सृजन शिल्पियों के लिए आचार-संहिता

November 1995

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इमारतों का सृजन सीधा-सादा सा होता है। पुल, सड़कों, बाँधों का निर्माण निर्धारित नक्शे के आधार पर चलता रहता है। पर युगों के नव सृजन ने अनेकानेक पेचीदगियाँ और कठिनाईयाँ आ उठतीं है। कार्य का स्वरूप ही ऐसा है, जिसमें प्रवाह के उलटने के प्रयास, जूझने की विद्या ही प्रमुख बन जाती है। विचारक्रांति, युग-परिवर्तन जनमानस का परिष्कार ऐसे संकल्प है, जिनकी पूर्ति में प्रायः उन सभी से टकराना पड़ता है, जो अब तक स्वजन, सम्बन्धी, हितैषी, निकटवर्ती एवं अपने प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत माने जाते थे। इसमें मार-काट न होने पर भी इसे भूतकाल में सम्पन्न हुए महाभारत के समतुल्य माना जा सकता है, भले ही उस टकराहट को दृश्य रूप में न देखा जा सकता हो।

अभिमन्यु चक्रव्यूह में अकेला ही घिरा पड़ा था, सब दिशाएँ शत्रुओं से अवरुद्ध थीं। ऐसी दशा में भी अर्जुन पुत्र ने समय की महती आवश्यकता और न्याय-नीति को विजयी बनाने की ललक में वह सब कुछ या, जो उसके बलबूते में था। इस संदर्भ में उसे प्राण गँवाने पड़े, पर विजय दुन्दुभी इतिहासकार अनन्त काल तक उसी के यशगान की बजाते रहेंगे। इसी स्तर का साहस उन्हें भी अर्जित करना पड़ेगा, जो अवांछनीयता, मूढ-मान्यता लोभ-लिप्सा संकीर्ण-स्वार्थपरता और निकृष्टता के व्यामोह को चीर कर नवसृजन का मार्ग बनाना चाहें।

तथ्यों का पर्यवेक्षण अपने आप से आरम्भ करें। जन्म-जन्मान्तरों के संचित पैशाचिक स्तर के कुसंस्कार, निकटवर्ती क्षेत्र में अधिकाँश लोगों द्वारा अपनाये गए अनाचारियों के प्रभाव में आकर बहुत कठोर हो जाते हैं, उन्हें अपनाई गई हठवादिता से विरत करना, आदर्शवादी परामर्शों के आधार पर भी टेढ़ी खीर हो जाता है। जब अधिकाँश लोग पैसा और वाह-वाही लूटने के अतिरिक्त और कोई तीसरी बात सोचते ही नहीं, तो हमें एकाकी दिशा-निर्धारण की बात सोचकर प्रस्तुत समुदाय के सामने क्यों उपहासास्पद बनना चाहिए? यह प्रश्न पूछती है, वह तथाकथित समझदारी, जो आम लोगों पर पूरी तरह हावी है।

आदर्शों की बात कहने-सुनने भर की बात समझी जाती है। कथा कहने, सुनने भर से स्वर्ग-मुक्ति मिल जाने वाली मान्यता ही सरल मालूम पड़ती है। कठोर कार्य के साथ सम्बन्ध जोड़ने से भी घबराते और काँपते देखे जाते है। फिर अपना मार्ग एकाकी निश्चय के आधार पर किस प्रकार अपनाते बने? ‘एकला चलो रे’ गीत गाने भर से तो उत्साहवर्धक प्रतीत होता है, पर उसे कर दिखाने में नानी याद आती है। अपने निज के कुसंस्कार ही लोभ, मोह और अहंकार के हथकड़ी-बेड़ी जैसे बन्धन बनकर कस जाते है। वे यथा-स्थिति पड़े रहने के लिए ही बाधित करते हैं।

इन बन्धनों को तोड़ न भी सकें, तो उन्हें कम से कम शिथिल तो करना ही पड़ता है। अन्यथा न संकल्प उभरता है और न ऐसा प्रयास करते बन पड़ता है, जिसके सहारे नव-सृजन के संदर्भ में कुछ कहने लायक पराक्रम करते बन पड़े? प्रथम कठिनाई यह कूपमण्डूकता बनाये रहने वाली स्थिति ही है। उछल कर सुविस्तृत विश्व-वसुधा के साथ जुड़ जाने की योजना तक गले नहीं उतरती, फिर उस स्तर का पराक्रम करते किस प्रकार बन पड़े? उदात्त जीवन जीने और ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचने वाले मार्ग पर कदम बढ़ाने की बात कैसे बने? जब समूचा समय और साधना अभ्यस्त विडम्बना में ही खप जाते हैं, तो वह कैसे करते बन पड़े, जिसके लिए महाकाल का आमंत्रण हुँकारने और युगधर्म को अपनाने के लिए अन्तरात्मा में दबाव डालता है। जो अपने भीतरी असमंजस से निपट लेता है, अपनी राह आप बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, उसी के लिए यह सम्भव है कि “क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं, त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप” वाले गीता-प्रवचन को जीवन में उतार सके।

यह प्रथम मोर्चे पर जूझने की बात हुई। इससे बिलकुल सटा हुआ ही दूसरा मोर्चा है, जिसे सम्बन्धियों-हितैषियों का परिकर कह सकते हैं धर्म-धारणा और सेवा-साधना के लिए सब कुछ करने पर उतारू व्यक्ति, इन दिनों अपने तथाकथित स्वजनों को ही सर्वाधिक विरोधी पाता है। आज के वातावरण में हर किसी को सम्पन्नता और विलासिता की सुविधाएँ ही सब कुछ प्रतीत होती है। वे अपनी मान्यता के अनुरूप एक ही परामर्श दे सकते हैं कि परमार्थ की कष्ट-साध्य प्रक्रिया से व्यवहारतः कोसों दूर रहना ही लाभदायक है।

उनकी बात, जो जिस हद तक स्वीकार कर लेता है, उसे उसी सीमा तक स्वार्थरत रहना पड़ता है। परमार्थ की दिशा में आगे बढ़ना उसके लिए उतना ही कठिन हो जाता है। कोई वास्तविक कारण न होते हुए तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का इतना बड़ा जखीरा सामने ला खड़ा किया जाता है कि पिछले दिनों की मित्रता को ध्यान में रखते हुए वह कथन-परामर्श ही अभेद्य दीवार बनकर रह जाती है। स्वार्थ में पिंजड़े से बाहर एक कदम भी रहना उस स्थिति में सहन नहीं होता।

इस दूसरे मोर्चे से निपट सकने का अंगुलि-निर्देश तुलसीदास के उस पत्र से ही मिलता है, जो उन्होंने मीरा को उनके पत्र में उत्तर में लिखा था। उसमें कहा गया था कि :-

जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिये ताहि कोटि वैरिसम, यद्यपि परम स्नेही॥ पिता तज्यो प्रवाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज वनितन भये मुद मंगलकारी॥

इस निर्देशन में मीरा ने अपना और समस्त समाज का भला देखा और सभी असमंजसों को निरस्त करते हुए, वे आदर्शवादी को नये सिरे से प्रतिष्ठापित करने के लिए निकल पड़ी और बदली जैसी अमृत वर्षा करने में जीवन भर निरत रहीं।

तीसरा मोर्चा उस समुदाय के साथ बनता है, जिन्हें अचिन्त्य-चिंतन से, अनुचित गति-विधियों से पीछे हटने का परामर्श दिया जाता है। वे भी इतने भले कहाँ होते हैं कि भ्रांतियों के विपरीत जो श्रेयस्कर अनुरोध किया जा रहा है, उसे सहज स्वीकार कर लें। पूर्वाग्रहों से जकड़ी मान्यताएँ और आदतें, वह कुछ भी सुनना-स्वीकारना नहीं चाहती, जो अभ्यास में गहराई तक घुसकर बैठ गया है। परामर्श कितना ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, पर नशेबाज के गले वह शिक्षा कहाँ उतरती है कि इस आत्मघाती कुटेव से विरत होने में ही भलाई है। वह परामर्शदाता से तर्क से जीत सकने की संभावना देखते हुए कभी-कभी हाँ-हाँ भी कर देता है। पर वह आश्वासन बहकावा भर होता है। नशेबाजी छोड़ने का न उसका मन बनता है और न वैसा साहस उभरता है। ठीक ऐसी ही कठिनाई तब सामने आती है, जब पैर से सिर तक कीचड़ में धँसे हुए लोगों को अपनी स्थिति बदल लेने के लिए कहा जाता है। दुर्बुद्धि ऐसी पिशाचिनी है कि वह जिसे एक बार पकड़ लेती है, उसे आसानी से चंगुल में से छूटने नहीं देती।

इतना होते हुए युग सृजेताओं के सामने इसके अलावा कोई चारा भी नहीं कि वे अचिन्त्य चिंतन से लोगों को छुड़ायें और कुमार्ग पर चलने से लौटाने का प्रयास करें। यह कार्य प्रत्यक्षतः झंझट भरा है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने प्रतिवेदन का औचित्य तो अकाट्य सिद्ध किये किया जा सकता है। पर उस हठवादिता के लिए क्या किया जाए, जो आम आदमी पर विशेषतया अनगढ़ वर्ग पर पूरी तरह सवार रहती देखी जाती है। ऐसी दशा में उपदेष्टाओं का परामर्श भी अरण्य-रोदन बनकर रह जाता है। बहुतों को बहुत बातें समझाते रहने पर भी लोग आदर्शों की ओर मुड़ने को तैयार नहीं है। लाभ को हानि, और हानि को लाभ समझने की दृष्टि, जो उनकी परिपक्व हो गई होती है।

सृजन शिल्पी के करने के लिए काम तो अनेकों सामने ही हैं। पर सबसे बड़ा कार्य एक ही होता है, प्रवाह को प्रतिबंध प्रचलन को अमान्य कर सकने वाले लोकमानस का नव सृजन करना। प्रतिकूलताओं को अनुकूल स्तर की बनाकर दिखाना। युग शिल्पियों को प्रधानतया इस एक ही प्रयत्न में आजीवन निरत रहना पड़ता है। भले ही प्रत्यक्ष क्रिया−कलाप परिस्थिति के अनुरूप बदल जाते हों। जब करना यही है, उसका कोई विकल्प हो नहीं सकता, तो नये सिरे से नया निर्धारण करने और नये हथियार सजाने के लिए कुछ समय वस्तुस्थिति को समझने और उपयुक्त समाधान खोज निकालने की आवश्यकता पड़ेगी।

बड़े काम हलके साधना के सहारे सम्पन्न नहीं हो पाते। उनके लिए अधिक समर्थ साधन जुटाने होते है। बन्दूकों के दाँत खट्टे करने के लिए तोप के गोलों का प्रहार ही विकल्प रहता है। मजदूरों द्वारा न उठ सकने वाले भार को मजबूत क्रेनें उठाती हैं। जिन चट्टानों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता। उन्हें डायनामाइट के कारतूसों से उड़ाना पड़ता है या हीरे के टुकड़े वाले औजारों से छेदना पड़ता है। बड़ी समस्याओं को बड़प्पन की अनेक विशेषताओं से सम्पन्न मस्तिष्क ही सुलझा पाते है।

युग शिल्पी को अपने व्यवहार में दो अन्य बातों का समावेश करना चाहिए, जो देखने में साधारण मालूम पड़ती है, पर ऊर्जा प्रतिक्रिया असाधारण स्तर की होती है। उनमें से एक है सार्वजनिक पैसे को अत्यंत पवित्र धरोहर मानकर उसकी एक-एक पाई का इतनी सावधानी से प्रयोग करना कि जाँच करने वाले को इसमें कहीं खोट दिखायी न पड़े। साथ ही अपनी अन्तरात्मा और सर्वसाधारण को यह विश्वास बना रहे कि दान के पैसे में कही किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। जिसके भी हाथ में वह धन रहा, उसने संतों निस्पृहता का परिचय दिया है-लोकसेवी द्वारा प्रामाणिकता की दृष्टि से इस प्रसंग में सतर्कता बरती ही जानी चाहिए।

दूसरा प्रसंग है-नर और नारी के मध्यवर्ती संबंधों का। सार्वजनिक क्षेत्र में नर और नारी मिल−जुलकर ही सामूहिक कार्यक्रमों और आयोजनों को सम्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में इस आशंका की गुँजाइश रहती है कि कहीं अनैतिक चिंतन और आचरण आड़े न आने लगा हो। भावनाओं की पवित्रता तो ऐसे प्रसंगों में अक्षुण्ण रहनी ही चाहिए, पर साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तरुण और तरुणियों की घनिष्ठता, निकटता और असाधारण सहकारिता भी साधारण जनों की आँखों में खटकती हैं। उतने भर से आशंकाओं का ऐसा बवण्डर बन पड़ता है, जो बदनामी के स्तर तक पहुँचा देता है। ऐसी दशा में न केवल संबंधित व्यक्तियों को, वरन् उस लक्ष्य को भी भारी क्षति पहुँचती है, जिसके लिए एकत्रित हुआ गया था और मिल-जुलकर काम करने में कुछ अनुचित नहीं माना गया था।

अपनी दृष्टि और क्रिया कुछ भी क्यों न रही हो, पर लोग तो लोग हैं। संसार में प्रचलित अनेकानेक विसंगतियों को देखते हुए अशुभ आशंका कहीं भी की जा सकती है। इस लोक मान्यता को ध्यान में रखते हुए, संस्थागत हिसाब-किताब में तथा नर नारी की निकटता वाले अवसरों पर इतनी अधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि कुकल्पना के लिए कहीं कोई गुँजाइश ही शेष न रहे।

यहाँ एक बात और हर समाज सेवी को नोट कर लेना चाहिए कि श्रेय पाने, हर प्रसंग में अपने को अग्रणी सिद्ध करने वाले लोग जन साधारण की दृष्टि में ओछे-बचकाने समझे जाते हैं और लोक सेवी का बाना पहनने पर भी बहुत घटिया समझे जाते है। उनको सम्मान यदि धोखे से कभी मिल भी जाय, तो वह कागज के फूल की तरह थोड़े ही समय में अपना आकर्षण खो बैठता है। नेता बनने के लिए लालायित लोग नाम छपाने, चेहरा मटकाने और माइक पर छाये रहने की कोशिश करते हैं। बड़प्पन जताने के लिए व्याकुल लोग, कुछ हाथ में रहा हो, तो उसे भी गँवा बैठते हैं। इनके अनेकों प्रतिस्पर्धी, विरोधी और ईर्ष्यालु उपज पड़ते हैं। ऐसी विग्रहों का परिणाम उस संगठन या मंच को भी बदनाम करता है, जिस पर चलकर वे ऊँचा बनना चाहते हैं। वे स्वयं बदनाम होते हैं और उस संगठन को ले डूबते हैं, जिसके लिए वे नेता कहलाना चाहते थे।

गाँधी जी की सादगी, सज्जनता और विनम्रता प्रसिद्ध थी। इसीलिए वे काँग्रेस के कोई नियुक्ति नेता पदाधिकारी न होते हुए भी उस समुदाय के लिए प्राण बने हुए थे। व्यक्तित्व उभारने का यही राजमार्ग है। नेतागिरी के लिए उछल-कूद करने वाले तो मात्र नट नर्तक स्तर के अभिनेता बन कर रह जाते हैं। प्रामाणिकता के अभाव में कोई भी देर तक श्रद्धास्पद नहीं रह सकता और न उसकी नेतागिरी देर तक चलती है। सृजन शिल्पी इस तथ्य से भली प्रकार अवगत रहे, तो ही ठीक है।


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