श्रद्धा का आधार और अवलम्बन

February 1988

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भौतिक क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए ऊर्जा की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। उसके बिना न कुछ उगता है न पकता है न बढ़ता बदलता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्म क्षेत्र की ऊर्जा एक ही है, जिसे श्रद्धा के नाम से जाना जाता है। चेतना को उत्कृष्टता की ओर उभारने के लिए श्रद्धा के बिना एक कदम भी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं।

पानी का स्वभाव नीचे की ओर ढलना है। ऊपर से गिरी हुई वस्तु नीचे की ओर गिरती है। निम्न योगियों में भ्रमण करते हुए मनुष्य भी संचित कुसंस्कारों से प्रभावित बना रहता है। अवसर आते ही वह उन कुसंस्कारों को चरितार्थ भी करने लगता है। यही कारण है कि मनुष्य शरीरधारियों में से अधिकाँश पशु प्रवृत्तियों में संलग्न पाये जाते हैं। उन्हें पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और किसी कार्य में रुचि नहीं होती। मन और बुद्धि का परिकर लोभ, मोह और अहंकार के ताने बाने बुनता रहता है। लालसा और लिप्सा की सनक नशा पीकर उन्मत्त हुए व्यक्ति पर चढ़ी खुमारी की तरह छाई रहती है। इसी में उसे अपनी बुद्धिमता और सफलता भी दिखती है। कई बार तो वह इस स्थिति पर गर्व भी कर लेता है और बढ़ी हुई दुर्भावना तथा दुष्प्रवृत्तियों की दिशा में और भी अधिक बढ़ता है।

यह लोक प्रवाह हुआ। चर्चा इससे प्रतिकूल पक्ष की करनी है - आत्मिक प्रगति की। इसके दो पक्ष हैं एक आत्म सुधार आत्मविकास, दूसरा लोकमंगल का पुण्यपरमार्थ। इन्हीं दो को आत्मिक प्रगति का आधारभूत लक्षण माना गया है। इन प्रयत्नों को कुछ लोग करते भी है, तो वह एक कौतुक कौतूहल की तरह यत्किंचित ही बन पड़ता है। अन्तराल की गहराई तक जमी हुई पशु-प्रवृत्तियों से जूझना सहज काम नहीं है। वे छापामार नीति की अभ्यस्त होती हैं। दबाव पड़ने पर दब भी जाती हैं, पर जब भी चौकीदारों को बेखबर पाती है, तभी हमला बोल देती है। इस प्रकार करा-धरा सब कुछ गुड़ गोबर होता रहता है। आत्मिक प्रगति के लिए किये गये प्रयासों की गर्मी ठंडी होते ही फिर पुराना माहौल अपना आधिपत्य जमा लेता है। साधकों की असफलता का मुख्य कारण प्रायः यही होता है। वे जागरूकता और निष्ठा को सतत निरन्तर बनाये नहीं रह पाते।

आत्मिक प्रगति के लिए दो उपचार निरन्तर करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। एक संयम साधना। दूसरी परमार्थ परायणता। इन दोनों में ही प्रत्यक्षतः हर किसी को घाटा दिखता है। संयम की दिशा में जितना बढ़ा जाता है, उतना ही सुख सुविधा में, वासना विलासिता में, ठाटबाट में कटौती आरम्भ हो जाती है। औसत नागरिक स्तर का जीवन यापन करने के लिए तत्पर होने पर दूसरों की तुलना में अपना सरंजाम हलका पड़ जाता है। सुविधाएं घट जाती है। डींग हांकने और वाहवाही लूटने जैसा भी कुछ शेष नहीं बचता। यह त्याग बलिदान जैसा मार्ग है, अपने को आदर्शों के लिए समर्पित करने जैसा। इसे व्यक्तित्व का कायाकल्प करने जैसा माना जा सकता है। विलास प्रिय कुटुम्बी सहयोगी, संबंधी भी इससे चिढ़ने लगते हैं। समर्थन करना तो दूर उलटा उपहास उड़ाते और सनकी ठहराते हैं।

दूसरा अवलम्बन है - परमार्थ। इसमें अपने समय, श्रम, मनोयोग, साधन, प्रतिभा, प्रभाव आदि उपलब्धियों को स्वार्थ साधन से बचा कर पिछड़ों को बढ़ाने और गिरों को उठाने और संभलों को उछालने में लगाना पड़ता है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन को भी उतना ही महत्व देना पड़ता है। इस मार्ग पर चलना संयम साधना से भी भारी पड़ता है। संयम में तो जहाँ के तहाँ तो भी बैठे रहना पड़ता है, परन्तु परमार्थ में तो अपनी संचित सम्पदा को अन्यान्यों के लिए विसर्जित करते रहना पड़ता है। यह प्रत्यक्षतः घाटे का सौदा है। अपना नुकसान सहकर दूसरों की भलाई करने के लिए जिस उदार साहसिकता की आवश्यकता पड़ती है वह कहाँ से आये? आदर्शवादिता की भावसंवेदना ढीली हो तो फिर उस उत्साह में भी स्थिरता नहीं रह पाती। पानी में उठा बबूला कुछ ही समय में शान्त समाप्त हो जाता है। कुछ प्रशंसा दिलाने वाली घटनाओं को स्मरण रख जाता है और उन्हीं का बार-बार ढिंढोरा पीटते रहा जाता है। निरन्तर वह क्रम कहाँ चल पाता है? परमार्थ को नित्य कर्म में सम्मिलित करते रहना कितना कठिन है उसे सभी भुक्तभोगी भली प्रकार अनुभव करते हैं। मन का चोर और तथाकथित हितैषियों का दबाव रास्ता रोकने और पीछे खींचने में कोई कसर नहीं रहने देता। देखा गया है कि जिस-तिस बहाने की आड़ में पुण्य परमार्थ भी शिथिल हो जाता है। निरन्तर की व्रतशीलता निभ नहीं पाती।

इन अवरोधों से कैसे जूझा जाय? लक्ष्य की दिशा में निरन्तर प्रयाण करते रहने की व्रतशीलता का निर्वाह कैसे किया जाय? इन दोनों कठिनाइयों की मिली-जुली चौड़ी धार वाली महानदी को किस नाव पर बैठकर पार किया जाय? इस असमंजस भरे अन्धकार के बीच प्रकाश की एक ही किरण उग सकती है और वह है - श्रद्धा

श्रद्धा क्या है? इसकी एक शब्द में इतनी परिभाषा बताई जा सकती है कि “आदर्शों के प्रति समर्पित अन्तराल की भाव संवेदना।” जिसमें सभी महत्वाकाँक्षाओं का विसर्जन करना पड़ता है। भौतिक महत्वाकाँक्षाएं ही उच्चस्तरीय भाव-संवेदनाओं को कुँठित करती है। इस महाभारत को जाने बिना कोई धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में अवस्थित गाण्डीवधारी साधन न तो विजय–पताका फहराने की स्थिति तक पहुँच सकता है और न उसके रथ को संभालने चलाने के लिए कोई दिव्य तेज सारथी की भूमिका निभाने दौड़ा आ सकता है।

भौतिक क्षेत्र में जो महत्व ऊर्जा का है, ठीक वही भूमिका आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा निबाहती है। चेतना को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाल सकने वाली यह कारगर भट्ठी है। श्रद्धा विहीन को आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर कुछ कदम चल सकना भी कठिन पड़ता है। वह पक्षाघात पीड़ित की तरह कुछ कदम चल कर ही लड़खड़ा जाता है और धड़ाम से नीचे गिरता है।

श्रद्धा ही एक मात्र वह अवलम्बन है जिस पर बिठाकर आत्मचेतना को प्रक्षेपास्त्र की तरह गुरुत्वाकर्षण रहते अन्तरिक्ष तक पहुँचाया जा सकता है। अध्यात्मक क्षेत्र के जितने भी चमत्कार हुए हैं, उन्हें सब श्रद्धा की ही परिणति कह सकते हैं। वही पाषाण, प्रतिमा में सशक्त देवता का उद्भव करती है, उसी के प्रताप से मिट्ठी का ढेला गणेश बन जाता है और वैसा ही प्रतिफल उपलब्ध कराता है। एकलव्य के द्रोणाचार्य, मीरा का पाषाण खण्ड गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली, शिवाजी की भवानी प्रकारान्तर से श्रद्धा की ही परिणति थी। यदि इन कलेवरों में से श्रद्धा के प्राण को विलग कर दिया जाये तो उनका कलेवर नगण्य स्थिति का बनकर रह जाता है।

भयोत्पादक क्षेत्रों में झाड़ी का भूत बनने और उससे डरकर कइयों को बीमार पड़ते मौत के मुँह में जाते देखा गया है। रस्सी का साँप बन जाता है और भ्रमग्रस्त को उठाकर यमलोक पहुँचाती है। वह कथा बहुतों ने सुनी होगी जिसमें मृत्यु पाँच हार को मारने आई थी, पर पन्द्रह हजार मर गये। यमराज ने जवाब तलब किया तो मौत ने संक्षेप में इतना ही उत्तर दिया कि उसने तो पाँच हजार ही मारे, शेष दस हजार तो डर के मारे मर गये और उसके पीछे लग गये। तंत्र विद्या की सारी प्रक्रिया इस डरने डराने के ऊपर ही टिकी हुई है।

भाव संवेदनाएं अक्सर प्रत्यक्ष दृश्यों से प्रभावित होती है। कल्पना के मानस चित्र भी कई बार हर्ष शोक की मनःस्थिति बना देते है। वह उपक्रम रोते हँसने उठते, अकड़ते और दीन-हीन होकर रोते विलाप करते लोगों के बीच घटित होते हुए देखे जाते हैं। इसमें दृश्य प्रधान है और संवेदना उसका उत्पादन। यह जन-साधारण का स्वभाव है। उत्तेजक परिस्थितियों में कितने ही व्यक्ति आवेशग्रस्त भी होते देखे गये है और ऐसा कुछ भला बुरा कर बैठते हैं जो सामान्य सन्तुलित परिस्थितियों में संभव नहीं था। वैराग्य लेने से लेकर आत्महत्या अथवा आक्रमण प्रतिशोध पर उतारू होने तक की घटनाएं आवेश-ग्रस्त मनःस्थिति में ही घटित होते देखी गई हैं। कुकृत्य कर बैठने वाले जेल जाने पर पछताते देखे गये हैं इन्हें मनःक्षेत्र के ज्वार भाटे ही कह सकते हैं। भाव संवेदना की आवेशग्रस्त स्थिति में बन पड़ी प्रतिक्रिया भी।

श्रद्धा में भाव संवेदना तो प्रधान होती है, पर वह अविवेक पूर्ण नहीं होती। उसमें व्यक्ति आदर्शों को प्राणप्रिय मान कर उसके लिए उसी प्रकार समर्पित हो जाता है, जिस प्रकार की भक्त भगवान के लिए समर्पित होता है। भक्तों में हनुमान का उदाहरण प्रमुख है। राम भक्त भरत की चर्चा भी इसी रूप में होती है। पतिव्रताओं के आत्म-समर्पण का भी उल्लेख इसी रूप में होता है।

यों प्रचलन की हिसाब से भगवान की कोई प्रतिमा कल्पित कर ली जाती है और उसकी पूजा अर्चा, ध्यान–धारणा परक क्रिया–कृत्यों को ही श्रद्धा भक्ति की अभिव्यक्ति मान लिया जाता है। इसे प्रयास का शुभारंभ कह सकते हैं, मार्गदर्शक पट्टिका की तरह। पर इस संकेत से दिशा मात्र का बोध होता है। इतने भर से महायात्रा पूरी नहीं होती। उसके लिए तो लम्बी दूरी पार करने की आवश्यक पाथेय समेत यात्रा करनी होती है।

यह मार्ग है श्रद्धा के अवलम्बन का वह चेतना क्षेत्र की प्रचंड ऊर्जा है। वह न केवल लक्ष्य गढ़ती है, वरन् उस पर चलने के लिए आवश्यक सामर्थ्य भी प्रदान करती है। आदर्शवाद की दिशा में महामानवों द्वारा जो कुछ भी जितनी कुछ भी बढ़त बन पड़ती है। उसके मूल में श्रद्धा की शक्ति ही काम करती रहती है। बिना उसके न तो आत्मसंयम बरतते बन पड़ता है और न त्याग, बलिदान करते। इसके बिना आदर्शवाद का निर्वाह कैसे हो? सेवा साधना के लिए श्रम साधना लागते कैसे बन पड़े? मन कैसे खाली हो जो वासना, विलासिता, अहंता, संकीर्णता से ऊँचा उठकर कुछ ऐसा सोच सके जिसमें उत्कृष्टता अपनाने के लिए उमंग-उमँगे और कारगर योजना बने। श्रद्धाविहीन इस दिशा में कुछ भी सोचने में असमर्थ रहते हैं। यह दूसरी बात है कि लोग दिखावे के लिए अपने को पुण्यात्मा और उदारचेता सिद्ध करने के लिए जब तब कोई शिगूफे छोड़ते रहें। पर वह पोल अधिक समय तक बिना खुले रहती भी तो नहीं। वास्तविक और चिरस्थायी श्रेष्ठता का अर्जन कर सकने में श्रद्धा का अन्तराल की गहराई में उतारे बिना और कोई उपाय भी तो नहीं।

आमतौर से श्रद्धा की यह गरिमा और महिमा समझ सकना सामान्य मनःस्थिति में संभव भी नहीं हो पाता। इसके बिना न देवता अनुकूल बनते हैं, न भगवत् चेतना के साथ अपने को जोड़ सकना संभव होता है। अन्तराल में दबी हुई, सोई हुई, महानता का भी इसके अभाव में स्फुरण नहीं होता। उत्कृष्टता के इन लक्षणों में से एक भी न उभरे तो व्यक्तित्व में वह प्रखरता कैसे उभरे जिसके सहारे स्वयं ऊँचा उठा और दूसरों को आगे बढ़ाया जाता है। आत्म विकास की दिशा में बढ़ने वाले के लिए श्रद्धा का अवलम्बन अनिवार्य है। उसके बिना कोई आत्म प्रवंचना में भले ही लगा रहे, पर ऐसा कुछ पा नहीं सकता, जिसे महत्वपूर्ण कहा और माना जा सके। जब कुछ बोया ही नहीं गया है तो काटने को कैसे मिलेगा? उत्कृष्टता के क्षेत्र में जो बोया गया है वही आत्म-विकास के रूप में उगकर कोठे भरता है। इस बीज का संचय इसी आधार पर बन पड़ता है कि अपने को तप-तितीक्षा की कसौटी पर कसा जाय। लिप्सा-लालसाओं में कटौती करके उस बचत को आत्मोत्कर्ष के लिए नियोजित किया जाय। यह सब करा सकने की शक्ति मात्र श्रद्धा से ही उपलब्ध होती है।

श्रद्धा आकर्षणों, प्रलोभनों, और दबावों के आगे झुकने से निरन्तर इन्कार करते रहने का रुख अपनाने का साहस देती है। गिरावट के ऐसे अवसरों की नहीं जो दुर्बल मन वालों को सहल ही अपनी और खींच लेते हैं। जो संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लाँघने से स्पष्ट इन्कार करते और इसके लिए चारों और फैले हुए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है, जब सभी चतुर लोग अपने मतलब से मतलब रखते हैं और दूसरों के झंझट में नहीं पड़ते तो अपने को ही क्या पड़ी है जो स्वयं को निरन्तर कसते रहें और दूसरों पर अपनी क्षमता का लाभ उलीचते चलें। आदर्शवादी कौन बनता है? सभी अपने धन्धे में लगे हैं, फिर हमें ही क्या ऐसा कुछ करना और सोचना चाहिए उसके आदर्शों के नाम पर अपनी दुर्गति बनाने की मूर्खता अपनाई जाय?

ऐसे-ऐसे अनेकानेक तर्कों, उदाहरणों की झड़ी लगती रहती और बढ़े हुए कदम पीछे लौटने के लिए भरपूर दबाव डालती रहती है। पर अकेली श्रद्धा ही है, जो इन अब से जूझती रहती है। चट्टान की तरह पैर जमाने और निर्धारित लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती रहती है।

गया-गुजरा जीवन स्वीकार करने के लिए महामानवों की अन्तःचेतना सदा इन्कार करती रहती है। मानवी गरिमा का मूल महत्व समझाती रहती है। मानवी गरिमा का मूल महत्व समझाती रहती है। लोकप्रवाह की अनुपयुक्तता और अन्त में हाथ लगने वाली दुर्गति का स्पष्ट चित्र खड़ा करती रहती है। सावधान करने के लिए इतनी ही पर्याप्त रहता है। उसके सहारे काम चल भी जाता और समूचा जीवन एक सुव्यवस्थित योजना के अनुरूप में ढल भी जाता है। यही है आत्म-सत्ता के प्रति विश्वास, श्रद्धा के अवलम्बन की शक्ति जो किसी साधारण मानव को महामानव, देवपुरुष की श्रेणी में ला खड़ा कर देती है।


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