आरोह तमसो ज्योतिः

February 1988

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हम बाह्य जीवन के बारे में सुविस्तीर्ण दृश्य जगत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। इन विषयों की विवेचना करते, व्याख्यान देते जी नहीं अघाता है। बहस करते और वाद-विवाद प्रतियोगिताएं भी जीतते हैं। पर आश्चर्य तो इस बात का है कि ढेरों की ढेरों जानकारियाँ रखने वाले को अपने बारे में कुछ भी नहीं पता है। अपनी सत्ता और महत्ता के बारे में हमारा ज्ञान नहीं के बराबर है। बहिर्मुखी जीवन बाह्य संसार में ही व्यस्त रहता है और यथार्थता के समझने की न तो आवश्यकता समझता है, और न समय पाता है। यदि अपने वास्तविक स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य का सही ढंग से भान हो जाय और संसार के साथ अपने संबंधों को ठीक ढंग से जानकर सुधार लिया जाए तो सामान्य सा दीखने वाला मानवी अस्तित्व महानता और दिव्यता से ओत-प्रोत हो सकता है।

अमेरिकन म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री के पक्षी विभाग में एसोसियेट क्यूरेटर द्वारा जो विवरण प्रकाशित किए गए हैं, उनसे पता चलता है कि न्यूगिनी स्थान के आदिवासी किस तरह अपने क्षेत्र में भटक जाने वालों को जिन्दा भून कर खा जाते थे। उसी खतरनाक क्षेत्र में पक्षियों की खोज के लिए एक दल गया। पापुआन क्षेत्र में मियाओं कबीले के लोग अपने क्रूर कर्मों के कारण कुख्यात है। इस इलाके में किसी खास सुरक्षा व्यवस्था के बिना किसी को जाने की अनुमति नहीं है। पर खोजी दल के सदस्य किसी तरह वहाँ जा पहुँचे और सभी सदस्यों को रोमाँचकारी ढँग से मार दिया गया।

पादरी आइवोस्केफर ऐसे क्षेत्र में लगभग 45 वर्ष से इन नरभक्षी दरिन्दों के बीच महात्मा ईसा का सन्देश सुनाने के लिए रहे। उन्होंने अपने कार्य व्यवहार से वहाँ के निवासियों को प्रभावित कर दिया। उन्हें वे सभी पवित्र आत्मा मानते थे और नुकसान की अपेक्षा सम्मान ही करते थे।

शुरू-शुरू में उस निष्ठावान किन्तु क्रिया–कुशल पादरी ने किस प्रकार इन लोगों के बीच अपने सामान्य ज्ञान के बल पर स्थान पाया। इस बारे में उसने अपनी नोट बुक में लिखा है कि इस इलाके में प्रथम बार जाने पर उन्हें इन नर-माँस लोलुपों द्वारा घेर लिया गया। लगभग 40-50 व्यक्ति भाले-बरछी लेकर हमको घेर कर नाचने लगे। यह हर्ष प्रदर्शन इसलिए था कि दो मनुष्यों खासकर गोरों का ताजा सुस्वादु माँस खाने को मिलेगा। इसी कारण निश्चिन्त होकर गीत गा रहे थे और प्रसन्नता प्रकट कर रहे हैं।

इस बीच पादरी ने युक्ति से काम लेने की सोची। उसने अपने झोले से एक दर्पण निकाला और उन आदिवासियों के सरदार के सामने कर दिया। उसने जैसी अपनी शक्ल आइने में देखी डर गया। शीशा तो उन लोगों के लिए बिल्कुल नई चीज थी। एक-एक करके पादरी ने उन सभी को शीशा दिखाया। वे सब भयभीत हो गए। सोचने लगे कि यह आदमी जरूर कोई बड़ा जादूगर है। इसे मारने से कोई विपत्ति आ सकती है। अस्तु वे अपने भाले-बरछी वहीं फेंककर उसे आस-पास आशीष वरदान पाने के लिए सिर झुका कर बैठ गए। अब पादरी ने एक दूसरा चमत्कार प्रस्तुत किया। उसने अपने मुख से नकली दाँतों की बत्तीसी निकाली दाँत उन्हें दिखाए, मुँह का पोपलापन दिखाया फिर दाँतों को लगाकर, पहले जैसा मुँह बना लिया। इस नए चमत्कार को देखकर आदिवासी हैरतंगेज रह गए। उन्हें पूरी तरह से भरोसा हो गया कि यह कोई विलक्षण जादुई व्यक्ति है। इतनी मान्यता बना देने पर पादरी का कार्य सरल हो गया। वह वहाँ चैन से अपना कार्य उस क्षेत्र में करने लगे और अपने धर्म प्रचार के प्रयोजन में सफल रहा।

इन पादरी महाशय के उदाहरण से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है कि नैतिक और सामाजिक विकास के लिए वास्तविकता का बोध कितना आवश्यक है पर ज्ञान संबंधी वे उपकरण जो मनुष्य को माध्यम के रूप में मिले है एक सीमा तक ही जानकारी दे पाने में सक्षम है। वेदान्त ने इसी कारण ऐसी अनुभूतियों को मिथ्या माना है और निरपेक्ष शाश्वत ज्ञान की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करने का निर्देश दिया है। ज्ञानेन्द्रियों की एक सीमा मर्यादा है। इन्हें पूर्ण मानना भूल होगी। इस जगत में भिन्न-भिन्न कारणों से भिन्न-भिन्न शब्द कंपन सुनने में सूक्ष्म है जिनकी गति 33 प्रति सेकेंड से 40 प्रति सेकेंड होती है। इससे कम या ज्यादा गति कम्पनों को कान नहीं पकड़ पाते हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने एक विशेष सीटी का निर्माण किया है जिसे कुत्ता तो सुन लेता है समझ लेता है पर पास खड़ा मनुष्य बिल्कुल नहीं सुन पाता और हक्का–बक्का देखता रहता है। मनुष्य की सुनने की परिधि के बाहर विचरण करने वाला प्रवाह इतना ज्यादा है। जिसकी तुलना में सुनाई देने वाला हिस्सा लाख करोड़वां ही है। इतनी थोड़ी सही ध्वनि सुन सकने वाले कानों को शब्द सागर की कुछ बूँदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में तो अनजान ही बने रहते हैं। इस अधूरे उपकरण के द्वारा ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को स्वल्प कहा जाना ही नीति संगत होगा। उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तुस्थिति समझने का दावा कोई कैसे कर सकता है?

स्पर्शेंद्रिय के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की ही भाँति अधूरी है और भ्रान्त भी। हाथ पर थोड़ी देर बर्फ रखें रहे फिर उसी हाथ को साधारण जल में ‘डुबोये’ तो लगेगा पानी गरम है। तत्पश्चात् हाथ पर कोई गरम चीज रखें फिर हाथ को उसी पानी में डुबोये तो लगेगा कि पानी ठण्डा है। जबकि पानी का तापमान तो जैसा का तैसा है। हाथ पर बर्फ और गरम चीज रखने से अनुभव भिन्न-भिन्न हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा जो कुछ का कुछ बताती है। इसके माध्यम से तो समग्र सत्य को समझने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अपनी आँखें सघन रात्रि में घोर अंधकार का अनुभव करती है कुछ भी देख पाने असमर्थ होती है। जब कि उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, चीता, बिल्ली आदि प्राणी भली प्रकार देख सकते हैं। विज्ञान स्पष्ट करता है कि अन्धकार नाम की कोई चीज दुनिया धरती पर है ही नहीं।

मनुष्य की आँखें एक सीमा तक के ही प्रकाश कम्पनों को देख सकती है। जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्र सीमा से कम होती है तो अंधकार प्रतीत होता है।

आकाश में अनेक रंग के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश कम्पन विद्यमान होते हैं। मनुष्य की आँखें उनमें मात्र सात रंगों की थोड़ी - सी प्रकाश तरंगों का ही अनुभव कर पाती है, शेष को देख पाने में असमर्थ होती है।

यदि किसी को “रैटिनाइटिस विग मेन्टोजा” रोग हो जाय तो उसे सीधी रेखा भी धब्बे या बिन्दुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही देखने पर लगता है कि वह नीली चादर वाला गोलाकार पर्दे जैसा है और उसमें समतल सितारों टंके हुए हैं। पर क्या यह ज्ञान सही है? क्या आकाश उतना ही बड़ा है जितना दिखाई देता है? क्या तारे उतने छोटे हैं, जितना कि हमारी आँखें देखती है? क्या वे सभी समतल हैं? क्या आकाश सचमुच नीला है? इन अनेक सवालों का जवाब खगोल शास्त्र के ज्ञान भण्डार में देखें तो ऐसा मात्र होगा नहीं” पर इन आँखों को क्या कहा जाय जो वास्तविकता से भिन्न जानकारी देकर भ्रम में डालती हैं।

यही हाल घ्राणेन्द्रिय का है। हमें कितनी ही वस्तुएं गन्धहीन लगती है। पर वस्तुतः उनमें गन्ध होती है और उनके स्तर अगणित तरह के होते हैं। प्याज लहसुन की महक लगते ही कितने ही ऐसा तिरछा मुँह बनाते वहाँ से भागने लगते हैं, पर कितनों को इस गंध के महसूस होते ही मुख में पानी आ जाता है। यही बात सिगरेट, शराब आदि के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका की गवाही को प्रामाणिक कैसे ठहराया जाय?

जिह्वा तो हमें चित्र विचित्र स्वादों की अनुभूति कराती है। विभिन्न प्रकार की चाट-रसगुल्ले, जलेबी, संदेश की याद आते ही चटखारे भरने लगती है, पर क्या यह सब सही है? वस्तुस्थिति तो यह है कि खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते है उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करती है। यही सच होता तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊँट को भी कड़वे व कसैले लगते और वह उन्हें न खाता? ऊँट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा अनुभूति से बिल्कुल भिन्न होता है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारी जीभ वास्तविक स्वाद को पकड़ नहीं पाती। भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ के अनुसार भिन्न स्वाद अनुभव करते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ स्वीकार नहीं करती, पर शूकर के लिए वही परम स्वादिष्ट है और वह खूब आनन्द से खाता है। बुखार रहते मुँह में छाले हो जाने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस आधी अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इन्द्रिय को सत्य की साक्षी के लिए कैसे स्वीकारा जाय?

इसी कारण तत्त्ववेत्ताओं ने यथार्थ ही कहा है “कि हर व्यक्ति का अपना मनोनिर्मित संसार है, वह उसी अपनी बनाई दुनिया में विहार करता है। पर सही माने में यह दुनिया है कैसी? इस सवाल का एक ही जवाब दिया जा सकता है कि यह जड़ परमाणुओं की नीरस व कोलाहलपूर्ण हलचल भर है। यहाँ तो परमाणुओं, अणुओं की धूल बिखरी है और किन्हीं प्रवाह में इधर-उधर दौड़ती-भागती रहती है। इसके अलावा यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं जिसे रूपवान, कुरूप अच्छा बुरा की संज्ञा दी जा सके।”

सही माने में तो संसार वह है ही नहीं जिसे हम देखते और अपने ऊपर आरोपित कर लेते हैं। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों के भुलावे, भ्रम में न आकर साधना उपासना से प्राप्त अंतर्दृष्टि से निहारें तो स्पष्ट होगा कि सारा का सारा भ्रमण जंजाल मिटता जा रहा है और यथार्थता वास्तविकता सामने आ रही है। इस वास्तविकता के बोध होने पर तो परम सत्ता ही कण-कण में व्याप्त तथा अपना अन्तःकरण भी उसे से ओत-प्रोत दिखाई देगा और सर्वत्र आनन्द का साम्राज्य ही होगा और उसके मध्य में होंगे भली भाँति आनन्दामृत से परितृप्त हम। अच्छा हो ऐसी वास्तविक बोध की दुनिया में जिया जाय। अपनी अंतर्दृष्टि का जाग्रत कर यथार्थता वस्तुस्थिति से समझने पाने में प्रयत्नशील हुआ जाय। इसीलिए ऋषि कहते आए हैं - “अविद्या से निकलकर ज्ञान की ओर प्रकाश और बढ़ो”।


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