संस्कारात् द्विज उच्यते

November 1995

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महर्षि शाल्विन की पत्नी श्लेषा ब्राह्मण कन्या थीं तो द्वितीय पत्नी इतरा शूद्र कन्या। एक ही भवन में, एक ही मूल शाखा सम्बद्ध अवर्ण सवर्ण का यह समन्वय भी अभूतपूर्व था। महर्षि के गृहस्थ में पूर्ण सुख शान्ति विराजती थी। दोनों पत्नियाँ दो सगी बहनों के समान परस्पर प्रेम पूर्वक रहती थीं, इसे ऋषि का प्रताप ही कहा जाता था।

समय पाकर श्लेषा और इतरा दोनों के गर्भ से एक एक पुत्र का जन्म हुआ। दोनों बालक अपूर्व तेजस्वी और सुन्दर थे। कोई भेद नहीं कर सकता था कि इनमें कौन ब्राह्मणी पुत्र है और कौन है शूद्वा पुत्र। इस पहचान की तब किसी को आवश्यकता भी न थी। आत्मा को शिरोमणि मानने वाला ऋषि कुल चर्म भेद,जाति भेद करना जानता ही न था। यह तो मध्य युग की बात है जब शूद्रों को अस्पृश्य भी कहा जाने लगा।

पर यह क्या हुआ? एक दिन दोनों ही किशोर ऋषि कुमार जब पहली बार महर्षि के यज्ञ स्थल पर प्रविष्ट हुए तो महर्षि शाल्विन ने श्लेषा के पुत्र को तो यज्ञ वेदी पर यजमान की तरह

बैठा दिया। किन्तु मानो शूद्वा पुत्र के वहाँ उपस्थित हो जाने से देवार्चना मलीन होने की आशंका पैदा हो गयी थी या और कोई भय। महर्षि ने इतरा के पुत्र को वहाँ बैठने की अनुमति ही नहीं दी, वरन् उसे डपट कर वहाँ से भगा दिया। बालक के लिए यह अपमान असह्य था। घर लौट कर माँ के अंचल में मुख छुपाकर वह जितना रो सकता था रोया। माँ के पास भी तो धैर्य बँधाने के लिए कुछ नहीं था। वह भी सहानुभूति में केवल रोती रही। श्लेषा ने महर्षि के इस व्यवहार को अनुचित ही नहीं निन्दनीय भी ठहराया। पर महर्षि ने न जाने उसके कान में क्या कहा कि श्लेषा ने फिर कोई प्रतिवाद नहीं किया।

अब तक हृदय की सम्पूर्ण वेदना आँसुओं के रूप में घुलकर धुल चुकी थी मन पर्वतीय उत्पित्यका से उतरी हुई उस सरिता की भांति निर्मल हो गया था जो समतल क्षेत्र में अपना विस्तार ही नहीं कर लेती वरन् प्रवाह भी शान्त और मन्द कर लेती है।

बालक ने प्रश्न किया-मा। अब तम ही बता। मैं अपने कल्याण के लिए किसे गुरु वरण करूं। भारी हृ से इतरा ने उत्तर दिया-तात्फ जल महर्षि ने ही तुझे दीक्षा के गह नहीं समझा तब और किसके पास तुझे भेजूं, तू तो अपनी आत्मा को ही गुरु मान और जिस धरती ने तुझे जन्म दिया है उसकी गोद को ही यज्ञ स्थल मानकर अपनी उपासना प्रारम्भ कर मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है भगवान सब मंगल करेंगे। बालक वहां से चल पड़ा भगवती प्रकृति का अध्ययन और आत्मदेव की उपासना करते-करते उसकी गति योगियों सी हो चली। मो के लिए अक्षर न को साधना की कसौटी पर कस-कस कर और भगवती प्रकृति के व्यवहार को देख-देखकर उसने न का अद्वितीय भण्डार अर्जित कर लिया। इतरा के पुत्र का यश संसार में चन्द्रमा की कला के समान विकसित होने लगा।

महर्षि शाल्विन स्वयं चिन्तित हो उठे। उस दिन इतरा से अधिक शोक में श्लेषा डूबी थी और सोच रही थी कि कही महर्षि का प्रयोग तितीक्षा की कसौटी पर असफल तो सिद्ध न हो जायगी। किन्तु सायंकाल इतरा के पुत्र का प्राकट्य ऐसे हुआ जैसे घिरे बादलों को चीर कर सूर्य प्रकट होता है

बालक जो अब युवावस्था को पार कर चुका था अपूर्व तेज से प्रकाशित हो रहा था उसके हाथ में पाण्डुलिपि की दोनों माताएँ तो पुत्र के स्वागत ओर कुशल मंगल पूछते में तल्लीन हो गयी, पर महर्षि ने उस पाण्डुलिपि को उठाकर देखा तो स्नेह और ममत्व से उनकी आँखें छलक उठी। यह पाण्डुलिपि और कुछ नहीं वैदिक मन्त्रों की विशुद्धतः व्याख्या थी जिसे ऐतरेय ब्रह्माणं पढ़े बिना वेो के कुछ विशिष्ट मंत्रों के उपयोग कान ही होता अपने पुत्र की इस उपलब्धि पर महर्षि फूले नहीं समाए। अपनी श्रेष्ठ साधना द्वारा ऐतरेय ने अपनी माता का ही मुख उज्ज्वल नहीं कर दिया वरन् इस बात का प्रमाण भी दे दिया कि शुद्र हो तो क्या संस्कार से ही मनुष्य ब्राह्मण हुआ करते है।


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