स्वास्थ्य - रक्षा की अतिमहत्वपूर्ण शिक्षा

February 1988

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शिक्षा और विद्या के व्यापक विस्तार का काम जहाँ भाव संवेदना सम्पन्न प्रतिभाओं को अपने हाथ में लेना है, वहाँ उन्हें भौतिक क्षेत्र की महत्ती आवश्यकता “स्वास्थ्य रक्षा” को भी अपने कार्यक्रमों का अविच्छिन्न अंग मानकर चलना है।

अस्वस्थ रहने वाला व्यक्ति स्वयं कष्ट सहता है। घर वालों को अपनी सेवा सहायता जुटाये रहता है। उपार्जन कुछ कर नहीं पाता, उल्टे दवा दारु, विशेष आहार आदि में अतिरिक्त धन खर्च कराता रहता है। ऐसे व्यक्ति आरम्भ में तो थोड़ी बहुत सहानुभूति पाते भी हैं पर अन्ततः वे अपने लिए और सबके लिए भार बन जाते हैं। समाज के लिए भी वे अनुत्पादक किन्तु व्यय भार बढ़ाने वाली निरर्थक इकाई समझ जाते है।

दुर्भाग्य से अपने देश में शारीरिक मानसिक रोगियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती ही जाती है। इसका कारण जहाँ आर्थिक सुविधाओं, पोषक आहार का उपलब्ध न होना एक है, वह दूसरा यह कि आहार, विहार, स्वच्छता, उपयुक्त श्रम, मानसिक संतुलन सही न रखना भी एक बड़ा कारण है। आदतों में घुसी जिन्दगी, अन्यमनस्कता, अस्त-व्यस्तता भी रुग्णता और दुर्बलता का एक बड़ा कारण है। जब तक जीवन चर्या में आवश्यक परिवर्तन नहीं होते तब तक यह सम्भव नहीं कि कोई व्यक्ति आवश्यक सुविधाएँ रहने पर भी स्वस्थ रह सकें। इस संदर्भ में बड़ी आयु वालों को भी, सुशिक्षितों को भी इसी प्रकार की समग्र शिक्षा देने पड़ेगी जैसी कि अनगढ़ों और अनपढ़ों को देनी पड़ती है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने की विद्या से आम आदमी एक प्रकार से अपरिचित ही है। इस क्षेत्र में वैसे ही शिक्षण की आवश्यकता है जैसी कि नौसिखियों और बालकों को आरम्भिक शिक्षण से शुरुआत करनी पड़ती है। जानना एक बात है और मानना दूसरी। मानने के क्षेत्र में लोग इतने अधिक पिछड़े हुए हैं मानों उसमें उनने न कभी स्वस्थ रहने की मूलभूत आधारों पर ध्यान दिया हो और न उन्हें अभ्यास में उतारने की आवश्यकता समझी हो। स्वास्थ्य रक्षा को जन-जन का एक अतीव आवश्यक विषय मानकर उस संदर्भ में उदार चेताओं को इस हेतु सुनिश्चित सेवा साधना करते रहने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।

स्वास्थ्य रक्षा के कुछ प्रमुख अग हैं - (1) सात्विक, सुपाच्य और सीमित आहार (2) वस्त्र, मकान, उपकरण आदि में कहीं गंदगी न पनपने देना (3) शारीरिक श्रम उतना करना जिसमें न आलस्य पनपे ओर न थकान बढ़े (4). दिनचर्या को नियमित रखना (5) प्रकृति के समीप रहना और उसके निर्देशों के अनुरूप चलना (6) मनोविकारों को न पनपने देना, सदा प्रसन्न चित, निश्चित और हल्की फुलकी हंसती-हंसाती जिन्दगी जीना (7) असंयम न बरतना (8) रोग होने पर चिकित्सा हेतु तेज दवाइयां न लेकर जड़ी-बूटियों पर रहना आदि आदि।

उपरोक्त सभी बातों को जन-जन के मानस में बिठाने के लिए लोक सेवियों को स्वास्थ्य रक्षा के लिए हर स्थिति में, हर क्षेत्र में कुछ ना कुछ करते ही रहना चाहिए। इसके लिए गाँव-गाँव आरोग्यशालाएं बननी चाहिए, प्राचीनकाल की व्यायामशालाओं की तरह। उन दिनों व्यायाम-शालाओं में कसरत प्रधान थी, पर अब उतने को ही पर्याप्त नहीं माना जाता, वरन् स्वास्थ्य रक्षा के हर पक्ष को हृदयंगम करने, व्यवहार में उतारने की योजना बनाकर चलना चाहिए और उसमें उपरोक्त विषयों को भी साँगोपाँग शिक्षा मिलनी चाहिए। तीन महीने में शांतिकुंज शिविरों में उपरोक्त सभी विषयों की इतनी जानकारी देने की व्यवस्था है जिसके आधार पर आपने-अपने परिवार के एवं संपर्क क्षेत्र के सभी जनों को स्वास्थ्य रक्षा के मार्ग पर चलाया जाता रहे। जिनके पास समय है, वे अपने यहाँ एक स्वास्थ्यशाला चलाने की भी व्यवस्था कर सकते हैं। यह कार्य अस्पताल खुलवाने की तुलना में कहीं अधिक egRowiw.kZ gSA mldk iq.; Hkh de ughaA foKkiu u gksus ij Hkh bl vk/kkj ij yksd lEEku ikus vkSj J)k Hkktu cuus dk volj feyrk gSA

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