अपनों से अपनी बात - युग संधि का प्रभात पर्व इन्हीं दिनों

November 1995

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इन दिनों प्रगति और चमक-दमक का माहौल है पर उसकी पत्नी उघड़ते ही सड़न भरा विषघट प्रकट होता है। विज्ञान शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र की प्रगति सभी के सामने अपना चकाचौंध प्रस्तुत करती है। आशा की जानी चाहिए कि इस उपलब्धि के आधार पर मनुष्य को अधिक सुखी, समुन्नत, सभ्य, सुसंस्कृत बनाने का अवसर मिलेगा। हुआ ठीक उल्टा। मनुष्य के दृष्टिकोण,, चरित्र और व्यवहार में निष्कृष्टता घुस पड़ने से संकीर्ण स्वार्थपरता और मत्स्य न्याय जैसी अतिक्रमण का प्रवाह चल पड़ा। मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता की उपेक्षा अवमानना हुई और विलास, संचय पक्षपात तथा अहंकार का दौर मचल पड़ा। जिस लोभ, मोह और अहंकार को कभी शत्रु मानने, बचने, छोड़ने की शालीनता अपनायी जाती थी अब उसका अता-पता नहीं दीखता और हर व्यक्ति उन्हीं के लिए मरता दीखता है। परम्परा उलटी तो परिणति भी विघातक होनी चाहिए थी। हो भी रही है। शक्ति सम्पन्नता एक ओर विनाश-विभीषिका दूसरी ओर। देखकर हैरानी तो अवश्य होती है, पर यह समझने में भी देर नहीं लगती कि भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण अपनाने पर भौतिक समृद्धि से अपना ही गला कटता है। अपनी ही माचिस से आत्मदाह जैसा उपक्रम बनता है।

चौंधियाने वाली परत का पर्दा उघाड़ते ही प्रतीत होता है कि सब कुछ खोखला हो चला और घुला हुआ शहतीर किसी भी क्षण धराशायी होने की स्थिति में पहुँच गया। जन-जन का स्वास्थ्य खोखला होता जा है। दुर्बलता और रुग्णता से हर काया जर्जर हो रही है। लोग आधी अधूरी आयुष्य पूरी होते-होते मौत के मुँह में घुस पड़ते हैं। मानसिक संतुलन के क्षेत्र में हर किसी को चिंतित, भयभीत, आशंकित, आतंकित, खिन्न, विपन्न, असंतुष्ट एवं उद्विग्न देखा जाता है।

इस समय आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार और नैतिक क्षेत्र का अनाचार समाज व्यवस्था की कमर तोड़े दे रहा है। सामाजिक कुरीतियों के कारण होने वाली बर्बादी को समझते सभी हैं पर उन्हें छोड़ता कोई नहीं। उनके लाभदायक पक्ष को जब छोड़ा नहीं जायेगा तो हानिकारक पक्ष से छुटकारा न मिलेगा। बेटी के विवाह में सुधारवादी और बेटे के विवाह में परम्परावादी बनने वाले उस कुचक्र से छूटते ही नहीं। दुरंगी चाल, दोगली नीति अपनाने वाले कोल्हू के बैल की तरह ही पिसेंगे, पिटेंगे। समाज के हर क्षेत्र में अवांछनीयता का माहौल संव्याप्त है।

राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भीड़ में सर्वग्राही जनसंख्या वृद्धि, जन-जन के स्वभाव में सम्मिलित अपराधी प्रवृत्ति, वर्ग विद्वेष, संचय और विलास का कूटनीतिक कुचक्रों का कुछ ऐसा माहौल बन गया है कि विग्रह और आक्रमण के अतिरिक्त और किसी को कुछ सूझता ही नहीं। संकीर्णता की बढ़ोत्तरी, भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, वर्ग आदि की आड़ में कुछ को लाभ कमाने के लिए उत्तेजित करती और दूसरों को बर्बाद कर देने पर उतारू दीखती है। एकता, समता, न्याय, औचित्य और दूरगामी परिणामों की मानो किसी कोई चिंता ही न रह गई हो। ऐसी स्थिति में समस्याओं का समाधान निकले तो कैसे? निकले तो कौन निकाले? पुलिस कानून जेल कचहरी की सीमा नगण्य है वह हजारों अपराधियों में एक दो को दण्डित कर पाती है। जो जेल जाते हैं वे सुधरने के स्थान पर अधिक ढीठ और प्रशिक्षित होकर लौटते हैं। गृहयुद्ध, क्षेत्रीय युद्ध और विश्व युद्ध इसी माहौल की देन है।

पिछले दो महायुद्ध हो चुके हैं। तीसरे अणु आयुधों की खनखनाहट पग-पग पर विश्व विनाश की महाप्रलय की चुनौती देती है। बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों ने अदृश्य वातावरण को विषाक्त से भर दिया हैं और रुष्ट प्रकृति आये दिन दैवी प्रकोप के रूप में अपना कोप बरसाती है। वैज्ञानिक और आर्थिक प्रगति ने वायु प्रदूषण, खाद्य प्रदूषण, रेडियो विकिरण की मात्रा इतनी बढ़ा दी है कि दम घुटने, पीढ़ियाँ अपंग होने से लेकर ध्रुवों के पिघलने, समुद्र उमड़ने और हिमयुग आ धमकने तक की ऐसी विभीषिकाएँ सामने हैं जो इस ब्रह्माण्ड को स्रष्टा की इस सर्वोत्तम कलाकृति धरती की चुटकी बजाते इस अंतरिक्ष में धूल बनकर उड़ा सकता है। संकट काल्पनिक नहीं वास्तविक है। शुतुरमुर्ग को तो अपनी मौत भी दिखायी नहीं पड़ती। पर जिन्हें वस्तु स्थिति के पर्यवेक्षण की सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है वे जानते हैं कि संकट कितना गहरा हैं और किस प्रकार मानवी अस्तित्व जीवन मरण में इस समय झूल रहा है।

स्रष्टा ने इस भूलोक की व्यवस्था बनाये रहने और प्रगति के लिए प्रयत्नरत रहकर अपने वर्चस्व को प्रमाणित करने और मनुष्य से भी अधिक ऊँचे पद पर ऋषि देवता अवतार के रूप में उपलब्ध करने की सुविधा प्रदान की है। युवराज का गौरव भी है और उत्तरदायित्व भी। यदि उसका निर्वाह ठीक तरह नहीं होता तो पदच्युत होने, अधिकार छीनने और राष्ट्रपति शासन लागू होने का भी प्रावधान है।

अवतार तक तूफानी प्रवाह होता है। उसके अदृश्य उभार को कार्यान्वित करने के लिए जागृत आत्माएँ आगे आती हैं। पर्वत शिखरों पर सर्वप्रथम सूर्य किरणें चमकती हैं। उषाकाल का आभास पाकर सर्वप्रथम कुक्कुट बाँग लगाता है। जागरूक देवता ऐसे समय में भगवान की इच्छा को पूर्ण करने के लिए वाहन बन कर अपने पुरुषार्थ का परिचय देती है। हनुमान, अंगद, अर्जुन, भीम से लेकर बुद्ध, गाँधी आदि की अपने समय में ऐसी भूमिका रही है। यह सब दृश्यमान कठपुतलियाँ थीं उनके पीछे सूत्र संचालन करने वाली अदृश्य शक्ति ही अपनी भूमिका निभाती रही है। अग्रगामियों को श्रेय मिलना तो स्वाभाविक है। आँधी के साथ उड़ने वाले तिनके पत्ते एवं रेत कण भी आकाश चूमते हैं। चक्रवात की प्रचण्डता देखते ही बनती है। यह सब अवतारी शक्ति का साथ देने उसके प्रवाह में सम्मिलित होने का ही चमत्कार है। अवांछनीय को भट्टी में गलाया जा रहा है और पिघलाकर उसे उपयोगी स्वरूप में ढाला जा रहा है। युग संधि का प्रभात पर्व इसी महान परिवर्तन का ऐतिहासिक समय है। तमिस्रा का समापन और दिनमान का उदय इसी बेला में हो रहा है। सन 2000 तक का समय इसी उथल-पुथल से भरा-पूरा समझा जाना चाहिए। इन दिनों असाधारण परिवर्तन हो रहे हैं, होने जा रहे हैं। इस उथल-पुथल के गर्भ से प्रज्ञा युग का जन्म होगा, उसके साथ उज्ज्वल भविष्य की समग्र संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं। यों इससे पूर्व प्रसव वेदना भी कम नहीं सहनी पड़ेगी। सड़े फोड़े का मवाद निकाल कर बाहर करने के लिए कष्टकर आपरेशन भी तो होता है।

सन्निकट प्रज्ञा युग के अवतरण की परोक्ष प्रेरणा का वहन प्रत्यक्ष रूप से प्रज्ञा परिजनों को करना होगा। उन्हीं को रीछ बानरों की ग्वाल−बालों की, बौद्ध परिव्राजकों की, सत्याग्रहियों की भूमिका निभानी होगी। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण में उन्हीं को भागीरथी पुरुषार्थ की पुनरावृत्ति करनी होगी।

देखने में ऐसे झंझटों में पड़ना घाटे का सौदा प्रतीत होता है, पर वस्तुतः यह ही असीम नफा कमाने का व्यवसाय। हनुमान ने कुछ खोया तो सही पर पाया उससे भी अधिक, विभीषण, सुग्रीव यदि झंझट में न पड़ते, साथ न देते तो पुराने ढर्रे का गुजारा भर करते रह सकते थे जो ऐतिहासिक श्रेय मिला, प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ उठाया उससे वे वंचित ही रह गये होते। केवट और शबरी को भी कुछ तो त्याग करना पड़ा। गाँधी के सहयोगी विनोबा, नेहरू, पटेल राजगोपालाचार्य, राजेन्द्र बाबू, जाकिर हुसैन आदि आरंभ में तो उन्हीं मूर्खों में गिने गये जो आदर्शों के लिए घाटा उठाते और काम हर्ज करते। इन सब को कुटुम्बी, मित्रों संबंधियों ने रोका भी था और अपने मतलब रखने की चतुरता का परामर्श ही नहीं दबाव भी दिया था। ऐसे आड़े समयों पर भी महामानवों की वरिष्ठता परखी जाती है और वह खरी उतरती है तो केवल उनके लिए वरन् उनके समूचे परिकर के लिए श्रेय प्रदान करती है। आड़े समयों में एक दुर्भाग्य भी है कि जो वरिष्ठ होते हुए भी असमंजस ग्रस्त रहते व अन्तः प्रेरणा को कुचलते रहते हैं उन्हें बाद में पछताना भी बहुत पड़ता है।

साहसी कहाँ से कहाँ चले गये और संकोची भीरु, आलसी यों रहते तो सदा ही घाटे में हैं पर ऐसे स्वर्णिम अवसर गँवा देने पर साथियों की तुलना में जब अपने दुर्भाग्य को देखते हैं तो दुःख और प्रायश्चित भी कम नहीं होता। जेल जाने वालों में से बहुतों को मिनिस्टर बना देखकर कितने ही सिर धुनते हैं और कहते हैं कि उन दिनों हमारी संकीर्णता ही आड़े आई, अन्यथा हमें भी वैसे ही श्रेय पाने में कठिनाई पड़ती।

प्रज्ञा परिवार में ऐसे ही मूर्धन्यों का समुदाय है। युग संधि की प्रथम पूर्णाहुति के समय उन्हें यही परामर्श दिया और अनुरोध आग्रह किया जाता है कि वे संयम को चूके नहीं। इस आपत्ति काल में युग धर्म निबाहें। छोटे-मोटे बहानों को आड़े न आने दें। अग्निकाण्ड भूकंप बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष, दुर्घटना जैसे आपत्तिकालीन अवसरों पर अपना काम हर्ज करके अन्तरात्मा की पुकार पर सहायता के लिए दौड़ना पड़ता है। इससे आर्थिक दृष्टि से घाटा भी पड़ता है। पर वह हानि बदले में जो कहाँ संतोष, लोक सम्मान और पुण्य फल के रूप में दैवी अनुग्रह का लाभ प्रदान करती है उसे देखते ही अन्ततः इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। जो कि खोया था उससे अधिक पा लिया गया। बीज आरंभ में गलता है। पर कुछ ही समय बाद वह अंकुरित, पल्लवित व फूलों से लदा विशाल वृक्ष बनता है तो स्पष्ट हो जाता है कि जो कदम कभी मूर्खता का लगता था अन्ततः चरम बुद्धिमत्ता का ही सिद्ध हुआ। परमार्थ, सो भी उपयुक्त समय पर, उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए बन पड़े तो समझना चाहिए कि सोना-सुगंधि जैसा सौभाग्य बन गया। इस समय को पहचानना ही आज की सबसे बड़ी समझदारी है।


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