हाय री बुद्धिमत्ता, हाय री प्रज्ञाशीलता!

June 1996

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बुद्धिमानी की कमी नहीं। उसका उपार्जन भी सरल है। स्कूलों के रूप में विभिन्न व्यवसाइयों के साथ रहकर अनुभव अर्जित करने के रूप में उसे आसानी से सरी दा जा सकता है। साँसारिक से खरीदा जा सकता है। सांसारिक जानकारियों के बले पैसा अधिक कमाया जा सकता है, लोग धाक मानते हैं और प्रशंसा भी करते हैं। मानते हैं और प्रशंसा भी करते हैं। वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर, दलाल, कलाकार आदि बुद्धिजीवी कहलाते हैं। उनकी आजीविका बुद्धिगत परिश्रम पर ही निर्भर रहती है। सेल्समैनों की चतुराई मालिकों को भी निहाल कर देती है। और अपने को कमीशन के अनुसार से मालामाल बना देती है। विभिन्न विषयों के जानकार, बुद्धिजीवी या बुद्धिमान कहलाते हैं। पढ़ाई की फीस और निजी मेहनत खर्च करके कोई भी बुद्धिमान बन सकता है।

प्रज्ञावान का रास्ता दूसरा है, उसे पढ़ा-लिखा तो होना चाहिए। अनुभवी भी और साथ ही दूरदर्शी विवेकशीलता भी उसकी अन्तरात्मा में श्रद्धा बनकर जमी होनी चाहिए। उचित और अनुचित का अन्तर करना आना चाहिए और तात्कालिक लाभ के दूरगामी परिणामों का लाभ के दूरगामी परिणामों का अनुमान खरे कामों में ही हाथ डालना होता है। समर्थन भी उन्हीं का करना होता है। समर्थन भी उन्हीं का करना होता है। समर्थन भी उन्हीं का करना होता है। और किसी को परामर्श देना हो तो भी इसी कसौटी पर कसने के लिए बाद जो खरा और सही प्रतीत हो वही नहीं प्रज्ञा का अनुशासन सर्वप्रथम अपने ऊपर लागू होता है। कष्ट सहकर भी मात्र उसी मार्ग पर चलना होता है। जो मानवी गरिमा के उपयुक्त है। जिन्हें करने के लिए अन्तरात्मा की सहमति प्राप्त है।

बुद्धिमानी के लिए ऐसे कठोर बन्धन स्वीकार करना आवश्यक नहीं। तात्कालिक लाभ ही उसके लिए सब कुछ है। इस प्रयोजन के लिए वह भला-बुरा कुछ भी कर सकती है। अन्तरात्मा का दबाव नहीं होती। यदि वह वकील है तो सर्वथा झूठे मुकदमों को भी सफल बनाने के लिए जो जान एक कर सकता है, यदि वह अफसर है तो खुद का और अपने दोस्त का फायदा कराने के लिए कुछ भी तरकीब बता सकता है। यदि वह डॉक्टर है तो संपन्न है। यदि वह डॉक्टर है तो संपन्न मरीजों को अपने घर आने का और सौदा करने का इशारा कर सकता है। इंजीनियर के लिए निर्माण कार्य में सीमेण्ट की जगह रेत भर देने में चतुरता मानी जायेगी। बुद्धिमान के सामने एक ही कसौटी है-सफलता-फिर चाहे किन्हीं भी नैतिक मूल्यों का हनन होता हो।

आज सर्वत्र बुद्धिमानी की ही प्रशंसा है, उन्हीं की आवश्यकता भी। उन्हीं की माँग सर्वत्र है। बुद्धिमत्ता पहले भी थी पर अब वही सबसे बढ़कर हो गई है। उन्हीं का शासन में प्रवेश है। वे ही मिल-कारखाने चलाते हैं। पहले दिन कारखाना खड़ा करना, दूसरे दिन कारखाना खड़ा करना, दूसरे दिन दिवाला निकाल देना और तीसरे दिन नये नाम से नई फर्म खड़ी कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। व हजार की कमाई पीछे एक रुपया निकाल कर संगमरमर का मन्दिर बनाते हैं। और गली-मुहल्लों में अपने धर्मात्मा होने का ढोल पिटवाते हैं। जय-जयकार इन्हीं की होती है। किसी सभा सोसाइटी में जाते हैं। तो उद्घाटनकर्ता चेयरमैन वे ही होते हैं और मालाओं से लद जाते हैं।

बुद्धिमान के लिए दसों दिशा खुली हुई हैं। उन पर कोई रोक-टोक खुली हुई है। उन पर कोई रोक-टोक नहीं। नियन्त्रण वे किसी का नहीं मानते। नीति-मर्यादा उन्हें बाधित नहीं करती। जिस पर कोई नियन्त्रण लागू होता हो, वह बुद्धिमान कैसा? वही जीवन मुक्त होता है, बुद्धितमा देवी की उपासना से उसे यह अभयदान मिल हुआ है। दूसरों को धर्मोपदेश देने में वह प्रवीण-पारंगत है। इतने भर से यह आवश्यकता पूरी हो जाती है। कि उन शिक्षाओं को अपने पास तक नहीं फटकने दे।

प्रज्ञावान बहुत करके घाटे के काम करते हैं। गान्धी, बुद्ध विवेकानन्द, सुभाष की तरह अपनी योग्यता के बल पर नहीं के बराबर कमा पाते हैं, पर उनकी उच्चस्तरीय सफलता अन्ततः उन्हें कृत-कृत्य बना देती है। शंकराचार्य और चाणक्य यदि अपनी विद्या के बल पर कहीं अच्छा कमा लेते । अरविन्द को अच्छा वेतन मिल जाता, पर वे भटकते ही रहे, किन्तु उनकी भटकन भी इतनी मूल्यवान नहीं जिस पर अशर्फियाँ निछावर की जा सकती है।

प्रज्ञा की आँखें न सफलता पर रुकती हैं न सम्पन्नता पर। लाभ के अवसर चुकाते रहने वर वे मूर्खता भी होती इतनी शानदार है कि उसकी तुलना में बुद्धिमत्ता तराजू के पासंग जितनी भी नहीं रहती। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने अपनी अपेक्षा तरक्की के अवसर दूसरों को दिला दिये। जो कमाते थे उसमें से चौथाई में परिवार का गुजारा चलाते थे, शेष जरूरतमंद विद्यार्थियों की शिक्षा रुकने न देने के लिए खर्च कर देते थे। देते थे। ऐसे होते हैं प्रज्ञावान।

यह विश्व-वसुधा प्रज्ञावानों से कृत-कृत्य हुई है। उन्हीं ने संकटग्रस्त मनुष्यता को दलदल में से खींचकर किनारे पर लगाया है। समय की उलझनों को सुलझा सकने का श्रेय प्राप्त किया है। आत्म सन्तोष निरन्तर अनुभव करते रहे हैं। लोक सम्मान और सहयोग उन पर लदा रहा है और दैवी अनुग्रह की आकाश पुष्य वर्षों होती रही है। इतना पाकर बुद्धिमानी की तुलना कम समृद्धिशाली रहना उन्हें अखरा नहीं है।

बुद्धिमानों की बस्ती ढूंढ़नी हो तो वे हर नगर में जेलखानों को जाकर देख सकते हैं। उसमें एक से एक से एक बढ़कर चतुर लोग बन्द पाये जायेंगे। ठगी, लूट, हत्या जैसे अपराध कर सकना हर किसी का काम नहीं है। साधारण व्यक्ति काम कैसे माना जा सकता है? डाकू ओर हत्यारे बुद्धिमानी की कसौटी पर ऊँचे नम्बर ही पा सकते। पकड़े तो उनमें से सौ पीछे कोई एक जाता है अन्यथा ,खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालो से लेकर नकली दवाओं पर असली का लेबल लगाकर बेचने वाले बुद्धिमानों की संख्या कम नहीं है। टैक्स चुराने वाले और काला धन पाखानों के झरोखों में बन्द करके रख लेने वालों की चतुरता इतनी अधिक है, जितने आकाश में तारे।

बुद्धितत्त्व और प्रज्ञा का अन्तर सभी जानते हैं। उनमें एक आरम्भ में सभी जानते हैं। उनमें एक आरम्भ में फलती है, दूसरी अन्त में। एक को हथेली पर जाने वाली जादूगरों की सरसों कहा जा सकता है और दूसरी को मीठे आमों की बगीची लगाने के लिए धैर्य, साहस और दूरदर्शिता भी चाहिए। उसकी आमदनी पीढ़ियों तक मीठे फलों का रसास्वादन कराती और गुजारे लायक आमदनी देती रहती है। किन्तु बाजीगर द्वारा हथेली पर जमाई गई सरसों का तेल कितनों ने शरीर पर मला और बालों में लगाया है, यह ठीक से नहीं कहा जा सकता।

कोई समय था जब इस देश में प्रज्ञावान देव मानव रहते थे और अपनी गतिविधियों से न केवल इस भारत भूमि को वरन् समूचे संसार को धन्य बनाते थे। तब प्रताप ओर शिवाजी जैसे बलिदानी, व्रतशीलों की कमी नहीं थी। भामाशाह, हर्षवर्धन, अंशों जैसे सत्प्रयोजनों के लिए अपनी जेबें पूरी तरह खाली कर देने वालों का वह समय चला गया आज तो हर जगह बुद्धिमानी का बोलबाला हैं वह अपने पास न हो तो कहीं से भी पैसा देकर खरीदी जा सकती है। प्रज्ञाशीलता। तुम्हारा समय कितना बदल गया? कब आएगा वह समय जब प्रज्ञा बुद्धि से अधिक श्रेष्ठ व वरेण्य मानी जायगी? सम्भवतः यह संक्रान्तिकाल है ही प्रज्ञावानों के जागरण है ही प्रज्ञावानों के जागरण हेतु। इसी आशा पर तो हम सबकी आस्थाएं जीवित हैं।


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