भय एक रोग, पाएँ इससे मुक्ति

November 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भय एक मानसिक रोग है जो अच्छे-भले विचार -तन्त्र को लड़खड़ा कर ख देता हैं मनोवैज्ञानिक इसको जीवन की सहज प्रवृत्ति मानते हैं अनुशासन सुव्यवस्था, नियम, आदि पालन के लिए भी इस की अपनी उपयोगिता हैं तथा जीवन की सुरक्षा, बचाव, सावधानी के लिए भी इस तक सहनीय और उपयोगी भले ही हो, किन्तु सदैव डरते सहमे रहना, ही हो किन्तु सदैव डरते सहमे रहना, मूढ़ता जड़ता, संताप और आतंक पैदा करना ठीक नहीं है इससे भीरुता ही नहीं पैदा होती मनोबल भी क्षीण होता है। अधीरता, बेचैनी, व्याकुलता तथा अस्थिरता की मनः स्थिति पैदा होती हैं तथा कुकल्पनाएँ का जाल-जंजाल बुनकर मनुष्य अपने चिन्तन को ही नहीं बिगाड़ लेता वरन् स्वास्थ्य पर भी बिगाड़ लेता वरन् स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जितने व्यक्ति बीमारी से डरते है उससे कहीं अधिक डर और अकरण चिन्ता तथा थोथी कल्पनाओं के कारण मर जाते हैं कितने ही व्यक्तियों को बीमारी में विश्राम दृढ़ हो जाता है कि वे अब न बचेंगे और हर घड़ी मृत्यु के बारे में सोचते रहते है अथवा ज्योतिषी, सयानों, ओझाओं के कथन पर विश्वास कर लेते हैं बैठते हैं! भयभीत मनः स्थिति में रस्सी का सौंप और झाड़ी का भूत दिखाई देने की बात व्यर्थ नहीं है। क्योंकि उस समय विचार तंत्र लगभग लुँज-पुँज स्थिति में रहा होता हैं फ्रांस में एक व्यक्ति को मृत्यु-दण्ड की सजा सुनाई ही गई डॉक्टरों ने प्रयोग के लिए ऐसे व्यक्ति को चुना।

घबराया हुआ व्यक्ति लाया गया और मेज़ पर सुला दिया गया। और गरदन के पास एक सुई चुभो दी गई और गरदन के पास ही एक नली लगाकर पानी की बूँदें गिराना प्रारम्भ कर दिया। टप-टप की आवाज सुनकर लेटा व्यक्ति यही बराबर टपक रहा है। डॉक्टर भी उसे यही बतलाते रहे कि खून अब काफी निकल चुका है वह अब मरने ही वाला है किन्तु वास्तविकता तो यह था कि खून दस पाँच बूँद ही निकला था कि खून दस पाँच बूँद ही निकला था और थोड़ी ही देर में भय के कारण वास्तव में वह व्यक्ति मर गया।

ऐसी ही घटना एक और है जिसमें भय के कारण व्यक्ति की तुरन्त मृत्यु हो गई। एक बार एक व्यक्ति को साँव ने डस लिया। किन्तु उस समय वह समझता रहा कि शायद कुछ चुभ गया है वह अपने काम में लगा रहा किन्तु उस का साथी देख रहा था कि उसे साँप ने डसा है। उस समय उसने साथी की कुछ नहीं बताया।

एक माह बाद जब दोनों मिले तो उस के साथी ने पूछा कि तुम अभी भी स्वस्थ हो। तुम्हें कुछ नहीं हुआ उस दिन मेरे समक्ष ही तो तुम्हें साँप ने डसा था। इतना कहना कि भय के कारण वह व्यक्ति प्राण गँवा बैठा। इसी प्रकार अनेकों मौतें जाने अनजाने में भय और आतंक के कारण होती रहती हैं अज्ञानी अशिक्षित, बहमी, शंकालु और ही विवेक पूर्ण निर्णय लेने लें, परिस्थितियों को आँकलन करने में सक्षम नहीं होते। और भ्रमवश काल के गोल में अकारण चले जाते है। अथवा अपने स्वास्थ्य की बहुत बड़ी हानिकर लेते है। चिन्ता, कुकल्पना, से बुद्धि अस्थिर और निर्णायक शक्ति क्षीण हो जाती है काल्पनिक भय का मन और शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं

भय के कारण अनेकों व्यक्ति ऐसे ही मर जाते हैं, जिन्हें यथार्थ में कोई रोग नहीं होता। प्राण चिकित्सा विज्ञानियों ने इस संदर्भ में गहन खोजें की है। एक घटना के अनुसार स्विट्जरलैंड के एक अस्पताल में एक व्यक्ति लाया गया जिसे बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। साथ के लोगों ने बताया कि इसे साँप ने काटा हैं डॉक्टरों ने परीक्षण किया। किन्तु उसके शरीर में विष के अथवा सर्प दंश के कोई चिन्ह नहीं पाए गये। घबराहट और डर के कारण ही उसकी बेहोशी इतनी गहराती चली गई कि गहन चिकित्सा उपचार करने पर भी उसे बचाया न जा सका। इसी प्रकार एक बेहोश रोगी को लाया गया कि दवा गलत नहीं थी मात्र दवा की बोतल पर जहर का लेबल गलती से चिपका हुआ था।

इसी तरह अस्पताल विचित्र मरीज को लाया गया जिसे कुहराम मचा रक्खा था उसे पेट दर्द की शिकायत थी। वह पीड़ा से छटपटा रहा था। उसने बताया कि सोते समय वह अपने चार नकली दाँत निकलना भूल गया और गली से साँस के साथ वे पेट में चले गये।

डॉक्टर आपरेशन की तैयारी में व्यस्त थे। रोगी के कपड़े उतारे जाने लगें नर्स ने देखा कि उसके नकली दाँत तो कोट की जेब में रक्खे हैं रोगी को बताया गया तो व केवल उसका दर्द शान्त हुआ वरन् वह झेंप कर अस्पताल से उठकर चला गया।

मनोचिकित्सकों का कथन सही है कि रोग शरीर की मल निष्कासन की तरह स्वाभाविक प्रक्रिया हैं किन्तु कितने ही अपरिपक्व मनः स्थिति के लोग इतने बुरी तर लड़खड़ा. जाती है। और और रोग घटाने के बजाय बढ़ता जाता हैं हड़बड़ाहट में इतनी दवाएँ खा जाते है कि जितना भयंकर रोग नहीं होता, इससे लाभ के स्थान पर उलटी हानि उठानी पड़ती है। भय के कारण शरीर के अन्दर की प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है मस्तिष्क का नियंत्रण, उदर की पाचन-प्रक्रिया और हृदय की धड़कन भी प्रभावित होने लगती है। माँस-पेशियों में साधारण से अधिक असन्तुलन पैदा होता है विचार प्रणाली लड़खड़ाने पर खास गति में भी बाधा उत्पन्न होती है। कितने ही भय बड़े काल्पनिक होते हैं, किन्तु फिर भी उनकी प्रतिक्रिया शरीर पर होती अवश्य है। अभाव, बीमारी, जरावस्था, असफलता की कल्पना, कुकल्पनाएँ की उधेड़-बुन में जिनका, कुकल्पनाओं की उधेड़बुन में जिनका समय व्यतीत होता है, उन्हें भली प्रकार जानना चाहिए कि काल्पनिक भय की प्रतिक्रिया का शरीर और मन पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

भय के संस्कार प्रायः बाल्यकाल से ही जम जाते हैं इन्हें छुड़ाने अथवा स्थाई ने बनने देने के लिए प्रयास आरम्भ से ही किया जाना चाहिए। अंधकार का भय, अथवा भूत, पलीत, डाकिन, शाकिन से बच्चों को नहीं डराना चाहिए बालकों की मनोभूमि अच्छी होने, समझ अपरिपक्व होने के कारण भय के संस्कार बीज बड़ी शीघ्रता से जमने के बाद फिर आजीवन उन्हें उखाड़ा जाना सम्भव नहीं हो पता है। इन्हीं विश्वासों के आधार पर बालक का व्यक्तित्व ढलना, विकसित होता हैं समाज में अन्ध विश्वासों, रूढ़ियों का ही अधिक प्रचलन हैं। अतः चारों ओर से इनकी पुष्टि होने से भय के संस्कार और भी सुदृढ़ हो जाते है उनसे स्वयं छुटकारा पाया और अन्यान्यों को दिलाया जाय।

भय केवल एक निषेधात्मक अनुभूति हैं नकारात्मक चिन्तन, कुकल्पनाओं, से इस बढ़ावा मिलता है। उज्ज्वल, भविष्य की कल्पना करने, उसके सरंजाम जुटाने में जो परिश्रमी संलग्न रहते हैं उन्हें ऐसी कुकल्पना करने की फुरसत नहीं होती। अतः अपने लिए न सही दूसरों के लिए ही कुछ करते रहने का अभ्यास बनाना चाहिए। दूरदर्शी विवेक शीलता अपनाकर भय से मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118