साध्य की संसिद्धिं साधनों पर निर्भर

November 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साध्य ओर साधन मानवी विकास के दो प्रमुख आधार हैं। समग्र प्रगति इन दो बातें पर निर्भर करती है कि हमने साधन और साध्य कैसे चुने। साधन यदि अच्छे हों, तो साध्य की संसिद्धिं सत्य परिणामदायक होती है, पर यदि साध नहीं बुरे हों, तो लक्ष्य ऊँचा होने पर भी साध्य पवित्र नहीं कहा जा सकता।

इस संदर्भ में भूल तब हो जाती है, जब दोनों को दो पृथक् तत्व मान लिया जाता है और साध्य को साधन से अलग रखा जाता है, पर यथार्थ में ऐसा है नहीं। दोनों एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। एक के आधार पर ही दूसरे का स्वरूप निर्धारण होता है। मार्ग यदि शुभ हो, तो निश्चय ही उससे प्राप्त लक्ष्य भी पवित्र होगा। इसी प्रकार पवित्र लक्ष्य को देख पवित्र साधन का अन्दाज सहज ही लगाया जा सकता है, पर यदि साध नहीं अनुचित हों, तो उनसे उचित और अच्छे ध्येय की प्राप्ति कैसे हो सकती है? ऐसे ही बुरे प्रयोजन के लिए किसी ने अच्छे साधन प्रयुक्त किये जो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। हम शाँति चाहते हैं, हमारा लक्ष्य शान्ति है, तो हमें उसी पथ का अनुसरण करना होगा। बल प्रयोग कर कोई शान्ति लाना चाहे, तो यह असंभव है। हाँ, प्रथम दृष्टि में तो ऐसा प्रतीत होगा कि लक्ष्य की प्राप्त हो गई, पर वस्तुतः उक्त साधन से जिस ध्येय पूर्ति की आशा की गई होती है, वैसा हो नहीं पाता। वह वास्तविक शान्ति नहीं, अशान्ति की शान्ति होती है, समुद्र में तूफान आने से पूर्व की स्थिरता, जिसमें स्थायित्व का पूर्णतया अभाव होता है। ऐसे साधन से ऐसे ही साध्य की अपेक्षा की जा सकती है। अतः यह कहना गलत न होगा कि साध्य, साधन की ही अन्तिम परिणति है। साध नहीं आगे चलकर साध्य बन जाता है। जैसे ह घर और उसका मार्ग आरम्भ में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, पर घर वही है, जहाँ रास्ता पूर्ण होता हो। अस्तु, दोनों को पृथक् करके सोचना दोषपूर्ण है। ऐसा सोचने वाले ही यह अनुमान लगा लेते हैं कि अशुभ मार्ग भी शुभ मंजिल तक पहुँचा सकते हैं पर ऐसा कैसे सम्भव है? हम पंक में चल रहे हैं, हमारी दिशा निम्नगामी है, तो वह मार्ग हमें सूखे ऊँचे स्थान तक कैसे पहुँचा सकता है? वह तो दलदल में ही फँसायेगा। तात्पर्य यह है कि जैसे साधन होंगे, साध्य की प्रकृति भी वैसी ही होगी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अन्तिम रूप अर्थात् (साध्य) सूक्ष्म रूप से आदि रूप अर्थात् (साधन) में विद्यमान रहता है।

हम घृणा से घृणा को नहीं जीत सकते, न तो बुराई, बुराई को निर्मूल कर सकती है। ऐसा भी नहीं हो सकता कि हिंसा, हिंसा को मिटा सके। जो ऐसा करने की कोशिश करते हैं, समस्या उनके लिए ज्यों की त्यों बनी रहती है। उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है, अथवा यदा-कदा यह नीति उन्हें पतन-पराभव की स्थिति में पहुँचा देती है। इस पर समाज का वह वर्ग विश्वास करता है, जो अमंगल साधन द्वारा मंगल की प्राप्ति पर भरोसा करता है, किन्तु यह भ्रान्तिपूर्ण है। सच्चे अर्थों में इससे न तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है ओर न स्वयं कर्त्ताः का ही कल्याण हो सकता है। उलटे अशान्ति और अराजकता जैसी स्थिति पैदा होती है, जिसका अन्त परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है। यदि क्रोध का प्रतिकार क्रोध से किया जाय, पुनः क्रोध के बदले क्रोध प्रदर्शित किया जाय और यही श्रृंखला आगे बढ़ती चली जाये, तो नतीजा विनाश ही तो होगा और विनाश किसी समस्या का समाधान उस स्थिति में हो सकता है, जिस अर्थ में व्याधि को समाप्त करने के लिए व्याधिग्रस्त को ही समाप्त कर देना।

वस्तुतः यह प्रवृत्ति अज्ञान मूलक है और अधर्म की जड़ है। महामानव महापुरुष चूँकि इसके दुष्परिणाम को समझते और अनुभव करते हैं, इसी कारण वे इससे बचने के लिए उस साध्य-साधन सिद्धान्त की बात करते हैं, जिसमें निम्नता का कोई स्थान ही नहीं है और उच्च साध्य के लिए समानधर्मी उच्च साधन पर बल दिया गया है, जो अनीति के बदले अनीति ओर अधर्म के बदले अधर्म का समर्थन नहीं करता, वरन् इसका विरोध करता है। सम्पूर्ण आध्यात्म इसी पर टिका है। इसी का उद्घोषक करते हुए ऋषि कहते हैं- न पापे प्रति पापः” अर्थात् हमें पापी के साथ पापी नहीं बन जाना चाहिए और पाप के बदले पाप नहीं करना चाहिए।

किन्तु आज का भौतिकवाद ठीक इसके विपरीत सिद्धान्त में संलिप्त है। उसका मत इससे बिलकुल भिन्न है। वह कहता है कि यदि कोई गाली दे, तो प्रत्युत्तर में उसे भी गाली दी जाय कोई किसी को ईंट से मारे, तो उसे पत्थर से जवाब दिया जाय, मगर इस सिद्धान्त से तथा हिंसा-प्रतिहिंसा और क्रोध-प्रतिरोध की समस्त संसार में लहर-सी दौड़ पड़ेगी। जिससे बच पाना फिर किसी के लिए सम्भव न हो सकेगा और सर्वत्र अस्थिरता और अशान्ति ही विराजेगी। हाँ, उन थोड़े लोगों के लिए यह सही हो सकता है, जो नितान्त दुर्दान्त हैं और स्नेह-प्रेम की भाषा ही नहीं समझते, पर यह अपवाद है। ऐसे अपवाद हर काल में हुए हैं। सतयुग, द्वापर, त्रेता भी इनसे अछूते नहीं रहे और इन अपवाद स्वरूप लोगों के साथ व्यवहार भी अपवाद जैसा ही हुआ है, अतः विचारणीय नहीं है। मगर जनसामान्य पर यह नियम लागू करना उचित न होगा जहाँ अज्ञानता अथवा क्षणिक आवेशवश कोई गलती हो जाय, वहाँ तो महात्मा ईसा का वह कथन ही चरितार्थ हो सकता है, जिसमें उनने कहा है कि “कोई एक गाल में मारे, तो दूसरा गाल भी सामने कर दो” यहाँ उनका तात्पर्य मात्र इतना है कि उग्रता का समाधान उग्रता में नहीं, वरन् शालीनता में है। उपरोक्त कथन सुनने में चाहे जितना अव्यावहारिक लगे, पर यह एक सत्य है कारण कि द्वेष का हल प्रेम में ही हो सकता है और क्रोध का अक्रोध में यह एक ऐसा समाधान है, जिसके कई लाभ हैं, समस्या का निवारण होता एवं अपनी आपसी प्रेम सद्भाव बढ़ते हैं, दोनों पक्षों की हानियाँ टलती और समाधान अपनाने वाला पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार वह रास्ते की प्रतिकूलताओं को भी अपने विकास के सोपान बना लेता है। फिर ऐसी परिस्थितियाँ उसके लिए विकास की गार्मावरोध नहीं रह जाती। विषम-से-विषम अवस्थाओं में भी जहाँ पतन की पूरी-पूरी गुँजाइश रहती है, वह इस सूत्र-सिद्धान्त का अनुसरण का स्वयं को बचा लेता हैं

यह श्रेष्ठ चयन का परिणाम है। शालीनता से उग्रता को जीतने की परिणति। पवित्रता से अपवित्रता पर विजय प्राप्त करने का आधार। इस प्रकार साधन यदि शुभ हो, तो साध्य के शिव होने में कोई संदेह नहीं रह जाता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118