चन्द्रमौलि द्वारा दधिचि की परीक्षा

November 1995

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“अभय के लिए तुम्हें महाकाल का ध्यान करना चाहिए।” गुरु ने गम्भीर मुद्रा से कहा-मृत्यु की सतत् स्मृति मानव में वैराग्य का उदय करती है ओर उसको विकारों-विषयों के कण्टकमय पथ से बचाए रहती है। वह तुच्छ को छोड़कर शाश्वत के लिए उत्सुक रहता है। उसे क्षणिक सुख के प्रति घृणा एवं नित्य शान्ति के लिए अभीप्सा प्राप्त होती है।”

“रुद्र का ध्यान क्या हृदय में भय की बढ़ोत्तरी नहीं करेगा?” दधिचि ने हाथ जोड़कर अपनी शंका उपस्थित की। “मन ध्येय के साथ तादात्म्य ही तो स्थापित करता है और रुद्र के साथ उसका तादात्म्य क्या सात्विक हो सकेगा।”

“तुम्हारी विचार करने की शैली एक प्रकार से भ्रान्त है।” गुरु ने अपने सुयोग्य शिष्य को चेतावनी दी-विनाश वैसा नहीं है जैसा कि तुम देखते हो। नव सृष्टि की भूमिका को ही प्रलय कहते हैं। पतझड़ बसन्त का अग्रचर मात्र है। भगवान महाकाल देवता हैं जीवित ज्योति और जाण्टति के।”

“उनके ध्यान से हृदय कोप तथा विनाशकारी भावनाओं को ग्रहण नहीं करेगा?” अब भी शिष्य का समाधान नहीं हो सका था।” क्रोध काम का छोटा भाई ही तो है। वह भी साधक का एक भयंकर शत्रु है।”

“नहीं वत्स!” स्नेह स्निग्ध स्वर में गुरु ने समझाते हुए प्रारम्भ किया-कोप अहं एवं पर दृष्टि से होता है। विश्व के अणु-अणु में विनाश, परिवर्तन की लीला चल रही है। महाकाल के इस अखण्ड ताण्डव का साक्षात् कर लेने के पश्चात् कोप के लिए कोई आधार बचता ही नहीं।”

“रुको।” दधिचि कुछ कहना चाहते थे। उन्हें रोकते हुए गुरु ने कहा- “तुम्हें विनाश से भयभीत नहीं होना चाहिए। साधक को सर्वप्रथम उसी की आवश्यकता होती है। जन्म-जन्म से तुमने अपने संग्रहालय (चित्त) में पशुत्व के अतिरिक्त क्या संग्रह किया है? अपना देवत्व तुम सदा उपभोग करते चले आए जो कुछ भी सत संग्रह हुआ, व्यय हो गया। अब अवशेष को ध्वंस किए बिना यह नित्य का भव्य महत्व किस भूमि पर प्रस्तुत होगा? तुम्हारे लिए विनाश की सबसे बड़ी आवश्यकता है, जो तुम्हारे हड्डी-माँस में घुले माया-मोह के अन्तिम कण तक भस्म कर दें।”

“क्या यह सत्व की सृष्टि के द्वारा नहीं हो सकेगा?” शिष्य के स्वर में विनम्र प्रार्थना थी।

“हो सकेगा! “गुरु ने शान्त शब्दों में कहा- “यह भी एक मार्ग है, किंतु कण-कण में रुद्र का नृत्य देखना उतना कठिन नहीं है, जितना स्रष्टा के दिव्यकरों को। तीव्र वैराग्य तो महाकाल के ध्यान में निहित है। सात्विकता का संचार दूसरे गुणों का अभाव तो करेगा, लेकिन वह पथ है कठिन।”

“वह कठिन भी तो मृदुल है।” सच्ची बात तो यह है कि स्वभावतः मानव अन्त-करण सरस सुंदर को देखना चाहता है और भयंकर से दूर भागता है। “देखता हूँ कि तुम अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से अभी परित्राण नहीं पा सके हो।” गुरु ने कुछ कोमल स्वर में कहा-अस्तु! तुम प्रभु के कुन्द के समान उज्ज्वल तथा चन्द्रमा के समान शीतल स्निग्ध प्रकाशमय स्वरूप का ध्यान करो। वह तुम में सात्विक शक्ति का संचार करेगा।”

ध्यान की सांगोपांग विधि का उपदेश करके गुरु ने पज्वाक्षर मंत्र की दीक्षा दी। शिष्य ने आनन्दाश्रु पूरित नयनों से उनकी चरण रज पुस्तक पर लगायी और आज्ञा लेकर महेन्द्र पर्वत पर साधना करने के लिए चल पड़े। दिन बीतते गए और उनकी तप की आभा लोक-लोकान्तर में फैलने लगी। कैलाश शिखर भी इससे अछूता न रहा।

वहाँ चारों ओर अखण्ड हिम का साम्राज्य था। एक शृंग दूसरे से मस्तक ऊँचा करने की होड़ कर रहा था। निर्मल गगन में सूर्य की किरणें चमक रही थीं और हिमशिलाएँ आधार द्रवित होने से खिसकती जा रही थीं। शिलाओं के रूप में ही स्थान-स्थान पर सरिता नीचे जा रही थी। यही शिलाएँ नीचे जाकर रूप लेंगी। कहीं तृण का नाम न था। इस प्रदेश में समतल भूमि और उस पर वह जटाएँ लटकाए, किसी तपस्वी-सा सघन पत्रों की छाया एवं लाल-लाल कोपलों तथा फलों से भरा वट-वृक्ष भगवान शंकर की महिमा ही थी। इस प्रदेश में कोई पखी क्यों आने लगा। वृक्ष-मूल में वेदिका पर व्याघ्राम्बर डाले वे देवाधिदेव शान्त मुद्रा में थे। भगवती उमा ने आकर उन्हें प्रणाम किया।

आओ देवि! स्वागत के स्वरों में बोलते हुए चन्द्रमौली तनिक खिसक गए। वामाँग में बैठने भर को आसन रिक्त हो गया। पार्वती ने उसे भूषित किया। सम्मुख कुछ दूरी पर उत्तुंग वृषभ बैठा हुआ चुपचाप अपने स्वामी की ओर देख रहा था। उसका उज्ज्वल पुष्ट शरीर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो स्वयं हिमालय इस रूप में अपनी सुता एवं जमाता की सेवा से कृतार्थ होने उपस्थित हुआ है। आज कहीं चलेंगे नहीं भगवन्? प्रभु को प्रसन्न देखकर गिरिराज कुमारी ने प्रस्तावना की-मेरी इच्छा आज भ्रमण की हो रही है। यदि स्वामी को असुविधा न हो। उन्होंने मुसकराते हुए मस्तक झुकाया।

“अच्छा! योगीश्वर हँस पड़े” तो तुम मुझे भी कहीं लेकर जाना चाहती हो। कहाँ चलने की इच्छा है? चलना ही है तो आओ आज क्षीर सागर तक हो आवें? श्री हरि के दर्शन किए मुझे इधर बहुत समय हो भी गया है। सब कुछ जानते हुए भी सर्वज्ञ परिहास कर रहे थे।

जैसी स्वामी की इच्छा। संकुचित स्वर में भवानी

कह ही गयी-मेरा विचार तो आज महेन्द्र गिरि को ओर चलने का था किन्तु आप को जहाँ रुचे, वहीं उपयुक्त है।’ उनके स्वरों में अनुरोध था।

कोई विशेष बात है क्या? प्रभु ने मन्दस्मित के साथ प्रश्न किया। यह विचार किसी भाग्यशाली को कृतार्थ करने के लिए तो नहीं उदित हुआ है? कौन है वह जो यहाँ अन्नपूर्णा को आकुल किये हैं?

“आप तो जानबूझ कर पूछते हैं।” उमा ने संकुचित होकर मस्तक झुका लिया। “एक साधारण मानव है। वह प्रभु का ध्यान करते हुए वहाँ कठोर तपस्या कर रहा है। एक बार उसको देखना चाहती थी।”

“जिसने घोर तप किया है वह उसके कष्ट एवं महत्व को जानता है।” प्रभु ने हँसते-हँसते कहा-तुम्हारी सहानुभूति तपस्वियों के प्रति होना स्वाभाविक हैं। अच्छी बात है, चलो तुम्हारे उस तपस्वी कुमार को देख आवें।”

संकेत पाकर वृषभ समीप बैठ गया। तुरंत कहीं से एक गण आया और उसने बड़ा-सा शार्दूल चर्म नन्दी की पीठ पर डाल दिया। आगे उमा को बैठाकर हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए आशुतोष भी बैठ गए।

वहाँ पहुँचने पर देखा-तप में लीन दधिचि को एक दैत्य धमकाते हुए कहा रहा था “अरे भाग यहाँ से?” हाथों में चमकता हुआ भाला लिए, काले पर्वत के समान, लाल-लाल नेत्र तथा खड़े गैरिक केशों वाला वह भयंकर दैत्य बोल रहा था किसने तुझे यहाँ बैठने को कहा?

“मैंने तुम्हारा कोई अनिष्ट किया हो, ऐसा तो मुझे स्मरण नहीं तपस्वी दधिचि के स्वर में कोई कम्पन नहीं था। वे अविचल शांत बैठे थे उपयुक्त स्थल देखकर मैं स्वयं यहाँ आ गया हूँ और आज एक वर्ष से यहीं साधना कर रहा हूँ। मेरे द्वारा तुम्हारी कोई हानि न होगी।”

“तू भागता है या............।” भाले को नोक हृदय


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