मरणोत्तर जीवन एक परिचय

February 1988

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कई घंटे तक अनवरत कार्य करने पश्चात् व्यक्ति थक कर चूर हो जाता है। फिर उसे विज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। यदि इस समय उसे कुछ सुस्ताने का अवसर न मिले, तो आगे का कार्य वह उस दक्षता से न कर पायेगा, जैसा कि आरंभ में करता था, पर जब वह कुछ समय आरा कर लेता तो पुनः उसमें नवजीवन का संचार हो जाता है और कई उमंग व स्फूर्ति से कार्यारंभ करता है। मरणोत्तर जीवन को भी दो जन्मों के बीच का विश्रान्ति काल माना जा सकता है जिसमें जीवात्मा अपनी थकान मिटाती और अगले जन्म की तैयारी करती है। यह अब सर्वमान्य तथ्य है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, वरन् कलेवर-परिवर्तन मात्र है, इस मध्यान्तर काल में भी वह सर्वथा निष्क्रिय नहीं बन जाती, अपितु सक्रिय रहकर अपनी प्रकृति के अनुरूप लोगों को संत्रास देती अथवा सहयोग सहकार कर निहाल बनाती रहती है।

इस सूक्ष्म स्थिति में व्यक्ति स्वयं को लगभग उसी दशा में अनुभव करता है जैसा कि जीवित अवस्था में था। अन्तर मात्र इतना होता है कि भौतिक शरीर में स्थूल इन्द्रियों के माध्यम से उसे जो प्रत्यक्ष सुख मिल सकता था वही नहीं मिल पाता। किन्तु यह बात नहीं कि सूक्ष्म शरीर स्वाद की अनुभूति कर ही नहीं सकता। इस शरीर की इन्द्रियाँ इसका आनन्द उठा सकती है, मगर वह स्थूल अंग-अवयवों की भाँति पदार्थों का उपभोग और उदरस्थ करने का रसास्वादन नहीं ले पाती। इस दशा में मृतात्मा को इस भौतिक संसार के सब कुछ उसी प्रकार सुस्पष्ट दीखते हैं, जैसा कि रक्त-माँस के शरीर में उसे दिखाई पड़ता था, पर स्वयं वायुभूत होने के कारण वह दूसरों को नहीं दीखती। हाँ इतना जरूर है कि अन्यों के शरीर एवं मस्तिष्क में प्रवेश कर वही अपनी उपस्थिति व अस्तित्व की अनुभूति उन्हें करा सकती है। पंचभौतिक शरीर नहीं होने के कारण वह अपने विचार स्वयं तो प्रकट नहीं कर सकती, परन्तु दूसरों को माध्यम बनाकर ऐसा करने में समर्थ होती है। मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व एवं उसके क्रियाकलापों का प्रमाण ऐसे आधारों से मिलता है, जिनकी यथार्थता तथ्यों की कसौटी पर कसे जाने के बाद सर्वथा सत्य सिद्ध हुई है।

सर ओलिवरलॉज ब्रिटेन के चोटी के वैज्ञानिकों में रहे हैं। कई विश्वविद्यालयों से उच्चस्तरीय डिग्रियाँ व स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया एवं “ब्रिटिश साइंस एसोसियेशन” के अध्यक्ष पद पर आसीन रहकर अनेक महत्वपूर्ण खोजें उनने की। विज्ञान की ही तरह अध्यात्म में भी उनकी गहरी रुचि थी, अतः इस क्षेत्र में भी उनने अनेक शोध कार्य किये। आत्मा के अस्तित्व की सत्यता परखने के लिए उन्होंने “साइकिक रिसर्च सोसायटी” की स्थापना की व अपने गहन अनुसन्धानों एवं शोध सर्वेक्षणों से न केवल आत्मा की अनश्वरता का पता लगाया, वरन् मरणोत्तर जीवन की यथार्थता को भी सिद्ध किया। इतना ही नहीं, मृतक आत्माओं से संपर्क साधने में भी असाधारण सफलता प्राप्त की। सर ओलिवर लॉज के शोध कार्यों एवं गहन अनुभवों का उल्लेख उनके समकालीन वैज्ञानिक सर विलियम कुक्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “रिसर्च इन टु दि फेनोमेनन ऑफ स्प्रिचुएलिज्म” में किया है।

सर लाँजी की सफलता से प्रोत्साहित होकर इंग्लैण्ड में “सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च” नामक और भी बड़ी संस्था की स्थापना इस विषय पर और व्यापक अध्ययन के लिए की गई। संस्था के सदस्यों ने मरणोपरान्त जीवन की सत्यता परखने के लिए अनेकानेक गोष्ठियाँ आयोजित की जिनमें मृतात्माओं से संपर्क साधने वाले उपयुक्त माध्यमों का चुनाव किया गया। ऐसे माध्यमों में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की प्रो0 श्रीमती बैराल व उनकी पुत्री कु0 हेलेन, प्रख्यात अंग्रेजी कवि रुडयार्ड किपलिंग उनकी बहज श्रीमती फ्लेमिंग और अमेरिकी भूभौतिकीविद् श्रीमती पाइपर जैसे मूर्धन्य स्तर के वैज्ञानिक एवं विद्वान सम्मिलित थे। इन व्यक्तियों ने जिन दिवंगत आत्माओं से संपर्क साधे, उनके विचारों, सूचनाओं और जानकारियों को जनसामान्य की तुष्टि के लिए रिकार्ड कर प्रमाण स्वरूप सुरक्षित रखा गया। यहाँ तक कि संपर्क साधने वाले व्यक्तियों के माध्यम से मृतात्माओं द्वारा लिखी गई हस्तलिपि भी रिकार्ड रूप में रखी गयी। इसी प्रकार “क्राँस-कारेस पाँण्डेन्स” प्रक्रिया के माध्यमों द्वारा सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं के संबंध में ऐसे प्रामाणिक तथ्य हस्तगत हुए है।

एक घटना प्रथम विश्वयुद्ध के समय की है। युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था। 7 दिसम्बर अपराह्न साढ़े तीन बजे “रॉयल फ्लाइंग कौर्प्स” के लेफ्टिनेंट जे0जे0 लारेकिन अपने कमरे में आग तापते हुए पुस्तक पढ़ रहे थे तभी कमरे के बाहर बरामदे में किसी की पदचाप सुनाई पड़ी। मुड़कर देखा तो उनके चिर–परिचित मित्र अफसर डेविड मैक काँनेल अपनी वायुसेना की वर्दी में खड़े थे। संक्षिप्त बातचीत के दौरान उनने बताया कि “मैं एक महायात्रा पर जा रहा हूँ। मेरे परिवार की जिम्मेदारी अब तुम सम्भालना।” इतना कह कर वह गायब हो गये। लारकिन को कुछ समझ में नहीं आया। क्योंकि एक सप्ताह पूर्व ही मैक काँनेल की चिट्ठी आयी थी, जिसमें उनने अपने एक माह बाद आने की बात लिखी थी। फिर इतनी जल्दी बिना पूर्व सूचना के कैसे आ गये और अचानक पुनः गायब कहा हो गये? यह सब कुछ उन्हें तिलिस्म–सा प्रतीत हो रहा था, मानो वास्तविकता इसमें कुछ हो ही न। अभी वे इसी ऊहापोह में थे कि उन्हें समाचार मिला कि अभी-अभी मैंक काँनेल की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। श्री लारकिन ने अपनी पुस्तक में लिखा है - “मुझे इस घटना पर सहसा विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब एक अन्य मित्र ने मुझे काँनेल की मृत्यु के समय की उसकी पोशाक व दुर्घटना के समय का उल्लेख किया, तभी मैं इस पर विश्वास कर सका।

शोध के दौरान इस प्रकार के अगणित प्रमाण उदाहरण प्रकाश में आये, जो मरणोत्तर जीवन की वास्तविकता को असंदिग्ध सिद्ध करते हैं। इस संदर्भ में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के परामनोविज्ञानी प्रो0 एच0पी0 प्रायस का कहना है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। यह लगभग वैसी ही प्रक्रिया है जैसी पानी से भाप बनने की है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार पानी से भाप बन जाने के बाद जल का अस्तित्व सूक्ष्म और अदृश्य हो जाता है किन्तु इतने पर भी जल की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। ठीक उसी प्रकार जीवन और मृत्यु के मध्य एक अविच्छिन्न संबंध है। जब उपयुक्त समय आता है। तो यह सूक्ष्म सत्ता भौतिक शरीर धारण कर अपनी अमरता का प्रमाण परिचय देती है। वे आगे कहते है कि मरने के बाद भी हमारी गतिविधियों में कोई अन्तर नहीं आता। वे वैसी ही बनी रहती है जैसी स्थूल शरीर में थी। इस आधार पर उनने अशरीरी आत्माओं को दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा है - दुरात्माएं और सदात्माएं। दुरात्माएं वे है जो इहलौकिक जीवन की भाँति ही मृत्युपरान्त भी अपने विध्वंसक क्रियाकलापों में संलग्न रहकर दूसरों को प्रताड़ित करती है, जबकि सदात्माओं की प्रवृत्ति वैसी ही सहयोग सहकारजन्य बनी रहती है। उनका मत है कि इन आत्माओं से संपर्क सान्निध्य के जो सामान्य प्रयोग-प्रयास चलते हैं उनमें से अधिकाँश में बुरी आत्माएं ही संपर्क में आती है, जो उल्टी सीधी जानकारियों देकर लोगों को बहकाने की कोशिश करती रहती है।

उनके इस कथन की पुष्टि “दि सोसायटी फॉर साइकिकल रिसर्च” संस्था ने भी की है। शोध सर्वेक्षण के आधार पर अनुसंधानकर्मियों का कहना है कि श्रेष्ठ आत्माएं उच्चस्तरीय आत्माएं होती है पर उनसे संपर्क साधना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। ऐसे ही व्यक्ति उनसे सूक्ष्म संबंध स्थापित करने में सफल हो पाते हैं, जो शुद्ध हृदय, पवित्र मन और सात्विक वृत्तियों वाले होते हैं। इस संदर्भ में लिखी गई पुस्तकों में “दि टीचिंग्स ऑफ दि ट्वेल्व अपोस्टलस” एवं “दि शेफर्ड ऑफ हर्म्स” अत्यधिक लोकप्रिय व प्रामाणिक मानी जाती है। इनमें लेखक ने ऐसे अनेक प्रामाणिक घटनाओं का वर्णन किया है, जिसमें अनेक व्यक्ति ऐसे पितर एवं देव स्तर की आत्माओं से संपर्क कर संकटकालीन घड़ी से उबरे और अनेक अवसरों पर लाभान्वित हुए। यदि हम भी अपनी भावनाओं और वृत्तियों में यत्किंचित परिष्कृति ला सकें, तो कोई कारण नहीं कि ऐसी आत्माओं से सत्परामर्श प्राप्त कर लाभ नहीं उठा सकते।


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