सृष्टि का निरीक्षण (Kahani)

November 1995

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सृष्टिकार ने एक दिन सोचा कि धरती पर जाकर कम से कम अपनी सृष्टि को तो देखा जाये। धरती पर पहुँचते ही सबसे पहले उनकी दृष्टि एक किसान की ओर गयी। वह कुदाली लिए पहाड़ खोदने में लगा था सृष्टिकर्ता प्रयत्न करने पर भी अपनी हँसी न रोक पाये |

वह किसान के पास गये, उन्होंने कारण जानना चाहा तो सीधा उत्तर था। ‘महाराज! मेरे साथ कैसा अन्याय है? इस पर्वत को अन्यत्र स्थान ही नहीं मिला बादल आते है इससे टकराकर उस ओर वर्षा कर देते हैं और पर्वत के इस ओर जो मेरे खेत आते है वह सूखे ही रहते है क्या तुम इस विशाल पर्वत को हटा सकोगे स्रष्टा ने पूछा। क्यों नहीं मैं इसे हटाकर ही मानूँगा, यह मेरा दृढ़ संकल्प हैं |

सृष्टिकर्ता आगे बढ़ गये तो उन्होंने अपने सामने पर्वतराज को याचना करते देखा। वह हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था विद्याता ! इस संसार में सिवाय आप के मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता। सृष्टा ने पूछा कि किसान के कथन से इतने क्यों घबरा रहे हो? तो पर्वत ने कहा, आपने उसकी आस्था नहीं देखी मेरा अनुभव है निष्ठावान् का संकल्प कभी अधूरा नहीं रहा अपनी सबल आस्था पीढ़ी चलती रहती है। संकल्प पूरा होने तक वाम नहीं लेती।

द्वेषग्रस्त व्यक्ति अपनी बड़ी-बड़ी उपलब्धियों को कौड़ी के मोल गंवा देते हैं। दुर्योधन के यहाँ दुर्वासा जी गये। उसने उनके दस हजार शिष्यों, सहित उनका भरपूर आतिथ्य तीन माह तक किया। परम तपस्वी दुर्वासा उसके आतिथ्य से संतुष्ट हुए उन्होंने उससे वरदान माँगने को कहा विवेक पूर्वक सोचकर माँगता तो वह अक्षय राज्य पारिवारिक सौहार्द, सद्गति कुछ भी माँग सकता था परन्तु ईर्ष्यालु विद्वेषी का विवेक साथ नहीं दे पाता दुर्योधन ने सोचा-पाण्डवों का अनिष्ट करना चाहिए, वे अभाव का जीवन जी रहे थे उनके पास सूर्य का दिया अक्षय पात्र भर है जब अन्तिम व्यक्ति भोजन करके उसे धो दे तो फिर उससे भोजन प्राप्त नहीं किया जा सकता था |

दुर्योधन ने सोचा-जब द्रौपदी भोजन करके पात्र धो चुके, तब ऋषि पहुँचे और आतिथ्य न हो पाने से क्रोध करके शाप दे, तो पाण्डवों का अनिष्ट हो सकता है वह प्रकट में बोला-ऋषि आप हम पर प्रसन्न है तो हमारे भाईयों से मिलियेगा। यह मेरी कामना है पर आप उनके पास मध्याह्न में तब पहुँचे जब वे सब भोजन कर चुके हो।

ऋषि भाव समझते हैं समझ गये कि दुर्योधन किस दुराव से यह मीठे वचन बोल रहा है। उन्होंने सोचा अच्छा हुआ, इस दुर्मति को अच्छा वरदान नहीं देना पड़ा उन्होंने तथास्तु कह दिया।

वादे के अनुसार, दुर्वासा दस हजार शिष्यों तुम होकर गए उनका अनिष्ट नहीं हुआ तथा दुर्योधन को मिला एक अलभ्य अवसर उसके दुर्भाव क पेट में समा गया।


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