विज्ञानवेत्ता से पूछा (Kahani)

February 1988

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एक दार्शनिक, एक राजनेता एवं एक विज्ञानवेत्ता एक ही नाव में गंगा के पार जा रहे थे। मल्लाह ने राजनेता से पूछा - कृपया मुझे बतलाइये कि मनुष्य का क्या धर्म है? राजनेता बोला - तुम न तो मनुष्य हो और न तुम्हारे भीतर बुद्धि है, फिर धर्म का तुमसे क्या सरोकार? हमें वोट दो हम तुम्हारे कष्टों का निवारण करेंगे।

मल्लाह ने यही प्रश्न विज्ञानवेत्ता से पूछा। वह कहने लगे - अज्ञानियों का भी कभी कोई धर्म होता है क्या? तुम्हारे प्रश्न पर मुझे हँसी आती है कि तुम्हें भी धर्म चाहिए।

अब दार्शनिक की बारी थी। वह मल्लाह के प्रश्न से झुंझलाकर बोला - तुम्हारी यह तामस देह और इसमें धर्म की अपेक्षा? पहले कर्मफल भोग लो, फिर धर्म की आशा करना।

मल्लाह का मन विचलित हो उठा। उधर नाव भी मझधार के एक जल भंवर से नहीं बच सकी। आगे बढ़ने के बजाय वह वहीं चक्कर काटने लगी। मल्लाह ने घबरा कर तीनों यात्रियों को सूचना दी कि नाव डूबने वाली है, जिसको तैरना आता हो, वह नाव से कूद पड़े। किन्तु वहाँ तो किसी पर भी तैरना नहीं आता था। मल्लाह को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये लोग तैरना नहीं जानते, जो नदी भी पार नहीं कर सकते, वे भव सागर कैसे पार करेंगे? साथ ही उसे दया भी आ गयी। तीनों प्राण बचाने का प्रश्न था। क्या इस प्रश्न का उत्तर मानव धर्म नहीं है? तो फिर उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। उसके भीतर अपूर्व जीवत और शक्ति जाग उठी। उसने जी जान से डांड चलाये। नाव भंवर के पार हो गयी। तीनों को किनारे पर उतार कर वह जैसे उन्हें सुनाते हुए बोला - मनुष्य दूसरों के संकट निवारण में अपने को भूल जाये, यही मानव धर्म है क्योंकि मनुष्य को इससे ज्यादा खुशी और किसी बात से नहीं होती।


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