजी। आप कष्ट न करें।” महात्माजी ने सेठजी को रोक दिया, क्योंकि वे एक नौकर को कोठी में से पुआल ले आने का आदेश दे रहे थे।

सेठजी को मना करके वे भोला से बोल-

“तू जो पुआज बिछाता है, उसमें से ही दो मुट्ठी ले आ। देख, सबकी सब मत उठा लाना।”

“यह कौन है?” सेठजी ने अपने मुनीम से, जी पास खड़ा था पूछा।”इसी की झोपड़ी है वह ।” जैसे सेठजी आकाश से जमीन पर गिरे। यह धर्मात्मा है। वे मस्तक झुकाए बहुत देर तक सोचते रहे।

तुम क्या सोचते हो? सन्त ने अब कृपा की उन पर, जो धर्म का सच्चा जिज्ञासु है। वह भूले चाहें कितनी भी करे, अन्धकार कब तक अटकाए रख सकता है उसे? सन्त कह रहे थे- “वह धर्मात्मा है या नहीं उस बात को अभी छोड़ दो! तुम धर्मात्मा हो या नहीं-यही बात सोचो”

“मुझसे जो बन पड़ता है करने का प्रयत्न करता हूँ” सेठजी का उत्तर स्वच्छ था और वे वही कह रहे थे जो जो उनकी सच्ची धारणा थी।

“यदि भोला तुम्हारे दस हजार रुपये चुरा ले........।” सेठजी चौके और भोला की ओर देखने लगे। महात्माजी ने कहा- “डरो मत! तुम्हारे रुपये सड़क पर भी पड़े हों तो वह छुएगा नहीं। मैं तो समझने की बात कर रहा हूँ कि यदि वह तुम्हारे दस हजार रुपये चुरा ले और उनमें से सौ रुपये दान करे तो वह दानी हो जायगा या नहीं।”

“चोरी के धन को दान करने से दानी कैसे होगा? वह तो चोर ही होगा।” सेठजी ने भोला की ओर देखते हुए उत्तर दिया।

“वह सौ रुपये का दान क्या कुछ फल नहीं देगा? क्या पकड़े जाने पर सरकार उसे दान करने के कारण छोड़ेगी नहीं?” सन्त ने बहुत भोलेपन से पूछा।

“दान तो उसने किया ही कहाँ? दान तो मेरे रुपयों का हुआ सौ दान का कुछ पुण्य हो तो जिसका रुपया है, उसको होना चाहिए सरकार भला क्यों छोड़ने लगी उसे”?

“अब सोचो-तुम जो बन दान करते हो, वह सब तुम्हारी ईमानदारी की कमाई का है या झूठ, छल, कपट, धोखा देकर उसे प्राप्त किया गया है?”

“तो मेरा सब दान धर्म.................।” सेठजी सहसा नहीं बोल पाए। वे कई क्षण चुप रहे और जब बोले-रुकते-रुकते, वाक्य पूरा करते अटक गए। उनकी आँखों से टप-टप बूंदें गिरने लगीं।

ऐसी नहीं! स्वामी जी की वाणी में बड़ा स्नेह और आश्वासन था- चोर ने जो रुपए चुराए हैं उन पर अनुचित रीति से ही सही, पर उसका अधिकार तो हो ही गया था। वह उन रुपयों को बुरे कर्मों में भी लगा सकता था और दान भी कर सकता था। इसलिए जब वह उनमें से कुछ दान करता है, तब दान का पुण्य तो उसे होता ही है, किन्तु चोरी के पाप से दान करके वहाँ छूट नहीं जाता। चोरी का दण्ड तो उसे भोगना ही पड़ेगा। अवश्य वह दूसरे दान न करने वाले चोरों से श्रेष्ठ है। उसे दान का पुण्यफल भी अवश्य मिलेगा।”

“यह नन्ही सी सेवा .........।” सेठजी बहुत देर सिर झुकाए चुपचाप कुछ सोचते रहे। बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर अन्त में अपने कम्बल स्वीकार करने की पुनः प्रार्थना की।

“तुम्हारी वस्तु होती ता मैं अवश्य ले लेता।” महात्मा कुछ हँसते हुए से बोले-”तुम्हारा हृदय पवित्र है भैया भगवान बड़े दयालु हैं। वे शरणागत के अपराध देखना और उस समय तुम मुझे अपनी वस्तु दे सकोगे।”

स्वामीजी की बातों का सेठजी ने क्या अर्थ लगाया? पता नहीं, किन्तु उस कम्बल को लेकर वे उनके चरणों में प्रणाम करके कोठी में लौट गये। इस लौटने के साथ ही उनका जीवन भी उलट गया।

व्यापारी कहते हैं- यह सेठ पक्का धूर्त है। इसने हम लोगों का रुपया हड़प जाने के लिए दिवाला निकाला है-बहुत बड़ी रकम दबाली है इसने। भिखारी कहते हैं-वह महान कृपण है। इसने चलते हुए अन्न क्षेत्र. बन्द करा दिये। भिखारियों की रोटी बन्द करा दिये। भिखारियों को रोटी बन्द करके धन बटोरने में लगा है।

पण्डे-पुजारी कहते है- अब वह नास्तिक हो गया है। पर्वों पर भी न तो कोई भेंट चढ़ाता है और न कथा-वार्ता ही कराता है।

सब लोग निन्दा करते हैं, सब असंतुष्ट है। सेठजी की दिवाला निकल गया है। व अब एक छोटे से भाड़े के मकान में पत्नी के साथ रहते हैं। दलाली करके किसी तरह पेट भर लेते हैं। न मोटरें हैं, न कोठी है। न नौकर है, न स्तुति करने वाले है। मन्दिरों में जो धन पहले लगा दिया। उसी से वहाँ पूजा की व्यवस्था चलती है। सेठजी अब यदा-कदा ही अपने मन्दिरों में जाते हैं। वे तो आजकल घर पर ही पूजा कर लेते हैं।

यह सब तो हुआ तो सेठजी हैं बड़े ही प्रसन्न । इतना कष्ट-क्लेश, इतना अपमान, तिरस्कार, इतना उलट-फेर जैसे कुछ हुआ ही नहीं वे कहते हैं, अब मुझे पता लगा कि सुख क्या होता है और कहाँ मिलता है? अब तक तो मैं अशान्त और दुःखी ही था।

आज फिर से वे ही स्वामी जी आये हैं उसी पीपल के पेड़ के नीचे आसन और सेठजी एक साथ आये। कहना यह चाहिए कि सेठजी भोला को देखकर आये। एक बहुत साधारण का कम्बल सेठजी ने स्वामीजी के चरणों के पास धर दिया और भूमि पर मस्तक रखा।

“अब इस वर्ष जाड़े भर मैं कम्बल ओढूँगा।” महात्माजी ने चटपट कम्बल उठाकर ओढ़ लिया। ये कृपा न करते तो मुझ जैसे का उद्धार न होता। इनके पड़ोस के कारण ही मैं गिरकर सम्भल सका। सेठजी भोला के चरण छूने झुक रहे थे।

“आप क्या कर रहे है? धर्मात्मा है। आप तो।” हक्का-बक्का सा भोला पीछे हट गया।

स्वामी रामतीर्थ इन दोनों धर्मात्माओं पर अनुग्रह की वर्षा करते हुए मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे।


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