कण-कण में संव्याप्त वह परम सत्ता

November 1995

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दिन ढल रहा था। रात ओर दिन सफर से बिछुड़ जाने को कुछ क्षणों के लिए एक दूसरे में विलीन हो गए रम्य वनस्िजी में एक पर्णकुटी में से कुछ धुँआ-सा उड़ रहा था। कुटीर में निवास करने वाले दो ऋषि शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे। वनवासियों का भोजन ही क्या? कंद फल तोड़ लाए-कुछ दूध से काम चल गया। हे, कन्दमूल को अवश्य आँच में पकाना होता है। भोजन लगभग तैयार हो चुका था आष्र उद से कदली पत्रों पर परोसा जा रहा था।

तभी बाहर किसी आगन्तुक के आने का शब्द हुआ। दोनों ने जाने का प्रयत्न किया बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था। ऋषि ने प्रश्न किया ‘कहो वत्स! क्या चाहिए? युवक विनम्र वाणी में बोला-आज प्रातः से अभी तक कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता हैं मैं क्षुधा से व्याकुल हो रहा हूँ। यदि कुछ भोजन मिल जाता तो बड़ी दया होती।

कुटीर वासी कहने को वनवासी थे। हृदय उनका सामान्य गृहस्थों से भी कही अधिक संकीर्ण था। मात्र स्वार्थवादी थे ये व्यावहारिक वेदान्तिक थे। सो रूखे स्वर में कहा- “भई तुम किसी गृहस्थी का धर देखें। हम वनवासी हैं अपने उपयोग भर का ही भोजन जुटाते है।”

ब्रह्मचारी की बड़ी ही निराश हुई यद्यपि वह अभी ज्ञानार्जन कर ही रहा था-तथापि कर्तव्य-अकर्तव्य का व्यावहारिक बोध था उसे। निराशा इस बात से नहीं थी कि उसे भोजन प्राप्त नहीं हो सकता था उसकी मानसिक पीड़ा का करण यह था कि यदि काई साँसारिक मनुष्य इस प्रकार का उत्तर तो फिर भी उचित था॥ वह उसके भौतिकवादी मोह से भरे दृष्टिकोण परिचायक होता। किन्तु ये वनवासी जो अपने आपको ब्रह्मज्ञान का अधिकारी अनुभव करते हैं उनके द्वारा इस प्रकार का उत्तर पाकर वह क्षुब्ध हो उठा।

तब चुपचाप चले जाने की अपेक्षा उस युवक ने यही उचित समझा कि इन अज्ञान में डूबे ज्ञानियों को इनकी भूल का बोध करा ही देना चाहिए उसने पुनः उनको पुकारा बाहर से भीतर का सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था। झुँझलाते हुए शनक तथा अभिप्रतारी दोनों बाहर आए।तब युवक बोला- “क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप किस देवता की उपासना करते है। “ उन ऋषियों को तनिक क्रोध आ गया व्यर्थ ही भोजन को विलम्ब हो रहा था। पेट की जठराग्नि भी उधर को हीनम की रास मोड़ रही थी। झुझलाहट में दोनों बोल पड़े “तू बड़ा असभ्य मालूम होता हो। समय कुसमय कुछ नहीं देखते। अस्तु! हमारा इष्टदेव या है, जिसे प्राण भी कहते हैं।”

अब वह ब्रह्मचारी बोला-तब तो आप अवश्य ही यह जानते होंगे कि यह प्राण समस्त सृष्टि में व्यापक हैं जड़ चेतन सभी में।”

ऋषि बोले-” क्यों नहीं! यह तो हम भली-भाँति जानते है। “अब युवक ने प्रश्न किया-” क्या मैं यह जान सकता हूँ कि यह भोजन आपने किसके निमित्त तैयार किया है।”

ऋषि अब बड़े गर्व से बोले-हमारा प्रत्येक कार्य अपने उपास्य को समर्पित होता है। ब्रह्मचारी ने मन्द स्मित के साथ पुनः का “यदि प्राण तत्त्व इस समस्त संसार में में व्याप्त हैं तो वह मुझमें भी है आप यह मानते हैं।” ‘ऋषि का अब यह बोध हुआ कि अनजाने में वे इस युवा के समक्ष हारते चले जा रहे हैं। तली में जैसे छेद हो जाने पर नाव पल-पल अतल गहराई में डूबती ही जाती है युवक की सारगर्भित वाणी में उनका अहंकार अज्ञान वैसे ही धँसता चला जा रहा था अज्ञान का थान अब विनम्रता लेती जा रही थी।

शनक धीमे स्वर में बोले-तुम सत्य कहते हो ब्रह्मचारी निश्चय ही तुम्हारे अन्दर वही प्रण वही वायु संव्याप्त हैं, जो इस संसार का आधार है।”

ब्रह्मचारी संयत स्वर में अब भी कह राह था-तो हे महामुनि ज्ञानियों! आपने मुझे भोजन देन से मना करके अपने उस इष्ट देव का ही अपमान किया है, जो कण-कण में परिव्याप्त है। चाहे वश्ज्ञाल पुंज लगा हो, चाहे एक दाना हो, परिणाम में अन्दर हो सकता है, किन्तु उससे तत्व की एकता में कोई अन्तर नहीं आता आशा है मेरी बात का अन्यथा अर्थ न लगाएँगे।”

ब्रह्मचारी का उत्तर हृदय में उतरता चला गया था। सत्य में यही शक्ति होती हैं दोनों ऋषि अत्यन्त ही लज्जित हुए खड़े थे। किन्तु साधारण मनोभूमि के व्यक्तियों में तथा ज्ञानियों में यही तो अन्तर होता हैं वे अपनी त्रुटियों को भी अपनी अन्तर होता हैं वे अपने त्रुटियों को भी अपनी हठधर्मी के समक्ष स्वीकार नहीं करते ओर अपनी भूल का बोध होते ही उसे सच्चे हृदय से स्वीकार कर लेते है, तथा तत्क्षण उसके सुधार में संलग्न हो जाते है।

अभिप्रतारी ने अत्यन्त ही विनम्र वाणी में कहा- हमसे बड़ी भूल हो गया ब्रह्मचारी लगता है तुम किसी बहुत ही योग्य गुरु के पास शिक्षा ग्रहण कर रहे हो। धन्य है वे। तुम उम्र में हमसे कहीं छोटे होते हुए भी तत्त्वज्ञानी और भोजन ग्रहण करके हमें हमारी भूल का प्रायश्चित करने का अवसर दो।”

ओर दोनों सादर उस ब्रह्मचारी युवक को ले गए उसके प्रक्षालन हेतु शीतल जल दिया तथा अपने साथ बैठाकर सम्मानपूर्वक भोजन कराया।

उस दिन से वे अपनी कुटी में ऐसी व्यवस्था रखते कि कोई भी अतिथि अथवा राहगीर कभी भी आए, वे उसे बिना भोजन किए न जाने देते। इष्ट की उपासना का मर्म सच्चा स्वरूप अब उनकी समझ में आ गया था।


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