साधना की सफलता मन की तन्मयता पर निर्भर

November 1995

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उपासना में एकाग्रता पर बहुत जोर दिया गया है। ध्यान-धारणा का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि मन की अनियन्त्रित भगदड़ करने की आदत पर नियन्त्रण स्थापित किया जाय और उसे तथ्य विशेष पर केन्द्रित होने के लिए प्रशिक्षित किया जाय।

एकाग्रता एक उपयोग सत्प्रवृत्ति है। मन की अनियन्त्रित कल्पनाएँ अनावश्यक उड़ानें उस उपयोगी विचार शक्ति का अपव्यय करती हैं जिसे यदि लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित किया गया होता तो गहराई में उतरने और महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने का अवसर मिलता। यह चित्त की चंचलता ही है जो मनः संस्थान की दिव्य क्षमता को ऐसे ही निरर्थक गँवाती और नष्ट-भ्रष्ट करती रहती है। संसार के वे महामानव जिन्होंने किसी विषय में पारंगत प्रवीणता प्राप्त की है या महत्वपूर्ण सफलताएँ उपलब्ध की हैं उन सबको विचारों पर नियन्त्रण करने उन्हें अनावश्यक चिन्तन से हटा कर उपयोगी दिशा में चलाने की क्षमता प्राप्त रही है। इसके बिना चंचलता की वानर वृत्ति से ग्रसित व्यक्ति न किसी प्रसंग पर गहराई के साथ सोच सकता है। और न किसी कार्यक्रम पर देर तक स्थिर रह सकता है। शिल्प, कला, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, व्यवस्था आदि महत्वपूर्ण सभी प्रयोजनों की सफलता में एकाग्रता की शक्ति ही प्रधान भूमिका निभाती है। चंचलता को तो असफलता की सगी-बहिन माना जाता है। बाल-चपलता का मनोरंजक उपहास उड़ाया जाता है। वयस्क होने पर भी यदि कोई चंचल ही बना रहे-विचारों की दिशाधारा बनाने और चिन्तन पर नियन्त्रण स्थगित करने में सफल न हो सके तो समझना चाहिए कि आयु बढ़ जाने पर भी उसका मानसिक स्तर बालकों जैसा ही बना हुआ है। ऐसे लोगों का भविष्य उत्साहवर्धक नहीं हो सकता।

आत्मिक प्रगति के लिए तो एकाग्रता की और भी अधिक उपयोगिता है। इसलिए मेडीटेशन के नाम पर उसका अभ्यास विविध प्रयोगों द्वारा कराया जाता है। इस अभ्यास के लिए कोलाहल रहित ऐसे स्थान की आवश्यकता समझी जाती है जहाँ विक्षेपकारी आवागमन या कोलाहल न होता हो। एकान्त का तात्पर्य जनशून्य स्थान नहीं वरन् विक्षेप रहित वातावरण है। सामूहिकता हर क्षेत्र में उपयोगी मानी है। प्रार्थनाएँ सामूहिक ही होती हैं। उपासना भी सामूहिक हों तो उसमें हानि नहीं लाभ ही है। मसजिदों में नमाज, गिरजा घरों में प्रेयर, मंदिरों में आरती सामूहिक रूप से ही करने का रिवाज हैं इसमें न तो एकांत की कमी अखरती है और न एकाग्रता में कोई बाधा पड़ी है। एक दिशाधारा का चिन्तन हो रहा हो तो अनेक व्यक्तियों का समुदाय भी एक साथ मिल बैठकर एकाग्रता का अभ्यास भली प्रकार कर सकता है। नितान्त एकान्त में बैठना वैज्ञानिक, तात्त्विक शोध अन्वेषण के लिए आवश्यक हो सकता है, उपासना के सामान्य संदर्भ में एकान्त ढूँढ़ते फिरने की ही कोई खास आवश्यकता नहीं है। सामूहिकता के वातावरण में ध्यान धारणा और भी अच्छी तरह बन पड़ती है। सेना का सामूहिक कार्य-साथ-साथ कदम मिलाकर चलना-सैनिकों में से किसी भी ध्यान नहीं बटाना वरन् साथ-साथ चलने की पग ध्वनि के प्रवाह में हर एक के पैर ओर भी अच्छी तरह अपने आप नियत क्रम से उठते चले जाते हैं। सहगमन से पग क्रम को ठीक रखने में बाधा नहीं पड़ती वरन् सहायता ही मिलती है। सहगान की तरह सहध्यान तथा सहभजन भी अधिक सफल और अधिक प्रखर बनता है।

उपासना के लिए जिस एकाग्रता का प्रतिपादन है उसका लक्ष्य है-भौतिक जगत की कल्पनाओं से मन को विरत करना और उसे अंतर्जगत् की क्रिया-प्रक्रिया में नियोजित कर देना। उपासना के समय यदि मन साँसारिक प्रयोग आत्मिक क्षेत्र की परिधि में परिभ्रमण करता रहे तो समझना चाहिए कि एकाग्रता का उद्देश्य ठीक तरह पूरा हो रहा है। विज्ञान के शोध कार्यों में-साहित्य के सृजन प्रयोजनों में वैज्ञानिक या लेखक का चिन्तन अपनी निर्धारित दिशा धारा में ही सीमित रहता है। इतने भर में एकाग्रता का प्रयोजन पूरा हो जाता है। यद्यपि इस प्रकार के बौद्धिक पुरुषार्थों में मन और बुद्धि को असाधारण रूप में गतिशील रहना पड़ता है। और कल्पनाओं को अत्यधिक सक्रिय करना पड़ता है तो भी उसे चंचलता नहीं कहा जाता है। अपनी निर्धारित परिधि में रहकर कितना ही द्रुतगामी चिन्तन क्यों न किया जाय, कितनी ही कल्पनायें, कितनी ही स्मृतियाँ, कितनी ही विवेचनाएँ क्यों न उभर हरी हो वे एकाग्रता की स्थिति में तनिक भी विक्षेप उत्पन्न नहीं करेगी। गड़बड़ तो अप्रासंगिकता में उत्पन्न होती है। बेतुका-वे सिलसिले का-अप्रासंगिक-अनावश्यक चिन्तन ही विक्षेप करना है। एक बेसुरा वादन पूरे आरकेस्ट्र के ध्वनि प्रवाह को गड़बड़ा देता है ठीक इसी प्रकार चिन्तन में अप्रासंगिक विक्षेपों में कितनी ही-कितने ही प्रकार की कल्पनाएँ-विवेचनाएँ करते रहने की पूरी-पूरी छूट है।

कोई व्यक्ति एकाग्रता का अर्थ मन की स्थिरता समझते हैं और शिकायत करते हैं कि उपासना के समय उनका मन भजन में स्थिर नहीं रहता। ऐसे लोग एकाग्रता और स्थिरता का अन्तर न समझने के कारण ही इस प्रकार की शिकायत करते हैं। मन की स्थिरता सर्वथा भिन्न बात है। उसे एकाग्रता से मिलती-जुलती स्थिति तो कहा जा सकता है पर दोनों का सीधा सम्बन्ध नहीं हैं जिसका मन स्थिर हो उसे एकाग्रता का लाभ मिल सके या जिसे एकाग्रता की सिद्धि है उसे स्थिरता की स्थिति प्राप्त हो ही जाय यह आवश्यक नहीं है।

स्थिरता को निर्विकल्प समाधि कहा गया है और एकाग्रता को सविकल्प कहा गया है। सविकल्प का तात्पर्य है उस अवधि में आवश्यक विचारों का मनःक्षेत्र में अपना काम करते रहना निर्विकल्प का अर्थ है एक केन्द्र-बिन्दु पर सारा चिन्तन सिमटकर स्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो जाना।

यहाँ मनः संस्थान की संरचना को ध्यान में रखना होगा। मस्तिष्क की बनावट एक प्रचण्ड विद्युत भण्डार जैसी है। उसके भीतरी और बाहरी क्षेत्र में विचार तरंगों के आँधी-तूफान जितने तीव्र गति सम्पन्न होते है वह मस्तिष्क उतना ही उर्वर और कुशाग्र बुद्धि माना जाता है। जहाँ इन तरंगों में जितनी मन्दगति हो समझना चाहिए कि वहाँ उतनी ही जड़ता, दीर्घ सूत्रता, मूर्खता, छाई रहेगी। हारे-थके मस्तिष्क को निद्रा घेर लेती है अर्थात् उसकी गति शीलता शिथिल हो जाती है। यह कृत्रिम निद्रा नशीली दवायें पिलाकर, क्लोरोफार्म, ईथर आदि सुंघाकर, सुन्न करने वाली सुई लगाकर उत्पन्न की जा सकती है। मूर्छा की स्थिति में मस्तिष्क की गतिशीलता ठप्प हो जाती है। स्थिरता ऐसे ही स्तर की हो सकती है। गड्ढे में बंद होने के प्रदर्शन वाली जड़ समाधि में ऐसी ही स्थिरता होती है। मनस्वी लोग अपनी संकल्प शक्ति से हृदय की धड़कन, और मस्तिष्क की सक्रियता को ठप्प कर देते हैं। स्थिरता जड़ समाधि के वर्ग में आती है। वह संकल्पशक्ति से या औषधियों से उत्पन्न की जा सकती है। स्थिरता का लाभ विश्राम मिलना है। इससे आन्तरिक थकान दूर हो सकती है और जिस तरह निद्रा के उपरान्त जागने पर नई चेतनता एवं स्फूर्ति का अनुभव होता है वैसा ही मन की स्थिरता का-निर्विकल्प समाधि का भी लाभ मिल सकता है। सामान्य रूप में इस स्थिति को शिथिलीकरण मुद्रा का एक प्रकार कहा जा सकता है। उसमें भी शरीर और मन की स्थिरता-शिथिलता-का ही अभ्यास किया जाता है। मैस्मरेज्म हिप्नोटिज्म प्रयोगों में भी इसी का अभ्यास काले गोले के माध्यम से करना पड़ता है। नेत्रों में बंधक दृष्टि उत्पन्न करने के लिए एकाग्र मनःशक्ति को एक स्थान पर केन्द्रित करते हैं। मैस्मरेजम का यही आधार हैं ऐसे ही सामान्य चमत्कार उस स्थिरता से उत्पन्न किये जा सकते हैं जिसके लिए आमतौर से अध्यात्म साधना के विद्यार्थी लालायित रहते है। और जिसके न मिलने पर अपने अभ्यास की असफलता अनुभव करके खिन्न होते हैं।

मन की स्थिरता अति कठिन है। वह हठयोग से ही सम्भव हो सकती है। तीन मिनट की स्थिरता मिल सके तो साधक शून्यावस्था में जाकर निद्रा ग्रस्त हो जाता है। जिन्हें निर्विकल्प समाधि अभीष्ट हो उन्हें ही स्थिरता की अपेक्षा और चेष्टा करनी चाहिए। जिन्हें सविकल्प साधना में स्थिरता की नहीं एक दिशाधारा में मन को नियोजित किये रहने की आवश्यकता है। परब्रह्म में आत्म समर्पण और उस परा-शक्ति का आत्म सत्ता में अवतरण ही ध्यान का मुख्य प्रयोजन है। उसके लिए कितने ही प्रकार की साकार-निराकार ध्यान-धारणाएँ विद्यमान हैं उनमें से जो उपयोगी एवं रुचिकर लगे उसे अपनाया जा सकता है।

स्थिरता स्तर की एकाग्रता हिप्नोटिज्म प्रयोगों में तो काम में आती है, सरकस के अनेक खेलों में मानसिक सन्तुलन ही चमत्कार दिखा रहा होता है। स्मरण शक्ति के धनी भी प्रायः एकाग्रता के ही अभ्यासी होते हैं। गणितज्ञों में तो यह विशेषता पाई ही जायगी। शोध कर्ताओं की सफलता का आधार यही है। उतने पर भी उसे आत्मिक प्रगति की अनिवार्य शर्त नहीं माना जा सकता। अधिक से अधिक उसे सहायक ही कहा जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो यह सब एकाग्रता सम्पन्न लोग आत्मबल सम्पन्न हो गये होते और उनकी गणना सिद्ध योगियों में की जाने लगती। इसके विपरीत प्रायः सभी भावुक भक्त भावावेश जन्य चंचलता से ग्रस्त रहे है। मीरा, चैतन्य, रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस आदि इसी वर्ग के थे, जिन पर प्रायः भावावेश ही छाया रहता था। वे एकाग्र चित्त तो कदाचित् ही कभी हो पाते हों।

एकाग्रता के अभ्यास के लिए इष्ट देवताओं की प्रतिमाओं का निर्धारण करना होता है। उनकी चित्र, विचित्र आकृतियाँ, आभूषण, वस्त्र, आयुध, वाहन, इस दृष्टि से बनाये गये हैं कि ध्यान करने के लिए सुविस्तृत क्षेत्र मिल जाय। मन की दौड़ उन सब पर अदल-बदल उछल-कूद करती रहती है। एक परिधि में मन को सीमित दौड़ लगाने का अवसर मिलता रहता है। पूर्ण एकाग्रता या स्थिरता की ध्यानयोग के आरम्भिक चरण में उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि समझी जाती है।

जिस एकाग्रता की आवश्यकता अध्यात्म प्रगति के लिए बताई गई है वह मन की स्थिरता नहीं वरन् चिन्तन की दिशाधारा है। उपासना के समय सारा चिन्तन आत्मा का स्वरूप, क्षेत्र, लक्ष्य समझाने में लगना चाहिए और यह प्रयास रहना चाहिए कि ब्राह्मी चेतना के गहरे समुद्र में डुबकी लगाकर आत्मा की बहुमूल्य रत्नराशि संग्रह करने का अवसर मिले। उपासना का लक्ष्य स्थिर हो जाने पर उस समय जो विचार प्रवाह अपनाया जाना आवश्यक है उसे पकड़ सकना कुछ कठिन न रह जाएगा।

मन की स्थिरता एवं एकाग्रता का सार तत्व ‘तन्मयता’ शब्द में आ जाता है। गायत्री उपासना में यह प्रयोजन तन्मयता से पूरा होता है। तन्मयता का अर्थ है-इष्ट के साथ भाव-सम्वेदनाओं को केन्द्रीभूत कर देना। यह स्थिति तभी आ सकती है जब इष्ट के प्रति असीम श्रद्धा हो। श्रद्धा तब उत्पन्न होती है जब किसी की गरिमा पर परिपूर्ण विश्वास हो। साधक को अपनी मनोभूमि ऐसी बनानी चाहिए जिसमें गायत्री महाशक्ति की चरम उत्कृष्टता पर, असीम शक्ति सामर्थ्य पर, संपर्क में आने वाले के उत्कर्ष होने पर, गहरा विश्वास जमता चला जाय। यह कार्य शास्त्र वचनों का, अनुभवियों द्वारा बताये गये सत्परिणामों का, उपासना विज्ञान की प्रामाणिकता का, अधिकाधिक अध्ययन अवगाहन करने पर सम्पन्न होता है। आशंका ग्रस्त, अविश्वासी मन, उपेक्षा भाव से आधे-अधूरे मन से उपासना में लगे तो स्वभावतः वहाँ उसकी रुचि नहीं होगी ओर मन जहाँ-जहाँ उड़ता फिरेगा। मन लगाने के लिए आवश्यक है कि उस कार्य में समुचित आकर्षण उत्पन्न किया जाय। व्यवसाय उपार्जन में, इन्द्रिय भोगों में, विनोद मनोरंजनों के संपर्क सान्निध्य में मन सहज ही लग जाता है। इसका कारण यह है कि इन प्रसंगों के द्वारा मिलने वाले सुख, लाभ एवं अनुभव के सम्बन्ध में पहले से ही विश्वास जमा होता है। प्रश्न यह नहीं कि वे आकर्षण दूरदर्शिता की दृष्टि से लाभदायक है या नहीं। तथ्य इतना ही है कि उन विषयों के सम्बन्ध में अनुभव अभ्यास के आधार पर मन में आकर्षण उत्पन्न हो गया है। उस आकर्षण के फलस्वरूप ही मन उनमें रमता है और भाग-भागकर जहाँ-तहाँ घूम-फिरकर वहीं जा पहुँचता है। हटाने से हटता नहीं भगाने से भागता नहीं। मानसिक संरचना के इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें उपासना के समय मन को इष्ट पर केन्द्रित रखने की आवश्यकता पूरी करने के लिए पहले से ही मस्तिष्क को प्रशिक्षित करना चाहिए। गायत्री महाशक्ति के संदर्भ में जितना अधिक ज्ञान-विज्ञान संग्रह किया जा सके मनोयोग पूर्वक करना चाहिए। विज्ञ व्यक्तियों के साथ उसकी चर्चा करनी चाहिए। इस संदर्भ में होने वाले सत्संगों में नियमित रूप से जाना चाहिए। जिनने लाभ जुटाये हों उनके अनुभव सुनने चाहिए। यह कार्य यों तद् विषयक स्वाध्याय और मनन चिंतन के एकाकी प्रयत्न से भी सम्भव हो सकता है, पर अधिक सरल और व्यवहारिक यह है कि गायत्री चर्चा के संदर्भ में चलने वाले सत्संगों में उत्साहपूर्वक नियमित रूप से सम्मिलित होते रहा जाय।

भूल यह होती रहती है कि किसी प्रकार जप संख्या पूरी कर लेने की ही उतावली रहती है और उसे ज्यों-त्यों पूरी कर लेना ही पर्याप्त मान लिया जाता है। यह स्मरण नहीं रखा जाता कि वाणी से मंत्रोच्चार करने, उँगलियों से माला फिराने के शारीरिक श्रम प्रयोजन में ही इतने महान उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती उसके साथ मनोयोग और श्रद्धा समावेश भी आवश्यक है। चेतना शक्ति के उत्थान परिष्कार में तन्मयता सबसे बड़ा आधार है। शरीर से किये जाने वाले कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनके कारण मस्तिष्क और अन्तःकरण को साथ साथ चलने का आधार मिल जाय। चिन्तन का गहरा पुट रहने पर ही आत्मिक भूमिका में हलचलें होती है और प्रगति का सरंजाम जुटाता है। यदि मन इष्ट पर जमे नहीं और मात्र उच्चारण का श्रम चलता रहे तो उसका भी लाभ तो मिलेगा पर इतना स्वल्प होगा जिससे अभीष्ट सत्परिणाम की अपेक्षा पूरी न हो सकेगी। अस्तु यह मानकर चलना चाहिए कि उपासना कृत्य में मनोयोग पर लगाया जाना नितान्त आवश्यक है।

तन्मयता की स्थिति उत्पन्न करने के लिए धैर्यपूर्वक देर तक प्रयत्न करना होता है, यह एक दिन में सम्पन्न नहीं हो सकता। मन का पुराना अनुभव अभ्यास भौतिक आकर्षणों के साथ खेल करते रहने का है। उसे इससे विरत करने के लिए उससे अधिक नहीं कम से कम उतना बड़ा आकर्षण तो प्रस्तुत किया ही जाना चाहिए। अरुचिकर प्रयोजन पर जमने की उसको आदत है ही नहीं। आकर्षण के अभाव में उसे बुरी तरह ऊब आती है और वहाँ से उचटने भागने की ऐसी धमा−चौकड़ी मचाता है कि देर तक उस कार्य को चलाते रहना कठिन हो जाता है। तरह-तरह की बहाने बाजी बनाकर वहाँ से उठाने के लिए अचेतन मन कितनी-कितनी तरकीबें खड़ी करता है यह सब देखते ही बनता है। खुजली उठना, जम्हाई आना, कोई साधारण-सा खटका होते ही उधर देखने लगना, पालथी बदलना, कपड़े सम्भालना, जैसी चित्र-विचित्र क्रियाओं का होना यह प्रकट करता हैं कि मन यहाँ लग नहीं रहा, और उस कार्य को छोड़कर जल्दी-जल्दी उठ चलने के लिए बार-बार तकाजा कर रहा है।

इस स्थिति का सामना करने के लिए प्रथम भूमिका यह है कि श्रद्धा बढ़ाने वाले स्वाध्याय और सत्संग का मनन और चिन्तन का ऐसा क्रम बनाया जाय जिससे उस दिशा में चलने के सत्परिणामों के सम्बन्ध में तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरणों के आधार गायत्री उपासना के लिए श्रम करने की सार्थकता पर श्रद्धा और विश्वास गहरा होता चला जाय।


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