सदाचारी भक्त की शक्ति

November 1995

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धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध की प्रथा के अनुसार विश्व विजय के लिए घोड़ा छोड़ा गया। उसके पीछे महाबली अर्जुन पीछे चले। अकेले अर्जुन का नाम ही आर्यावर्त के वीरों को कंप देने के लिए पर्याप्त था। महाभारत के युद्ध ने पाण्डवों की यश पताका समूचे भूमण्डल में फहरा दी थी।

पाण्डव एक महाशक्ति का प्रतीक बन चुके थे। पाण्डव अर्थात् प्रतीक बन चुके थी। पाण्डव अर्थात् भीष्म, दानवीर कर्ण जैसे अति बली योद्धाओं को पराभव देने वाले पाण्डव। वे पाण्डव जिनकी वीरता और कौशल की कहानियाँ घर-घर कही सुनी जाने लगी थी। आज उन्हीं विजयी पाण्डवों का अश्व वसुन्धरा की परिक्रमा करने निकला था।

अश्व जिस ओर से निकलता उधर के राज राजेश्वर बहुमूल्य उपहार सेना के अधिनायक को अर्पित कर धर्मराज युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर लेते। जिस किसी ने घोड़े को पकड़ने का साहस भी किया, गाण्डीव की टंकार ने उसकी वीरता के छक्के छुड़ा दिये।

वनों-पर्वतों को अपनी रण भेदी से गुँजायमान करती पाण्डवों की सेना अर्जुन के नायकत्व में बढ़ी चली जा रही थी। घोड़ा विन्ध्याचल को पार कर चम्पापुरी में प्रविष्ट हुआ। चम्पापुरी में महाराज हंसध्वज राज्य करते थे। यों चम्पापुरी राज्य क्षेत्रफल की दृष्टि से बहुत बड़ा था। पर सद्गुणों की दृष्टि से उसके उत्कर्ष की गाथाओं से सारा भुवन परिचित था। यथा राजा प्रजा की कहावत यहाँ शत-प्रतिशत चरितार्थ होती है। महाराज हंसध्वज संयमी प्रजापालक, उदार, सहिष्णु होने के साथ अद्वितीय शूर भी थे। चम्पापुरी के नागरिक अपने प्रजावत्सल महाराज के संरक्षण में सर्वथा सन्तुष्ट और प्रसन्न थे। उन्हें अपनी स्वतन्त्रता प्राणों से बढ़ कर प्यारी थी।

महाराज हंसध्वज को साम्राज्य के विस्तार में कोई अभिरुचि न थी, लेकिन उन्हें अपनी स्वतन्त्रता को गँवाना भी प्रिय न था। उन्होंने अपने पुत्र सुधन्वा को घोड़ा पकड़ने की आज्ञा दे दी। सुधन्वा केवल महाराज के पुत्र ही नहीं थे, एक रणबांकुरे योद्धा भी थे।

उनके सदाचार और रण कौशल पर समूची चम्पापुरी को विश्वास अब तक के स्वल्प जीवन में वह अग्नि परीक्षाओं में से सफलता पूर्वक गुजर चुके थे। बड़े-बड़े वीरों को इस अठारह वर्षीय युवराज के सम्मुख मुँह की खानी पड़ी तभी तो मंत्रिमंडल समेत महाराज से हंस ध्वज ने उन्हें सर्वसम्मति चम्पापुरी की चतुरंगिणी वाहिनी की सेनापति बनाया था।

सेनापति ने अपने महाराज की आज्ञा के अनुसार घोड़े को बन्दी बना लिया। अब तक वे अनेकों युद्धों में सफलता प्राप्त कर चुके। थे। लेकिन आज भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर वीरवर अर्जुन से मुकाबला था। वे अर्जुन से मुकाबला था। वे अर्जुन जिनके रथ की बागडोर परमात्मा का अवतार कहे जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण सँभालते थे।

रण क्षेत्र में उतरने से पूर्व सुधन्वा अपनी पत्नी प्रभावती से मिलने सुधन्वा अपनी पत्नी प्रभावती से मिलने गए। वीर वेश में पति को समाने खड़ा देखकर वीरबाला प्रभावती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने कहा देव! शत्रु से संघर्ष करना ही हम क्षत्रियों का धर्म है, संघर्ष न करे तो सारा संसार अपनी हर अच्छी बुरी इच्छा मनवाने का दुस्साहस करने लगता है।

किन्तु.................................। कहकर प्रभावती चुप हो गयी। सुधन्वा ने पूछा- प्रियतमा। कहो, रुक क्यों गयी? आकांक्षाओं को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की थी, वह मुझे याद है तुम्हारी किसी भी कामना को पूर्ण करना, मैं अपना धर्म समझता हूँ।

स्वामिन! पति के इस अनुरोध पर प्रभावती विनम्र भाव से कहने लगी-’ आज तक अपने विवाहित होकर भी ब्रह्मचर्य मर्यादाओं का पालन किया है। मैं उससे सन्तुष्ट ही रही हूँ। आप युद्ध में जो रहे हैं युद्ध में हमेशा विजय ही नहीं होती पराजय और मृत्यु की संभावनाएँ भी स्वाभाविक होती हैं यदि आपको कुछ हो गया तो मुझे निःसन्तान रहना पड़ेगा। एकाकी जीवन काटना नारी के लिए कठिन हैं। आज काटना नारी के लिए कठिन हैं आज मेरे रजस्वला होने का 16 वाँ दिन हैं आप युद्ध प्रातः काल प्रारम्भ करते तो महान कृपा होती।

सुधन्वा ने पत्नी का अनुरोध स्वीकार कर लिया। प्रजा अस्थिर थी, किन्तु सुधन्वा को किंचित् मात्र भी असंतोष न था। एक सद्गृहस्थ की भाँति उन्होंने गृहस्थ धर्म का पालन हँसी-खुशी के साथ किया।

प्रातः काल होते ही वीरवर सुधन्वा रण भूमि में आ डटे। उनका रथ अर्जुन के रथ के सामने आ गया शंख ध्वनि, हुई और दोनों सेनाओं में बाण वर्षा होने लगी, सुधन्वा के साथ वारण वर्षा होने लगी। सुधन्वा के साथ सुमित, तुष्ट, श्रद्वालू, सुबल, सुरथ आदि अतिरथी योद्धा युद्धरत थे। तो अर्जुन की ओर से सारथी भगवान श्रीकृष्ण और वृषकेतु, प्रद्युम्न, अनुशाल्व, और कृतवर्मा आदि योद्धा युद्ध में भाग ले रहे थे। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। युद्ध के प्रथम में भाग हो गया। कि वय में किशोर होने के बावजूद सुधन्वा रण कौशल में भीष्म और कर्ण से किंचित् भी न्यून नहीं हैं

आज युद्ध का अन्तिम दिन था सुधन्वा और अर्जुन दोनों आमने सामने विजय की आकांक्षा से शस्त्र प्रहार कर रहे थे। सुधन्वा के बाणों के आगे अर्जुन ने क्रोध करके प्रतिज्ञा की “यदि मैंने तीन बाणों से सुधन्वा का सिर न काट दिया तो फिर सुधन्वा का सिर न काट दिया तो फिर भी शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर सुधन्वा ने भी शपथ ली-यदि मैंने अर्जुन के तीनों बाण न काट दिए तो युद्ध में हार मानकर चला जाऊँगा।

अर्जुन को विश्वास था, भगवान कृष्ण उनके साथ हैं, जो जयद्रथ वध कृष्ण उनके साथ है, जो जयद्रथ वध की तरह प्रतिज्ञा तो पूरी होगी ही। सुधन्वा को अपने पर आत्मविश्वास था-मैंने जीवन में कभी कलुषित कर्म नहीं किया। कभी झूठ नहीं बोला, इसलिए मेरी आत्मा की आवाज कभी असत्य नहीं हो सकती। यों प्रतिज्ञाएँ अर्जुन और सुधन्वा ने की थी, पर वस्तुतः टक्कर ईश्वर और सदाचार के बीच थी। भगवान को ही निर्णय करना था कि विजय सदाचारी की होती है अथवा भगवान के कृपा पात्र की।

युद्ध फिर प्रारम्भ हुआ-अन्तिम और निर्णायक युद्ध। अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाया और प्रत्यंचा कानों तक खींची। भगवान कृष्णा ने कहा मैंने गोवर्धन लेकर इन्द्र के कोप से गाय और गोपालों की रक्षा की है, उसका जो पुण्य हुआ हो, वह मैं अर्जुन के बाण में जोड़ता हूँ। अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हो।

सुधन्वा भी उसी समय गर्जकर बोला-दिशाओं यदि मैंने जीवन में एक पत्नीव्रत का पालन किया हो। भूलकर किसी पराई स्त्री को कुदृष्टि से न देखा तो तो मेरा यह बाण अर्जुन के बाण को मध्य में की काट दे। यह कह कर उसने भी धनुष चढ़ाकर बाण छोड़ दिया। दोनों बाण एक साथ छूटे और सबने देखा कि अर्जुन का शक्तिशाली बाण सुधन्वा के बाण से बीच में ही कटकर चूर-चूर हो गया। सुधन्वा का बाल भी बाँका न हुआ।

अर्जुन ने दूसरा बाण चढ़ाया और पुनः उसे कान तक खींचा। भगवान कृष्णा ने पुनः शक्ति दी और कहा ऐरावत हाथी को ग्राह के चंगुल से बचाते समय, द्रौपदी को दुर्योधन द्वारा चीर हरण के समय बचाने से और प्रहलाद को हिरण्यकश्यप से रक्षा करने से मुझे जो पुण्य प्राप्त हुआ था, वह पुण्य अर्जुन के इस बाण में जोड़ता हूँ।

उधर अर्जुन को धनुष तानते हुए देखकर सुधन्वा ने भी धनुष पर बाण चढ़ाया और बोल-युवराज होकर भी ग्रहण न किया, हो, प्राप्त धनराशि को केवल प्रजा के ही हित में लगाया हो तो यह मेरा के ही हित में लगाया हो तो यह मेरा तीक्ष्ण बाण अर्जुन के बाण को काट डाले। यह कह कर सुधन्वा ने अर्जुन के साथ ही बाण छोड़ दिया। दोनों बाण युद्धस्थल में टकराये और अर्जुन का बाण निरस्त होकर वही कट गिरा।

अन्तिम बाण आखिरी शक्ति लगाकर अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र शर का सन्धान किया धनुष पर बाण चढ़ाते ही सागर खौल उठे, दिशाएँ तेजहीन हो गयी, समूची प्रकृति में मानों एक भूकम्प आ गया हो। इस अमित तेजस्वी बाण को आसुरी शक्तियों से बचाने के लिए मैंने अनेकों बार मनुष्य शरीर धारण किया है। मैंने अपनी सारी शक्ति लोक कल्याण में ही लगायी है, उससे जो कुछ पुण्य हुआ हो, वह सब अर्जुन के इस तीसरे बाण में लग जाए।

उधर सुधन्वा ने आकाश की ओर देखा और कहा है तारागणों! तुम साक्षी हो एक सामान्य व्यक्ति होकर भी यदि मैं सम्पूर्ण जीवन अपने धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा में लगा रहा होऊँ तो अर्जुन का यह तीसरा बाण भी नष्ट हो जाए,। यह तीसरा बाण भी नष्ट हो जाए। यह कहकर उसने भी नष्ट हो जाए। यह तीसरा बाण छोड़ा और उसने अर्जुन के तीसरे बाण की भी काट कर रख दिया।

ब्रह्मास्त्र के कट कर गिरते ही दिशाएँ स्वच्छ हो गयी। अस्थिर प्रकृति पुनः स्थिर होने लगी। अर्जुन ने की ओर दोनों एक दूसरे का मुख ताकते खड़े थे और आकाश से देवतागण सुधन्वा सदाचार की इस विजय पर सारी चम्पापुरी हर्ष मना रही थी और पाण्डवों की सेना इस द्विविधा में पड़ी खड़ी थी कि युद्ध को यहीं विश्राम दे दिया जाय अथवा उसे आगे भी प्रारम्भ रखा जाय। आगे की कथा सभी जानते है।


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