लोक नायकों का अभिनव निर्माण

February 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

तीन महीने की शान्ति-कुँज की अभिनव शिक्षण व्यवस्था का प्रथम चरण है- शिक्षा संवर्धन। दूसरा सोपान है -विद्या का सद्ज्ञान का-उन्नयन। विद्या के बिना मात्र शिक्षा में उदरपूर्णा वाला कौशल भर हाथ आता है। व्यक्तित्व में मानवी गरिमा का समावेश तो उन आधारों के सहारे पूरा होता है जिन्हें सद्ज्ञान -संवर्धन कहते है। धर्म और अध्यात्म यही है। इसी के सहारे धर्मतन्त्र में लोक शिक्षण की प्रक्रिया पूरी होती है। मानवी गरिमा के अनेकानेक पक्षों का उच्चस्तरीय समाधान इसी आधार पर बन पड़ता है। पर्व संस्कार, धर्मानुष्ठान, सत्संग, तीर्थ यात्रा आदि कृत्यों को इसी निमित्त सम्पन्न किया जाता है।

प्राचीन काल में यह कार्य साधु, ब्राह्मण अपना समूचा जीवन समर्पित करके पूरा किया करते थे। पर वे दोनों ही वर्ण मात्र वेष और वंश तक सीमित रह गये है। उस महान उत्तरदायित्व को विचारशील, सेवाभावी वर्ग ही अपने समय का कुछ अंश देकर पूरा कर सकेगा। इसी प्रक्रिया को अति सफलतापूर्वक किस प्रकार किया जा सकता है।, इसकी शिक्षा तीन महीने वाले पाठ्यक्रम में समुचित रीति से समाविष्ट की गई है।

धर्म, अध्यात्म, अनेकानेक धर्मानुष्ठान मात्र मनुष्य के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का अधिकाधिक समावेश करने के लिए है। दृष्टिकोण का परिष्कार, व्यक्तित्व का निखार और सामाजिक गतिविधियों का सुधार इसी आधार पर बन पड़ना सुगम है कि दृष्टिकोण परिमार्जित किया जाये। मान्यताओं, आस्थाओं आकाँक्षाओं विचारणाओं को इस स्तर का बनाया जाय कि व्यक्ति निजी जीवन में आदर्शवादी और सार्वजनिक जीवन में सेवाभावी बन सके। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये इन दिनों साम्प्रदायिक प्रचलनों और कर्मकाण्डों की तो धूम है। वे ही सब कुछ बन बैठे हैं। इन्हीं के सहारे, मुक्ति, सिद्धी मिलने की कामना कर ली गई है। इस भ्रम जाल में उलझ जाने के कारण जन साधारण की न ता आत्मिक प्रगति हो पाती है, न ही लौकिक प्रयोजन सध पाते हैं। धर्म का प्रावधान इस उद्देश्य के लिए किया गया था कि व्यक्ति और समाज को भ्राँतियों, विकृतियों से बचाकर उन्हें मानवी गरिमा के अनुरूप ढाला जाए और प्रस्तुत असंख्य संख्याओं, उलझनों, संकटों, विग्रहों का सुस्थिर समाधान निकाला जाये। जीवन और समाज में छायी हुई अनेकानेक विकृतियों से जूझने, सुधारने का यह अति सरल और सर्वोत्तम मार्ग है कि पुरातन धार्मिक विधि-विधानों को समय के अनुरूप इस प्रकार ढाला जाए जिसमें सामयिक समस्याओं का समाधान भी जुड़ा हुआ हो और व्यक्तित्व का निखार भी। आयोजन भी ऐसे हों, जिनमें कम से कम खर्च पड़े और अधिक से अधिक लोग उनमें सम्मिलित होकर उपयोगी मार्गदर्शन प्राप्त करें।

इस प्रयोजन के लिए दीपयज्ञ की योजना बहुत सही और सफल सिद्ध हुई है। अपनी थाली में, अपने घर में तीन-तीन के पाँच गुच्छक और एक दीपक रखकर यज्ञकर्ता लाते हैं सभी एक स्थान पर एकत्रित होकर उस देव यज्ञ के समक्ष गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं। अन्त में देव दक्षिणा के रूप में एक सत्प्रवृत्ति अपनाने की प्रतिज्ञा करते है। इन दिनों पाँच प्रौढ़ अशिक्षित व्यक्तियों को शिक्षित बनाना अपने प्रभाव क्षेत्र में बिना धूम धाम, बिना दहेज की शादियाँ करना, हरीतिमा-संवर्धन वृक्षारोपण नशा-निषेध जैसी प्रतिज्ञाओं को प्रतिज्ञाओं को प्रमुखता दी जा रही है। यह आयोजन प्रवचन सम्भवतः प्रायः तीन घंटे में पूरे जो जाते है। उन्हें प्रातः काल भी किया जा सकता है और रात को भी। इनके प्रति लोकप्रियता असाधारण रूप से बढ़ी है और इस प्रवचन को व्यापक बनाने का आशातीत सुयोग बना है।

तीन-तीन महीने वाले सत्रों में सम्मिलित होने वाले सभी शिक्षार्थियों को अपने क्षेत्र के सभी गाँवों, नगरों, मुहल्लों में इन बिना खर्च वाले, आयोजनों की व्यवस्था कराने का ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे उत्साह उत्पन्न करने, व्यवस्था जुटाने और सफल बनाने के सभी पक्षों में से इस प्रकार का अभ्यास उन्हें करा दिया जाय कि व अपने समीपवर्ती सभी क्षेत्र में इन आयोजनों की धूम मचा सकें और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के लिए एक नया द्वार खोल सके।

इसके अतिरिक्त विद्या विस्तार के और भी कितने ही प्रयोजन है, जिनमें प्रज्ञा-पुराण की कथाओं का, रामायण भागवत की कथाओं की तरह सुनियोजित विस्तार किया जा सकता है। युग-संकीर्तन भी ऐसे ही कृत्यों में से एक है। वाद्य यन्त्रों समेत सामूहिक सहगान की प्रक्रिया ही युग-कीर्तन है, इनमें भी भगवान का नाम लेने के अतिरिक्त, अनेकानेक उपयोगी प्रेरणाएं भरी रहती है, जिनमें साथ बीच बीच में टिप्पणी जोड़ते चलने पर उन्हें लोक शिक्षण का महत्वपूर्ण अंग बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त स्लाइड प्रोजेक्टर के सहारे घरों में, मुहल्लों में आसानी से ज्ञान गोष्ठी की जा सकती है और जहां जिस स्तर के लोक शिक्षण की आवश्यकता है, वहाँ उसके लिए उसी प्रकार की विवेचना जोड़ी जा सकती है।

सद्ज्ञान प्रचार के लिए भी दो बातों की महती आवश्यकता है - 1. भाषण कला 2. संगीत कला। इन दोनों को ही छः महीने के प्रशिक्षण का प्रमुख अंग माना गया है। अन्य विषय तो ऐसे हैं, जिन्हें एक दिन बीच में छोड़कर भी सीखने का विधान रखा गया है, पर वक्तृत्व कला और संगीत शिक्षा के दो पाठ्यक्रम ऐसे हैं जो नित्य नियमित रूप से चलेंगे। प्रयत्न यह किया जाय कि हर शिक्षार्थी कुशल वक्ता होकर निकले। यह बड़े आयोजन और छोटी ज्ञान संगोष्ठियों का भली प्रकार संचालन कर सकें घरों में जन्म दिवस मनाने जैसे कार्यक्रमों के सहारे हर परिवार की विशेष स्थिति को समझते हुए उसके अनुरूप स्पष्ट मार्गदर्शन कर सकें और सत्प्रवृत्ति -संवर्धन की प्रतिज्ञाएँ करा सकें। यह सब कार्य बिना वक्तृत्व कला का विकास हुए समझ संभव नहीं। जन नेतृत्व के लिए यह एक अनिवार्य गुण है। इसकी क्षमता इन्हीं छः महीने वाले सत्रों में विकसित कर दी जाती है।

संगीत का अपना महत्व है। उसके आकर्षण और प्रभाव से सभी परिचित हैं। लोगों को एकत्रित करने और तक बिठाये रहने, अभीष्ट मार्ग दर्शन करते रहने का यह एक सरल उपाय है। देहातों में तो इसी माध्यम से छोटे बड़े आयोजन सफलतापूर्वक किये जा सकते है।

तीन महीने में हारमोनियम काम चलाऊ ही बजाना आ सकता है। समग्र कुशलता हेतु तो घर लौटते पर ही अभ्यास करना होगा। जिन्हें तीन महीने के स्थान पर छः माह या एक वर्ष तक ठहरने की विशेष अनुमति मिल जायगी वे हारमोनियम, बैंजो जैसे वाद्ययंत्रों को परिपूर्ण रूप में सीख सकेंगे। सिखाने की व्यवस्था तो सभी प्रकार की है, जो कम समय में सीखे जा सकते हैं, जिनका समुचित अभ्यास किया जा सकता है, उन्हीं को प्रधानतः तीन महीने के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। ढोलक, नाल बंगाली तम्बूरा, खड़ताल, मंजीरा, घुंघरू चिमटा, घड़ा जैसे सरलतापूर्वक सीख जाने वाले सुविधापूर्वक हर जगह मिल सकने वाले वाद्य यंत्र इस पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये गये है।

उपरोक्त समूची क्रिया प्रक्रिया ऐसी है, जिसके सहारे सद्ज्ञान संवर्धन का विद्या विस्तार का कार्य कोई भी लगनशील व्यक्ति अपने अपने क्षेत्र में भली प्रकार सुसंचालित कर सकता है।

इन सभी विद्यावर्धन के शिक्षणों के सहारे शिक्षार्थी इस योग्य बनता है कि अपने क्षेत्र में लोक नेतृत्व कर सकने में भली प्रकार सफल हो सके। इसके लिए आरंभिक रूप में धर्म प्रचार को माध्यम बनाया जा सकता है। पीछे आवश्यकतानुसार इस क्षमता का उपयोग सामाजिक, राजनीतिक, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन जैसे अनेकों क्षेत्र में इच्छानुसार किया जा सकता है। वस्तुतः इस समूचे प्रशिक्षण को लोकनायक युग सृजेता बनाने की उस योजना का अंग समझा जा सकता है जिसके अनुसार युग बदलने की सफल भूमिका निभा सकने वाले युग नायकों का नये सिरे से नव-निर्माण किया जाना है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles