संगीत-विश्व का प्राण

November 1995

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संगीत की ध्वनि लहरियाँ मानवी काय-संस्थान मनः संस्थान एवं भाव संस्थान तीनों ही क्षेत्रों को तरंगित करती हैं। ध्वनि प्रवाह शरीर के प्रत्येक अंग अवयव पर अपना प्रभाव छोड़ते है। इन स्वर लहरियों में ज्वार-भाटे जैसे गुण पाये जाते हैं। उनमें शमनकारी और उत्तेजक दोनों ही क्षमताएँ प्रचुर परिमाण में विद्यमान पायी जाती है। मनुष्य ने विद्युत, लेसर, ताप, बारूद, अग्नि, धूप आदि का दिव्य वरदानों के रूप में उपयोग किया है। संगीत ऊर्जा का भी सृजनात्मक उपयोग कर उसने न केवल मानव मात्र को लाभान्वित किया है वरन् पशु-पक्षियों जीव-जन्तुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों को भी तरंगित किया है और सभी के लिए उसकी उपयोगिता साबित की है।

देखा गया है कि संगीत की स्वर लहरियों का प्रभाव मनुष्य तक ही सीमित नहीं है, वरन् उसका प्रभाव पशु-पक्षियों पर भी पड़ता है। वेणु नाद सुनकर सर्प अपनी कुटिलता भूलकर लहराने लगता है। कई प्रान्तों में बहेलिये बीन बजाते हैं, उससे मुग्ध हुए हरिण, मृग निर्भय होकर पास चले आते है। हालैण्ड में गायें दुहते समय मधुर संगीत सुनाया जाता है। यहाँ की सरकार ने ऐसा प्रबंध किया है कि जब गायें दुहने का समय हो तब मधुर संगीत किया जाय, ग्वाले लोग रेडियो सैट दुहने के स्थानों पर रख देते हैं। संगीत को गायें बड़ी मुग्ध होकर सुनती है और उनके स्नायु संस्थान पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक अधिक दूध देती हैं। ये प्रयोग भारत में भी किए गये हैं।

दुधारू पशुओं को दुहते समय यदि संगीत ध्वनि होती रहे तो वे अपेक्षाकृत अधिक दूध देते हैं। ऐसा देखा गया है।

सील मछली का संगीत प्रेम प्रसिद्ध है। कुछ समय पूर्व पुर्तगाल के मछुआरे अपनी नावों पर वायलिन बजाने की व्यवस्था बनाकर निकलते थे। समुद्र में दूर-दूर तक यह ध्वनि फैलती तो सील मछलियाँ सहज ही नाव के इर्द-गिर्द इकट्ठी हो जातीं और मछुआरे उन्हें पकड़ लेते।

घरेलू कुत्ते संगीत को ध्यानपूर्वक सुनते और प्रसन्नता व्यक्त करते पाये जाते हैं। वन विशेषज्ञ जार्ज हे्रस्हे ने अफ्रीका के कांगो देश में चिंपांजी तथा गुरिल्ला वनमानुष को संगीत के प्रति सहज ही आकर्षित होने वाली प्रकृति का पाया है। उन्होंने इन वानरों से संपर्क बढ़ाने में मधुर ध्वनि वाले टेप रिकार्ड का प्रयोग किया और उनमें से कितनों को ही पालतू जैसी स्थिति का अभ्यस्त बनाया। नार्वे के कीट विज्ञानी डॉ. हटसन शहद की मक्खियों को अधिक मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संगीत को अच्छा उपाय सिद्ध किया है। अन्य कीड़ों पर भी वाद्य मन्त्रों के भले-बुरे प्रभावों का उन्होंने विस्तृत अध्ययन किया है और बताया है कि कोई भी संगीत से बिना प्रभावित हुए नहीं रहते। कितने ही पशु-पक्षियों जीव-जन्तुओं पर यह प्रयोग आजमाया गया है और उसका समुचित प्रतिफल भी सामने आया है। वैज्ञानिकों ने चिड़ियाघरों में बन्द पक्षियों पर यह प्रयोग करने से सुविधा समझी। इसलिए उनके कटघरों से बाहर विविध प्रकार के संगीत टेप बजाये। देखा गया कि वे इसे सुनकर मन्त्र मुग्ध होते रहे। अपने-अपने सामान्य काम छोड़कर वे इकट्ठे हो गये। जहाँ से वह ध्वनि निसृत हो रही थी। पर जैसे ही वादन-बन्द हुआ वैसे ही वह उदास हो गये और मुँह लटका कर इस आशा में बैठे रहे कि कदाचित उसे सुनने का अवसर फिर मिले। बन्दर जैसे चंचल और उपद्रवी जीव आपस में चेंचें करना तक भूल कर उस अवसर पर भोले कबूतरों की तरह बैठे रहे। वह मन्द और मादक संगीत का प्रभाव था, पर जब उत्तेजक आक्रोश भरे और डरावने बाजे बजाये गये तो वे भी उत्तेजित हो उठते। चंचलता बढ़ी और आक्रोश में एक-दूसरे पर हमला करने लगे। कुछ ने दीवारों से टक्करें मारना और उपयोगी वस्तुओं को तोड़ना-फोड़ना शुरू कर दिया। किन्तु वह बदल देने पर उन्हें शांत होने में भी देर न लगी। बच्चे जो बहुत देर से इस प्रवाह से भर गये। थक कर अपने-अपने कटघरों में घुस गये तो झपकियाँ लेने लगे।

चिली के चिड़ियाघरों में यह प्रयोग पक्षियों पर किया गया। सामान्य संगीत से तो भी उड़ना और चुगना छोड़ कर उन पेड़ों पर बैठने की संख्या में आ जमे जहाँ लहराने वाला संगीत स्पष्ट सुनाई दे रहा था। उड़ाने, भगाने पर भी गये नहीं, एक डाली से दूसरी पर फुदकते भी रहें।

ऐसे विचित्र संगीत भी ढूँढ़ निकाले गये हैं जो निराश निढाल, उदास एवं प्रतिभा रहित कर देते हैं। उन्हें सुनते रहने पर माँसाहारी हिंसक जन्तुओं ने भूखे होने पर भी किसी पर आक्रमण का बड़ा साहस नहीं किया। आसपास के कीड़े-मकोड़े खाकर ही सन्तोष करते रहे दुर्बल जीव जन्तु स्थिरता ही नहीं अपने बैठे वरन् आँखों से आँसू भी बहने लगे। शायद वे उनकी प्रसन्नता के सूचक थे।

संगीत का प्रयोग जलचरों पर भी वैसा ही प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। आकर्षण संगीत टेप से मछलियाँ कछुए, केकड़े तक उस क्षेत्र में दौड़ते चले आये और बिना किसी झिझक आशंका के वहाँ तक बढ़ते चले गये जहाँ से उसे संगीत की आवाज आरम्भ हो रही थी इसके बाद दूसरा प्रयोग डरावने भयंकर स्वयं बदल कर किया गया तो उस क्षेत्र में जो जीव जन्तु थे, वे अपने जान बचाकर दूर-दूर चले गये। मछली मारो ने उस प्रयोग का शिकार पकड़ने में लाभ उठाया।

पशु-पक्षियों की अपनी भाषा होती है। यद्यपि उनमें थोड़े-थोड़े ध्वनि शब्द ही होते हैं पर उन्हीं के सहारे से आपस में विचारों के आदान-प्रदान करते रहते हैं। विभिन्न जीवों के उच्चारण विभिन्न प्रकार के हैं। इन संकेत स्वयं को टेप करके सुनाने पर उस वर्ग के प्राणी वैसी ही हरकतें करने लगे जैसे कि उनको संकेत उपलब्ध हुए। प्रणय निवेदन के स्वर सुनाकर उस वर्ग की नर मादाएँ को बड़ी संख्या में एकत्रित होते और सम्बन्ध बनाने के लिए आतुर होते देखा गया। ह्यूजफ्रेयर ने जुलूलैण्ड फार्म हाउस की एक घटना का विवरण छपाया है। जिसके अनुसार एक महिला वायलिन वादन को उस जंगल की झोंपड़ी में दो भयंकर सर्पों का सामना करना पड़ा था और वह मरते-मरते बची थी। बात यों थी कि उसे आधी रात बीत जाने पर भी नींद न आई तो उठकर वायलिन बजाने लगी इतने में कोरबा सर्पों का एक अँधड़ जोड़ा उस स्वर लहरी पर मुग्ध होकर घर में घुस आया और फन फैला कर नाचने लगा। वादन में व्यस्त महिला को पहले तो कुछ पता न चला पर जब उसे दो छायाएँ लगातार हिलती-जुलती दिखी दो उसने पीछे मुँह मोड़ कर देखा और पाया कि दोनों सर्प मस्ती के साथ संगीत पर मुग्ध होकर लहरा रहे हैं।

महिला एक बार तो काँप उठी पीछे उसने विवेक से काम लिया और खड़े होकर वायलिन बजाती हुई उलटे पैरों दरवाजे की ओर चलने लगी। दोनों साँप भी साथ-साथ चल रहे थे। दूसरे कमरे में उसका पति सो रहा था। वहाँ उसने जोर से वायलिन बजाया- वह जगा। इशारे में महिला ने वस्तुस्थिति समझाई। पति ने बन्दूक भरी और किवाड़ों के पीछे निशान साध कर बैठा। साँप जब सीध में आ गये तब उसने गोली चलाई एक तत्काल मर गया दूसरा घायल हो गया तब कहीं उस काल रज्जु के रूप में आये हुए मृत्यु से महिला का पीछा छूटा।

भीलवाड़ा राजस्थान के एक गाँव सलेमपुर का समाचार है कि वहाँ का निवासी एक युवक ट्रांजिस्टर बजाता हुआ गाँव लौट रहा था तो संगीत की ध्वनि से मोहित एक सर्प पीछे-पीछे चलने लगा। बहुत दूर साथ चलने पर जब साँप का आभास युवक को हुआ तो वह डर गया और ट्रांजिस्टर पटक कर भागा। सर्प ट्रांजिस्टर के निकट बैठा रहा जब तक कि संगीत बजता रहा। बन्द होने पर चला गया। पीछे सर्प की लकीर देखने से प्रतीत हुआ कि वह एक मील तक इस संगीत श्रवण के लिए पीछे-पीछे चला आया था।

यह घटनाएँ बताती है कि सर्प जैसे भयंकर और काफी क्रोधी प्रकृति के प्राणी को संगीत कितना अधिक प्रभावित एवं भाव-विभोर बना देने में समर्थ है।

पूर्वी जर्मनी के कोटिंगन नगर के संगीत में इलाज करने वाले प्रो. डॉ. जोहोंस एन. शूमिलिन ने यह सिद्ध कर दिया है कि बीमार पशु भी मानव की भाँति संगीत से लाभ ही नहीं उठा सकते वरन् उन्हें रोग-मुक्त भी किया जा सकता हैं उन संगीत का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। गोटिंगन से प्रकाशित एक पत्रिका में उन्होंने लिखा है-दुःखी आँखों में संगीत प्रसन्नता की चमक पैदा कर देता है। मैंने ऐसे कुत्ते और बिल्ली देखे है।, जो लोमवाद्यों के साथ थिरकने लगे हैं। यदि मनुष्येत्तर प्राणियों के जीवन-स्पन्दन को संगीत की सामर्थ्य से मोड़ा जा सकता है तब तो मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?”

यह घटनाएँ देखकर नारद संहिता का वह श्लोक याद आ जाता है, जो भगवान् विष्णु ने नारद जी को कहा था-

खगाः भृड़नः पतड़च्च कुरच्चद्योपिजन्तवः। सर्व एव प्रगीयन्ते गीतव्याप्तर्दिगन्तरे॥

हे नारद! पक्षी, भौंरे, पतंगे, हिरण आदि जीव जन्तुओं को भी संगीत से प्रेम होता है। संगीत से संसार का कोई भी स्थान रिक्त नहीं।

भारतीय संगीत-शास्त्र में अन्य राग-रागनियों के साथ दीपक-राग और मेघ-मल्हार-राग का नाम भी पढ़ने को मिलते हैं जानवरों का कथन है कि दीपक-राग के गाने से दीपक स्वयमेव जल जाते थे ओर मेघ मल्हार के गाने से वर्षा होने लगती थी। वर्तमान समय में संगीतज्ञ उस विधि को भूल गये है और कोई इस क्रिया को प्रत्यक्ष करके नहीं दिखा सकता। इससे कुछ लोग इन्हें मनगढ़न्त कल्पना बताने लगे है। पर यदि संगीत की ध्वनि के प्रभाव से पौधों की वृद्धि हो सकती है और गायें अधिक दूध दे सकती हैं तो कोई कारण नहीं कि दीपक-राग और मेघ–मल्लार की बात को गपोड़ा माना जाय। शब्द-शक्ति के सिद्धान्त की दृष्टि से दोनों घटनायें एक-सी है।

कुछ समय से संगीत के विविध राग-रागनियों द्वारा अनेक प्रकार के रोगों को मिटाने की चर्चा भी सुनाई देने लगी है। वास्तव में यह भी भारतीय संगीत-शास्त्र की एक प्राचीन उपलब्धि है। कुछ वर्ष पहले बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला जिसमें बतलाया गया था कि किस राग-रागिनी के द्वारा कौन-सा रोग अच्छा किया जा सकता है। अब विदेशों के कितने ही अस्पतालों में इस विधि का प्रयोग किया जाना आरम्भ हो गया है। वहाँ जिस रोग के लिये जिस प्रकार की संगीत ध्वनि उपयोगी मानी जाती है, उसी का रिकार्ड ग्रामोफोन पर लगाकर रोगी के पास रख दिया जाता है। स्नायु और मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों में संगीत का प्रयोग विशेष फलदायक सिद्ध हो रहा है।

स्नायविक रोगों तथा मानसिक विक्षेपों में संगीत के विशेष ध्वनि प्रवाहों के माध्यम से चिकित्सा का एक नया प्रचलन इन्हीं दिनों चला है और बहुत सफल हुआ है। शोक, क्रोध, उद्वेग, तनाव, रक्तचाप आदि को शांत करने में भी उससे बड़ी सहायता मिलती देखी गई है। सम्भावना व्यक्त की जा रही कि अन्यान्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह अगले दिनों संगीत उपचार भी उभर कर आएगा और जन स्वास्थ्य संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करेगा।

इसके अतिरिक्त उसका प्रभाव पशु-पक्षियों को उल्लसित एवं वृक्ष वनस्पतियों को अधिक विकसित करने की दृष्टि से भी बहुत लाभदायक पाया गया है। पशु अधिक दूध देने लगे। बैल घोड़े बिना थके अधिक परिश्रम में समर्थ रहे। मुर्गियों और मछलियों ने अधिक अण्डे बच्चे दिये। डरते रहने और असहयोग करने वाले अन्य प्राणी इस आधार पर नरम पड़े और मनुष्य के अधिक निकट आये। इस आधार पर हिंस्र पशुओं को भी किसी हद तक सौम्य बनाने में सफलता मिली है। सरकस वाले अब पशुओं को कलाकार बनाने के लिए साधने में मात्र हन्टर या लालच का ही उपयोग नहीं करते वरन् संगीत का सम्मोहन चलाकर भी चक्रवर्ती बनाने का एक नया उपाय अपनाने लगे हैं। यह प्रयोग वृक्ष वनस्पतियों पर भी बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुआ है।

वेस्टविल अमेरिका की कृषि प्रयोगशाला में ऐसे परीक्षण हुए हैं जिनमें संगीत के प्रभाव से खेती की फसलों को अधिक फैलने तथा फूलने-फलने वाली बनाने में सफलता प्राप्त की गई है। इस सम्बन्ध में विस्कोन्सिन के आर्थर लाके के प्रयोगों की उस देश के वनस्पति विशेषज्ञों में बहुत चर्चा है। उसने फूलों को जल्दी तथा भारी बनाने में इसी आधार पर सफलता पाई। जिन खेतों को संगीत सुनाये गये वे अधिक समुन्नत हुए और जिन्हें इससे वंचित रखा गया वे खाद पानी की दृष्टि से समान लाभ प्राप्त करने पर भी पिछड़े रह गये।

संगीत मनुष्यों की तरह पेड़-पौधों को भी पसन्द है। सुनियोजित संगीत तरंगों से वे प्रसन्न पुलकित होते हैं और उत्साह भरे वातावरण में अधिक जल्दी अच्छा विकास करने लगते है। ब्रिटिश विज्ञानी जार्ज मिलसटान इस संदर्भ में अधिक रुचि लेते रहे हैं उन्होंने सिद्ध किया है कि संगीत में पौधों को भी उल्लसित करने की क्षमता है। न्यूयार्क के डॉक्टर डोरेवों रेटालक ने रुग्ण वृक्षों में चिकित्सा से संगीत की ध्वनि लहरों का उपयोग किया है और कहा है कि जिनका भविष्य संदिग्ध हो रहा था जिन्हें रुग्ण समझा जा रहा ऐसे पौधों को भी संगीत चिकित्सा से माध्यम से रोगमुक्त किया और नया जीवन दिया गया।

कनाडा, ब्रिटेन, इसराइल तथा पश्चिमी जर्मनी में भी यह प्रयोग हुए हैं। प्रयोग-कर्ताओं ने कुछ खेतों और उद्यानों में खाद-पानी के अतिरिक्त संगीत सुनाने का भी प्रबन्ध किया। इस पर जो अतिरिक्त खर्च पड़ा उसकी तुलना में अच्छी फसल का लाभ कहीं अधिक था। इसके विपरीत यह भी देखा गया कि कर्कश स्वर और कोलाहल कुहराम का बुरा असर भी पड़ता है। धड़धड़ाते रहने वाले कारखानों के इर्द-गिर्द के बगीचे सदा मुरझाये-कुम्हलाये पाये गये।

वनस्पतियों के संगीत पर प्रभाव के सम्बन्ध में महाकौशल महाविद्यालय के रसायन शास्त्री प्रो. गोरे ने लम्बे समय तक परीक्षण करने के बाद अपना मत यही बनाया है कि जिस प्रकार मनुष्यों को संगीत प्रिय है उसी प्रकार उसके द्वारा वनस्पति को भी उल्लसित ही नहीं विकसित भी किया जा सकता है।

पिछले दिनों अन्नामलाई विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के एक वैज्ञानिक डॉक्टर सी0टी0एम. सिंह ने स्लाइडों के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि गायें भैंसे संगीत सुनकर अधिक दूध देने लगती हैं। कटक और दिल्ली के कृषि अनुसंधान केन्द्रों में भी ऐसे प्रयोग और परीक्षण हुए है और यह देखा गया है संगीत का प्रभाव पेड़-पौधों तक में उत्पादन शक्ति के रूप में होता है। कोयम्बटूर के सरकारी कॉलेज में भी इस प्रकार के परीक्षण चल रहे है। विदेशों से ऐसे समाचार मिल रहे हैं, जिनमें दावा किया जाता है कि राग-रागनियों का प्रभाव गन्ने, धान, शकरकन्द, नारियल आदि पर भी पड़ता है। उत्तर भारत में अभी भी धान की रोपाई के लिये विशेष रूप से गाँव की उन स्त्रियों को ले जाया जाता है, जो अच्छे और मधुर-स्वरों में गीत गा सकती हों और फिर सामूहिक स्वरों में गीत गाते हुए, धान की रोपाई की जाती है। ऐसे खेतों में और खेतों की अपेक्षा फसल अच्छी तैयार होती है।

डॉ. सिंह ने दस वर्ष तक एक बाग का दो हिस्सों में परीक्षण किया। एक के पौधों को कु. स्टेला पुनैया वायलिन बजाकर गीत सुनाती दूसरे खाद, पानी, धूप की सुविधाएँ तो समान रूप से दी गई किन्तु उन्हें स्वर माधुर्य से वंचित रखकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। जिस भाग को संगीत सुनने को मिला उनके फूल-पौधे सीधे, चने, अधिक फूल, फलदार सुन्दर हुए। उनके फूल अधिक दिन तक रहे और बीज निर्माण द्रुत गति से हुआ। डॉ. सिंह ने बताया कि वृक्षों में प्रोटोप्लाज्मा गड्ढे भरे द्रव की तरह उथल-पुथल की स्थिति में रहता है संगीत की लहरियाँ उसे उस तरह लहरा देती है, जिस तरह वेणुनाद सुनकर सर्प प्रसन्नता से झूमने और लहराने लगता है। मनुष्य शरीर में भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। गन्ना चावल, शकरकन्द जैसे मोटे अनाजों पर जब संगीत अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ सकता है तो मनुष्य के मन पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?

गन्ना, धान, शकरकन्द, नारियल आदि के पौधों और पेड़ों के विकास पर क्रमबद्ध संगीत का उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है यह प्रयोग भी डॉ. टी. एन. सिंह ने कुछ समय पूर्व किया था। कोयम्बटूर के सरकारी कृषि कॉलेज के अन्वेषण ने पौधों पर संगीत के अनुकूल प्रभाव की रिपोर्ट दी है।

इस समय संसार के कई अन्य देशों में भी संगीत की शक्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार के परीक्षण हो रहे हैं। कनाडा में गेहूँ के एक खेत के चारों ओर दूरभाषी यंत्र लाउड–स्पीकर लगे हुये है, जो प्रातःकाल सूर्योदय होते ही चायनिन के संगीत को प्रसारित करते है। अमरीका में भी कई किसान संगीत के भाव से अपनी फसलें बढ़ाने के प्रयत्न में लगे हैं दोवातोसा के श्री आर्थरलॉकर की राय है कि संगीत के प्रभाव से उनके बगीचे के फूल-पौधे सीधे, घने, ज्यादा फल-फूलदार और सुन्दर होने लगे है। उनमें

फूल काफी अर्से तक लगे रहे और बीच निर्माण भी द्रुतगति से हुआ। अमरीका की कितनी ही गौशालाओं में संगीत के प्रभाव से गायों के दूध की मात्रा बढ़ाई गई हैं, यह समाचार भी सामयिक पत्रों में प्रकाशित हुआ है।

लन्दन विश्वविद्यालय के एक वनस्पति इंजीनियर जेम्स स्मिथ ने पौधों के साथ किये गये दुर्व्यवहार और सद्व्यवहार की प्रतिक्रियाओं को जानने के लिए लम्बी अवधि तक अनेक क्षेत्र उद्यानों में विभिन्न प्रकार के पर्यवेक्षण किये है। उनने पाया है कि वनस्पतियाँ प्रताड़ना तथा प्रतिकूलता उत्पन्न करने से खिन्न होती है उनके यह मनोभाव कुम्हलाने मुरझाने के रूप में देखा गया। इसी प्रकार खाद पानी ऋतु प्रभाव की तरह वे सज्जनोचित व्यवहार से भी पोषण प्राप्त करती, बढ़ती और सुखी रहती पाई गई हैं। हँसी-खुशी का वातावरण जिस प्रकार मनुष्यों को पसन्द है वैसा ही अनुभव पेड़-पौधे भी करते हैं। शोक-सन्ताप जहाँ छाया रहता है वहाँ पौधे भी दुःखी निराश एवं कुरूप कठोर स्थिति में रहते हैं। श्मशानों, कसाई घरों के नये और तेजी से बढ़ने वाले पौधों को विकास गति अपेक्षाकृत अधिक मन्द और असंतोषजनक पाई गई है।

वनस्पति विज्ञानियों का यह मत बनता जा रहा है कि संगीत की प्रतिक्रिया पौधों पर स्नेह सद्भाव जैसी होती है। वे गायन वादन से प्रसन्न उत्साहित रहते और जल्दी बढ़ते तथा फूलते-फलते है।

इस तरह मनुष्य पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़े ही नहीं वृक्ष-वनस्पतियों पर भी संगीत का उपयोगी प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं, समस्त चेतन सृष्टि की तरह जड़ सृष्टि भी उससे प्रभावित होती है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर संगीत को विश्व का प्राण कहा गया है।


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