महाकवि कदम्ब जिनकी रामायण आज भी लोकप्रिय है।

November 1995

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कवि और साहित्यिकों का कर्तव्य मनुष्यों को सत्प्रवृत्तियों की प्रेरणा देना है। प्राकृतिक दृष्टि से मनुष्य एक पशु ही है, उसके खाने, पीने, सोने मलत्याग, प्रजनन की आवश्यकताएँ अधिकाँश में पशुओं से मिलती-जुलती ही है। अंतर तभी पैदा होता है जब विद्या, शिक्षा, साहित्य कला आदि के संपर्क में आकर यह विवेक बुद्धि का अधिष्ठाता बन जाता है। इसी से उसके विचारों का परिष्कार होता है। उदात्त भावनाओं का जन्म होता है, और वह समाजोपयोगी कार्यों के करने में समर्थ बनता है। इसीलिए जो विद्वान अपने ज्ञान भण्डार और परिश्रमपूर्वक अर्जित किये अनुभव को जन साधारण के हितार्थ प्रस्तुत करते हैं वे वास्तव में समाज के बहुत बड़े हितकारी है।

सद्गुणों और सत्कार्यों की प्रशंसा पढ़ कर मनुष्य का चित्त उनकी तरफ आकर्षित होता है और वह भी उनका अनुकरण करके वैसा ही यश और प्रशंसा प्राप्त करने की अभिलाषा करने लगता है। इस प्रकार सत्कर्मों की श्रृंखला आगे बढ़ती जाती है और समाज अधिक सुसंस्कृत बनता जाता है। इस प्रकार सत्साहित्य निर्माण और समाजोत्थान का अटूट संबंध है। इसके विपरीत जो लोग साहित्य के नाम पर अश्लीलता भ्रष्टाचार, अन्याय आदि की दूषित प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देते हैं वे समाज को नीचे गिराने वाले उसके शत्रु कहलाने के पात्र होते है। अतएव यदि कोई व्यक्ति लेखनी का आश्रय लेता है, साहित्यकार के पवित्र कार्य को अपनाने की इच्छा करता है। तो उसका धर्म कर्तव्य है कि वह सत्यं शिवम् सुंदरम् का ही उपासक बने, जन समुदाय को मंगलमय मार्ग की ही प्रेरणा दें। तमिल भाषा के महाकवि कदम्ब इसी तथ्य के उदाहरण थे। उनका जन्म दक्षिण भारत के चोल राज्य के जिरुवलुँदुर नामक गाँव में ब्राह्मण वंश में हुआ था। बहुत छोटी आयु में ही उनके माता पिता का देहांत हो गया और वे अनाथ होकर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। उनका एक रिश्तेदार उनको नलूर गाँव में ले जाकर सडैप्प बल्लल नामक धनी किसान के घर के पास छोड़ आया। वल्लल ने कुछ समय बाद इस अनाथ बालक को अपने दरवाजे पर खड़ा देखा तो बड़ी दया आई और उसे अपने घर में रख लिया। बल्लल के तीन पुत्र थे। यह भी उन्हीं के साथ रहने और पढ़ने लिखने लगा। ये जन्म से ही प्रतिभाशाली थे और शीघ्र ही अनेक ग्रंथों का अध्ययन कर के विद्वान बन गये। उनकी रुचि काव्य रचना की ओर हुई और थोड़े ही प्रयास से वे एक अच्छे कवि बन गये। सडैयप्प उस समय के चोल राजा के दरबार में जाया करते थे। उन्होंने राजा से कदम्ब की कविताओं की चर्चा की और गुणग्राही राजा ने उनको बुला लिया। वह उनकी काव्य शक्ति को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और राज कवि बना दिया। कुछ समय बाद राजा ने कदम्ब से तमिल भाषा में बाल्मिकी रामायण की तरह रामचरित लिखने का आग्रह किया। कदम्ब पक्के वैष्णव थे। उन्होंने राजा की सम्मति को सहर्ष स्वीकार किया। रामायण की रचना होने लगी और कुछ वर्ष में बारह हजार पदों का सुंदर ग्रंथ लिखकर तैयार हो गया। यह ऐसा लोकप्रिय हुआ कि समस्त मद्रास प्राँत में इसका प्रचार हो गया। जिस प्रकार उत्तर भारत में तुलसीदास जी की रामायण घर-घर पढ़ी जाती है उसी प्रकार दक्षिण भारत में कदम्ब रामायण का सर्वत्र सम्मान के साथ पाठ किया जाता है। कथा कही जाती है। यद्यपि उन्होंने और भी कई उत्तम ग्रंथ लिखे है, पर उसका नाम इसी रामायण के लिए प्रसिद्ध है। अपने जीवन काल में ही उनकी महान कृति पर मुग्ध होकर उस देश के विद्वानों और महाराजाओं ने उनको कवि सम्राट की पदवी दे दी थी।

कदम्ब की रामायण बाल्मिकी रामायण का केवल भाषान्तर ही नहीं है, वरन् उसमें उनकी बहुत कुछ मौलिकता भी है। उन्होंने राम वनवास में उनके सर्व प्रथम सहायक निषादराज गृह का वर्णन बहुत उच्च और उदात्त रूप में किया है। यद्यपि उनकी गणना नीची जाति के शूद्रों में की जाती थी, पर कदम्ब ने उनको एक स्वाभिमानी और बहादुर सरदार के रूप में चित्रित किया है। लक्ष्मण का स्वभाव यद्यपि सभी रामचरित के रचयिताओं ने उग्र बतलाया है, पर निषादराज से उन्होंने बड़े प्रेमपूर्वक भेंट की और रामचंद्रजी से जाकर निवेदन किया- हे विजय सम्पन्न। माता से भी अधिक स्नेही स्वभाव वाला गुह नाम का व्यक्ति आप से मिलने आया है।

गुह्य वास्तव में रामचंद्रजी से उसी प्रकार प्यार करता था जैसे माँ बेटे को करती है। वह राम के वनवास के कष्टों को सोचकर बड़ा दुखी होता था। वह ख्याल करता था कि जो राम अभी तक महलों में इतने आराम से रहते थे वे अकेले जंगल में किस प्रकार निर्वाह करेंगे? यदि रात के समय उनको प्यास लगेगी तो पानी लाकर कौन देगा? इसी प्रकार की चिंता करते-करते वह बड़ी व्यथा का अनुभव करता था। राम के चित्रकूट

चले जाने के कुछ समय पश्चात् जब भरत भी उसी रास्ते से चित्रकूट जाने को आये और निषादराज को यह संदेश हुआ कि कदाचित वे राम का अनिष्ट करने के उद्देश्य से वहाँ जा रहे हैं तो वह लड़ने-मरने को तैयार हो गया।

गुह्य के इस प्रेम का असर राम की माता कौशल्या पर बहुत अधिक पड़ा और वह उसे अत्यंत स्नेह करने लगीं। जब राम वनवास से लौट कर अयोध्या आये तो उसने कहा-राम-लक्ष्मण का वन गमन एक प्रकार से अच्छा भी हुआ, क्योंकि इससे उनको गुह जैसा सज्जन मित्र मिल गया। अब तुम सब भाई गुह के साथ इस राज्य का पालन करो।

इस प्रकार कदम्ब के निषाद जैसी नीच कहलाने वाली जाति के व्यक्ति को ऊँचा उठाकर उसे राम का प्रिय मित्र बनाकर ऊँची-नीची जाति के मिथ्या अहंकार की जड़ पर कुठाराघात किया है। उनके इस काव्यमय प्रवाह का पाठक के अंतर्मन पर बड़ा गहरा प्रवाह पड़ता है और वह जाति के बजाय चरित्र की उच्चता के सिद्धांत का कायल हो जाता है। राम राज्य का वर्णन करते हुए भी कदम्ब ने अयोध्या में समता के दृश्य का चित्र बड़े निराले ढंग से खींचा है। वह कहते हैं-अयोध्या में कोई नहीं था। वे अमीर-गरीब के भेद से अंजान थे। फिर कहते है-अयोध्या में कोई पुरुष बलवान नहीं था, क्योंकि उन लोगों का सामना कर सके ऐसा कोई वीर नहीं था। अर्थात् अयोध्या वाले सब समान बलवान थे, वे कमजोरी का नाम ही न जानते थे। इस प्रकार कदम्ब ने अपनी रचना द्वारा हर तरह से सद्भावों को अपनाने तथा उनकी वृद्धि की प्रेरणा दी है जो एक सच्चे साहित्यकार का धर्म है। आज आठ-नौ सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी कदम्ब-रामायण वैसी लोकप्रियता बनी हुई है और उसका प्रचार बढ़ता जाता है, यही उसके महान गुणों और कदम्ब की सदाशयता का प्रत्यक्ष प्रमाण है


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