॥कावाविमुक्तिर्विषयेविरक्तिः॥

February 1988

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आनन्द की उपलब्धि में, सफलता के सुयोग में एक बाधा है - अपनी स्वनिर्मित क्षुद्रता। हेय गतिविधियाँ अपनाकर ही मनुष्य अपने लिए संकट खड़े करता है और विपन्नताओं में फँसता है।

मकड़ी अपने लिए जाला स्वयं बुनती है और उसमें फँसकर स्वयं ही बंधन में बँधती है। जिस शिकार को पकड़ने के लिए यह श्रम किया गया था, उसकी सफलता में संदेह है। हो सकता है कि कोई शिकार न भी फँसे। पर अपने हाथ-पाँव जकड़ जाना तो निश्चित ही है। रेशम की कीड़े अपने लिए स्वयं ही खोल बनाते हैं और उनमें कैद रहकर दुर्भाग्य को कोसते हैं। गूलर के भुनगे उसी छोटे दायरे में दिन गुजारते रहते हैं। वे चाहें तो तनिक से प्रयास से छेद करके अपने को बाहर निकाल सकते हैं और स्वच्छन्द वातावरण का आनन्द ले सकते हैं।

दुर्गुणों को स्वभाव में सम्मिलित कर लेना और कुमार्ग पर चल पड़ना ही वह दुर्भाग्य है जो किसी के बुलाने और अभ्यास करने पर ही साथ देने को तैयार होता है। यह किसी का थोपा हुआ नहीं होता वरन् अपने ही प्रयास द्वारा विनिर्मित किया जाता है। कोई चाहे तो इस प्रयास से अपना हाथ खींच सकता है और वह स्थिति प्राप्त कर सकता है जिसे सुख शान्ति भरी बंधन मुक्ति कहा जा सके। मुक्ति वस्तुतः विषयों से वैराग्य पा लेने की मनःस्थिति का नाम है।


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