अनगिनत बार घिरा संस्कृति का सूरज घोर घटाओं में। किंतु न मिट पाया उसका अस्तित्व कभी विपदाओं में।
दैवी संस्कृति महाद्वीप सी अविचल रही बहावों में, गहराई कम हुई न इसकी सागर के फैलावों में,
वेग आँधियों का इसके तरुवर ने अनगिनत बार सहा-शाखा-पात-कलेवर बदले, किंतु अनाहत मूल रहा,
परिवर्तन हो गया भले ही संस्कृति की सीमाओं में। किंतु न मिट पाया उसका अस्तित्व कभी विपदाओं में।
बदल गयी भाषा, बदला है वेश और व्यवहार यहाँ, किंतु प्राकृतिक अनुदानों के लिए नहीं सम्मान घटा,
देश प्रेम का भाव जगाया इसने सदा शिराओं में। किंतु न मिट पाया उसका अस्तित्व कभी विपदाओं में।
संस्कृति, जिसको आदिकाल से ऋषियों ने सींचा पाला, और लोकहित के साँचे में संतों ने जिसको ढाला,
सबल सेतु यहबना रहा प्रेरणा-त्याग-बलिदानों का, हुआ न इस पर असर विरोधी मौसम का, तूफानों का,
संस्कृति का यह सेतु अखंडित रहा सदा बाधाओं में। किंतु न मिट पाया उसका अस्तित्व कभी विपदाओं में।
आज विश्व है घने अँधेरे में, बढ़ रही है निराशा है, कृत्रिमता बन गयी मानवी, जीवन की परिभाषा है,
है अछोर जंगल अनास्था, संशय, तर्क विवादों का, चारों ओर घिरा है विषमय वातावरण विषादों का,
देव संस्कृति ही आशा है सबकी, घोर निशाओं में। किंतु न मिट पाया उसका अस्तित्व कभी विपदाओं में।
---शचीन्द्र भटनागर