मर्यादाएँ मत तोड़िए

November 1995

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जिस वृक्ष की जड़ पर पौध काल में ही आघात कर दिया जाएगा क्या आगे चलकर उस वृक्ष के पूर्ण विकसित स्वस्थ और उत्तम फल-फूल युक्त होने की आशा की जा सकती है? नहीं, उससे यह आशा करना कि यह विशाल वृक्ष बनकर पल्लव, पुष्प तथा फलों से परिपूर्ण होगा दीर्घकाल तक छाया फल तथा आश्रय देकर पथिकों तथा पक्षियों की सेवा कर जीवन सफल कर सकेगा, व्यर्थ हैं। जिस भवन की नींव कच्ची और कमजोर होगी वह किसी समय भी धोखा दे सकता है। छोटा-सा आघात होते ही उसका अस्तित्व हिल जायेगा और अधिक दिनों तक आश्रम व छाया न दे सकेगा।

यही बात मानव जीवन भी घटती है। जो किशोर अथवा किशोरियाँ कच्ची आयु में ही विकार-ग्रस्त हो जाते हैं, अपने भविष्य की ओर ध्यान नहीं देते, वे आगामी जीवन में अस्वस्थ तथा असमर्थ ही बने रहते हैं वे दाम्पत्य जीवन से लेकर सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व वहन कर सकने के सर्वथा अयोग्य ही सिद्ध होते है। यौवन की परिपक्वता पाये बिना वासना की कीचड़ में फँस जाना आत्महत्या करने के तुल्य है। सारे संसार में यह नियम एक जैसा ही है। कहीं भी और किसी में इसका अपवाद न रहा है, न आगे होगा। प्रकृति का यह एक अटल नियम है, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

अपने देश में प्राचीन काल में इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। गृहस्थों का दाम्पत्य-जीवन पवित्र, संतुलित तथा मर्यादित रहता था। पारिवारिक वातावरण कभी भी विकार ग्रस्त न होता था। इसका सन्तानों के चरित्र तथा जीवन निर्माण पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता था। साथ ही उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध नगरों से दूर आश्रमों में प्रकृति माता की गोद में किया जाता था। गुरुकुल के नियम बड़े ही दृढ़ तथा जीवनोपयोगी होते थे। वहाँ हर उस नियम का पालन किया जाता था जो किशोरों के शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य एवं विकास के लिए हितकर होता था और हर उस गति एवं कार्य विधि का निषेध रहता था, जिसका प्रभाव इसके प्रतिकूल माना जाता था। गुरुकुलों के शिक्षक तथा उपाध्याय ऋषि-मुनि ही हुआ करते थे, जिनका जीवन और आचरण हर प्रकार से शुद्ध तथा निष्कलंक हुआ करता था “संयम, नियम तथा निग्रह उनके दैनिक जीवन के अंग थे। साथ ही जिन विषयों की शिक्षा दी जाती थी वह न केवल उपयोगी हितकर तथा आवश्यक ही होती थी अपितु उससे जीवन में सत्य, तेजस्विता तथा तत्त्वज्ञान का अभिवर्धन हुआ करता था। वेद, शास्त्र, उपनिषदों की शिक्षा के साथ शस्त्र-विद्या अर्थनीति, सामाजिक व्यवहार तथा राजनैतिक विषयों की बड़ी ही स्वस्थ तथा परिष्कृत शिक्षा दी जाती थी। उनके पाठ्य-क्रम में कोई भी ऐसा विषय न होता था जो बालक-बालिकाओं के स्वास्थ्यकर को विकसित करने वाला न होता हो। आचरण घातक साहित्य का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वह तब था ही नहीं फिर उसके पढ़ने-पढ़ाने का प्रश्न ही न था।

इतना विचार इतनी योजना और इतनी सावधानी से शिक्षित तथा दीक्षित किये गये किशोर जब अपनी आयु की परिपक्वता में पहुँचते थे तो उनका व्यक्तित्व चाँद-सूरज की तरह चमकता रहता था। पूर्ण स्वस्थ, सभ्य तथा शिक्षित तरुण ही तो वे धुरी होते हैं जिन पर समाज तथा राष्ट्र का चक्र व्यवस्थित ढंग से घूमा करता है। इस पवित्रता से पले तथा नारियों में ही तो वह शक्ति होती थी जो आगे के लिए सुयोग्य नागरिक दे सकते थे। इसी व्यवस्था का फल रहा है कि भारतवर्ष में एक से एक बढ़कर तपस्वी त्यागी, गृही, वीर, विद्वान् संत तथा महात्मा होते रहते थे जो देश को आगे बढ़ाते और संसार में उसको सम्मानित पद दिलाया करते थे।

जीवन को ऐसी मर्यादा में बाँधकर और इतनी सावधानी, सतर्कता तथा परिश्रम प्रयत्नपूर्वक जो पीढ़ी का पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा की जाती थी, वह कोई निरर्थक बात नहीं थी। सभी ऋषि-मुनि बालक बालिकाओं के निर्माण में इसी प्रकार संलग्न रहा करते थे। इसके पीछे हितकर तत्व सन्निहित था। वे जानते थे कि यदि भावी पीढ़ी का इतने प्रयत्न एवं पवित्रता पूर्वक निर्माण न किया जायेगा तो उसका पतन हो जायेगा। जीवन के सच्चे पथ से भटक कर वह गलत रास्तों पर जायेगी। अपना विनाश के साथ ही समाज तथा राष्ट्र को नीचे, बहुत नीचे गिरा देगी और हुआ भी वही जब से उस पवित्र प्राचीन परम्परा का त्याग कर दिया गया समाज व राष्ट्र दिन-दिन गिरता चला गया। जिसका परिणाम हजारों वर्ष की गुलामी के रूप में सम्मुख आया। असहनीय, तिरस्कार, ताड़ना तथा अपमान सहन करना पड़ा और आज भी उस यातना से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल सकी है।

चरित्र-निर्माण की असावधानी तथा आत्म-संयम के अभाव में समाज की क्या दुर्दशा हो रही है? काम जो कि कभी एक उत्तरदायित्व माना जाता था जिसका निर्वाह करने के नियम तथा संयम एवं उपयोगिता थी, वह आज एक कौतुक-क्रीड़ा एवं मात्र मनोरंजन बन गया है। होश सँभालते ही किशोर तथा किशोरियाँ इस ओर गतिशील हो उठते हैं। इसी असंयम तथा वासना विषयक कौतुक का ही तो यह फली है कि सारा स्वास्थ्य चौपट हो गया चेहरे तेजहीन हो गये हैं। जरा-सा काम करने पर मस्तिष्क पीड़ा करने लगता है। शरीरों में हर समय थकान बनी रहती है। परिश्रम के नाम से जूड़ी आ जाती है। शरीर की एक-एक नस और प्रत्येक अवयव शिथिल तथा शक्तिहीन हो गया है। घोर अरुचि के साथ जीवन का बोझ किसी प्रकार ढोने का प्रयत्न किया जा रहा है। तरुणों में वह तेज, स्फूर्ति, वह कर्मण्यता दृष्टि-गोचर नहीं होती जो जीवन एवं जवानी का उपहार कही जाती है। वह उपहार प्राप्त भी किस प्रकार हो सकता है, जब यौवन के आने से पहले ही उसकी हत्या कर दी जाती है। उसकी पौध पर ही विष छिड़क दिया जाता है। असंयम का यह काम-कौतुक किशोरों को प्रेत बनकर लग जाता है और वे किशोरावस्था पार करते ही बूढ़ा जाते हैं उस आयु में ही परलोक सिधार जाते हैं जिस आयु में उनका वास्तविक जीवन प्रारम्भ होना चाहिए था। यह काम खेल का विषय नहीं है। इस असावधानी के कारण ही तो न राष्ट्र न समाज का ही विकास एवं विस्तार हो पा रहा है। यदि इस दोष को शीघ्र ही दूर न किया गया तो निश्चय ही राष्ट्र-निर्माण के सारे स्वप्न भंग हो जायेंगे, सुख-सम्पन्नता की सारी योजनाएँ धूल फाँकती रह जायेंगी।

अकालिक काम -कौतुक ने राष्ट्र के सम्मुख भयानक समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। सबसे बड़ी समस्या तो स्वास्थ्य की ही है। हर ओर रोगी क्षीण तथा दीन-हीन लोग ही दिखाई दे रहे हैं। रोगों तथा डॉक्टरों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिस देश में जितने डॉक्टर देखे जाएँ, समझ लेना चाहिये कि वह राष्ट्र, रोगों का घर बना हुआ है और वहाँ की पीढ़ियाँ असामयिक काम-क्रीड़ा के प्रभाव में पड़ी हुई हैं। असंयम देश न कभी उन्नति कर सकता है और न प्रतिष्ठापूर्ण जीवन का ही अधिकारी बन सकता है।

अकाल में ही काम-क्रीड़ा का अभ्यास बिगड़ जाने से तरुणों की वृत्ति अत्यधिक कामुक हो जाती है। वे दाम्पत्य-जीवन में वाँछित संयम का निर्वाह नहीं कर पाते। समय-असमय का उन्हें ध्यान नहीं रहता। पारिवारिक मर्यादा का कोई मूल्य महत्व उनकी दृष्टि में नहीं होता। उनका सारा सुख मनोरंजन तथा समस्त वृत्तियाँ कामुकता के वशीभूत हो जाती हैं। जिसका परिणाम अस्वस्थ सन्तानों की विपुल आपत्तियों के सिवाय और क्या हो सकता है?

गृहस्थ-जन अपने दाम्पत्य-जीवन में वाँछित मर्यादा, संयम तथा गोपनीयता में असंयम बर्तते चले जा रहे हैं, जिसका कुप्रभाव बच्चों पर पड़ना ही है और वे अकाल में ही काम-कौतुक के जिज्ञासु बनकर अपने चरित्र तथा जीवन के उपवन में आग लगा लेते हैं। भड़कीला श्रृंगार, फैशन तथा विलासिता पूर्ण रहन-सहन स्वभावतः ही वासनाओं को भड़काने वाला होता है। जब ऐसे वातावरण में रहा और बच्चों को रखा जायेगा तो उससे हितकर परिणाम की आशा किस प्रकार की जा सकती है? आज तो टेलीविजन, मीडिया, सभी पर अश्लीलता का बाहुल्य है?

प्राचीन गुरुकुलों में जब तक किशोरों की शिक्षा-दीक्षा पूर्ण न हो जाती और परिपक्व आयु तक उनके संस्कार दृढ़ न हो जाते थे उनके लिए बाल रखना, तेल सेंट आदि स्प्रे का प्रयोग, दर्पण देखना भड़कीली पोशाक पहनना तथा राजसी भोजन का निषेध रखा जाता था। यह सब बातें निश्चित रूप से कामोत्तेजक होती है। अपना श्रृंगार करने, दर्पण में रूप यौवन को देखने से विकार उत्पन्न हो ही जाते हैं। यह इच्छा जाग ही जाती है कि दूसरों को अपनी ओर आकर्षित किया जाय। तरुण तथा किशोर ऐसा करते हैं और इसी कौतुक के कारण धीरे-धीरे पथ-भ्रष्ट हो जाया करते है। ऐसे में कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि पारिवारिक वातावरण श्रेष्ठ सतयुगी बना रहेगा। गृहस्थ विवाह के बाद काम-वासना प्रधान जीवन जीते हैं। बच्चे भी उसी साये में पलते है। वैसा ही वातावरण टीवी सिनेमा ने इत्यादि से उनके आसपास बनता भी जाता है। इसी कारण उनका विकास भी वैसा ही होता देखा जाता है इस पतन के मार्ग से बचने का एक ही तरीका है कि गृहस्थ जीवन में जो वर्जनाएँ स्थापित हों, उन्हें तोड़ा न जाय। किशोरों के मानसिक भावनात्मक विकास हेतु उन्हें स्वस्थ मनोरंजन प्रदान किया जाय। सहज विकसित हो रही काम भावना को कौतुक के रूप में सर्वभक्षी विभीषिका न बनने दिया जाय, अपितु उसे एक उल्लास का सही सुनियोजित रूप देते हुए क्रीड़ा कल्लोल खेलकूद, शौर्य भावना के विकास में परिणित करने का प्रयास किया जाय तो फिर ऐसी विडम्बनाएँ समाज में नहीं होंगी जो आज धरती पर देखी जाती हैं। यही आज समाज समग्र मनीषी तंत्र से अपेक्षा रखता है। ऐसी ही कला मनोरंजन स्वस्थ रूप के उनसे प्रस्तुत किए जाने की आशा भी की है।


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