दृश्यमान संसार के संबंध में कई बातें कही जा सकती है। एक यह कि भगवान ने इस सृष्टि को अपने स्तर की खेल खिलवाड़ करने के लिए रचा है। एक यह कि इसके अंतर्गत काम करने वाले नियमोपनियम इतने संतुलित है कि एक दूसरे से बिना टकराये अपना रास्ता बनाते और तालमेल बिठाते रहते है।
यह भी कहा जा सकता है। कि प्रकृति के हर घटक में अनन्त शक्ति भरी पड़ी है पर वह प्रसुप्त स्थिति में रहती है। यदि वह किसी प्रकार जग पड़े तो पदार्थ से लेकर मनुष्य का प्रचंड शक्तिशाली हो सकता है।
जहाँ एक ओर नियम हैं, वहाँ साथ ही इसके अपवाद भी मौजूद हैं। ऐसी दशा में यही उचित है कि सृष्टि की उन समस्याओं को जो अविज्ञात हैं - खोजने के स्थान पर अपने कर्तव्यों और आधारों का चिन्तन करना पर्याप्त समझें, जो हमें किसी अनुभूत एवं सुनिश्चित दिशा की ओर ले जाती है।
बड़ी शक्तियाँ छोटी शक्तियों का शोषण करें, यह प्राकृतिक नियम नहीं। प्रकृति आश्रित को जीवन देने और उसके विकास में सहायता करने का कार्य करती है। ‘छोटी पीपल’ महत्वपूर्ण औषधि है वह अपना विकास किसी घने छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है। इलायची, नारियल के वृक्ष की छाया में बढ़ती है। बड़ा पेड़ अपने नीचे के छोटे पेड़ों को खा ही जाय यह सार्वभौम नियम नहीं है। धरती से सूर्य और चन्द्रमा दोनों बराबर दिखाई देते हैं पर वस्तुतः सूर्य चन्द्रमा की तुलना में 400 गुना बड़ा है। इतना ही नहीं पृथ्वी से चन्द्रमा जितनी दूरी है, उसकी तुलना में सूर्य की दूरी भी 400 गुनी अधिक है। यही कारण है कि पृथ्वी से दोनों का आकार लगभग समान दीखता है।
इसके अतिरिक्त एक नई बात और भी है कि चन्द्रमा का आकार क्रमशः हर पूर्णिमा से छोटा होता जाता है कारण कि वह पृथ्वी से दूर हटता रहता है। पृथ्वी का सूर्य ज्वार-भाटों के समय उसकी शक्ति खींचता रहता है इसलिए उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति का घटना भी दूर हटने का प्रमुख कारण है। बताया जाता है कि यह दूरी हर महीने 30 हजार मील बढ़ जाती है।
जब चन्द्रमा की दूरी इतनी बढ़ जायगी कि समुद्र में ज्वार-भाटे लाने योग्य न रहे तो वह एक स्थान पर रुक जायगा और दुर्बल होने पर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उसे वापस अपनी ओर खींचने लगेगी। उन दिनों धरती का अपनी धुरी पर घूमना भी धीमा पड़ जायगा। तब दिन भी बड़े होने लगेंगे और महीनों का विस्तार भी बढ़ जायगा। तब सूर्य और चन्द्र ग्रहण भी वैसे सघन न दीखेंगे जैसे अब दीखते हैं। हो सकता है तब महीना 40 दिनों का होने लगे और दिन भी ड्योढ़ा बढ़ जायगा। समुद्र में ज्वार न उठना भी उसके पानी को अस्वच्छ बनाता जायगा। पर यह सब जल्दी नहीं हो रहा है। उसमें अभी हजारों वर्ष लगेंगे।
न्यू कास्टल विश्वविद्यालय, इंग्लैण्ड के लूनर एण्ड प्लेनेटरी साइंस विभाग के मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. केथ रनकोर्न के अनुसार कुछ समय पूर्व इस पृथ्वी कक्ष में दर्जनों चंद्रमा दृष्टिगोचर होते थे। परन्तु 4.2 से 3.9 अरब वर्ष पूर्व उनमें से एक दो को छोड़कर सभी गिरकर धूलि में मिलते चले गये। चन्द्रमा के इस प्रकार पतन का कारण बताते हुए उनने कहा कि उन सबका विषुवत् वृत्त के चारों और परिभ्रमण - पथ अस्थाई एवं अव्यवस्थित था।
नवीनतम खोजों में अपने सौर-मण्डल के उपग्रहों की सदस्यता के बारे में बताया गया कि मंगल पर 2, बृहस्पति पर 12, शनि पर 1, यूरेनस पर 5 और नेपच्यून पर 2 चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। मात्र हमारा एक चन्द्रमा ही सौरमण्डल का एक उपग्रह नहीं है। कुल मिलाकर इनकी संख्या 31 है। इनमें से सर्वाधिक तीव्रगामी चन्द्रमा की भी पहचान की गई है, जो प्रत्येक सात घंटे में एक बार बृहस्पति का चक्कर लगा लेता है। इस उपग्रह की भ्रमण गति 70400 मील प्रति घंटा अर्थात् पृथ्वी कक्ष में स्थित चन्द्रमा से तीन गुनी अधिक है।
खगोल विज्ञानियों ने सौर-परिवार के सबसे गरम पिण्ड - ‘आयो- को खोज निकाला है। ‘आयो- बृहस्पति का एक चन्द्रमा है जो अभी तक ज्ञात सभी उपग्रहों से सर्वाधिक गरम है अमेरिकी अंतरिक्ष यान वोयेजर द्वारा इन्फ्रारेड टेलिस्कोप से किये गये एक अध्ययन के अनुसार यह ग्रह पिण्ड करीब 701ग1012 वाँट ऊर्जा उत्पन्न कर रहा है। जिस प्रकार पृथ्वी का चन्द्रमा समुद्र तल पर खिंचाव उत्पन्न कर उनमें ज्वार भाटे उत्पन्न करता है, उसी प्रकार बृहस्पति भी सम्पूर्ण ‘आयो’ पर एक प्रकार का अकर्षण बल आरोपित करता है, जिससे उसका आकार कुछ टेढ़ा हो जाता है। इस बल के कारण उसमें उत्पन्न झुकाव से गर्मी पैदा होती है और गर्भ में स्थित द्रव्य पिघल कर द्रव अवस्था में आ जाता है। द्रवीभूत सगंधक समय-समय पर चन्द्रमा के बाह्य पटल को छेदकर बाहर निकलता रहता है और ज्वालामुखी का कारण बनता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस चन्द्रमा में गर्मी उत्पादन और उत्सर्जन का एक चक्र चलता रहता है जिसके परिणामस्वरूप ज्वालामुखियों का निर्माण होता है। जिस समय गर्मी बढ़ती है, उस समय ‘आयो’ अत्यन्त ठंडा हो जाता है, क्योंकि उस वक्त इस तपन को वह अपने गर्भ में छिपाये रहता है जो आगामी ज्वालामुखी श्रृंखला के रूप में बाहर आ जाती है, जिसका अस्तित्व कई दशकों तक बना रहता है।
अन्तरिक्ष में सबसे समीपवर्ती तारा प्रथम किन्नरी है जो हमसे प्रायः चार प्रकाश वर्ष दूर है। यह सभी दृश्यमान तारक अपनी आकाश गंगा के सदस्य है। अपनी मंदाकिनी आकाश गंगा का व्यास प्रायः एक लाख, उसकी मोटाई 20 हजार प्रकाश वर्ष है। इस मंदाकिनी परिवार में प्रायः डेढ़ अरब तारे हैं। वे सभी तो अपनी दूरी या प्रकाश न्यूनता के कारण दीख नहीं पाते, पर उनमें से हजारों ऐसे है जिन्हें हमारी आँखें देख पाती है। रात्रि को वे ही आकाश में टँगे, घूमते और जगमगाते दीखते हैं।
तारों का भी अंत होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह तीन प्रकार से हो सकता है। यदि तारा सूर्य के आकार का है तो इसका हाइड्रोजन ईंधन समाप्त हो जायेगा और यह एक लाल महादैत्य के रूप में विस्तृत होकर धीरे-धीरे सिकुड़ जायेगा। अंत में ठंडा होकर काले पदार्थ के रूप में बदल जायेगा जो इतना भारी होगा कि एक माचिस के बराबर पदार्थ में टनों भरा हो। यदि वह सूर्य से कुछ बड़ा हुआ तो एक “सूपरनोवो” के रूप में फूट पड़ेगा। जो और सघन न्यूट्रान छोड़ेगा। जिन्हें खगोलविद् “पुल्सर” कहते हैं। जो हमेशा रेडियो किरणें तथा कभी-कभी प्रकाश छोड़ा करते हैं।
यदि तारक सूर्य से बहुत ज्यादा बड़ा होगा तो इसका अन्त एक तरह की रहस्यमय पहेली है। इसका विस्फोट विपरीत दिशा में हो। इसके न्यूट्रान्स इसके गुरुत्वबल को सहन न कर सके। सभी कण पिसकर नष्ट हो जायं, जिन पर भौतिकी के नियम लागू न किये जा सकें। जिसे “ब्लैक होल” अवस्था कर सकते हैं।
हमारी मंदाकिनी में दो प्रकार के तारे हैं। छोटे और बड़े किन्तु तीसरे प्रकार के ब्लैक होल्स अभी खोज का विषय हैं। यह सत्य है कि आकाश में कुछ ऐसे स्थान है जिन्हें ब्लैक होल कहा जा सकता है। इनके पास से एक्स किरणों के विकिरण आ रहे हैं। इन पर खोज करना अभी बाकी है।
खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार आरंभिक महाविस्फोट के उपरान्त आकाश गंगाएँ एक दूसरे से दूर तेजी के साथ भाग रही है। इस घुड़दौड़ की गति को ‘लाल सरकाव’ (रेड शिफ्ट) कहते हैं। इसमें पड़ने वाले अब तक के अन्तर को देखते हुए यह अनुमान लगाया गया है कि महाविस्फोट हुए बीस अरब वर्ष बीते है। इस काल अनुमान के विज्ञान को ‘कास्मोगोनी’ कहा जाता है।
खगोल विद्या की अब अनेकों धारा- उपधाराएं बन गई है। रेडियो-एस्ट्रोनाँमी, एक्सरे-एस्ट्रोनाँमी, रे-एस्ट्रोनाँमी जैसी उपधाराओं के सहारे यह पता लगाया जाता है कि तारकों की गति, जवानी, प्रकृति एवं संभावना में क्या अन्तर पड़ा और अगले दिनों क्या परिवर्तन होने जा रहा है।
सौर मण्डल का ताजा नक्शा विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका “नेशनल ज्योग्राफी” में छपा है। उसके अनुसार सूर्य परिवार के सदस्य ग्रह-उपग्रहों से संबंधित मान्यताओं में भारी सुधार परिवर्तन किया गया है।
ग्रहों की संख्या में कुछ समय पूर्व ही तीन का नया समावेश हुआ है। यदि उनके विस्तार को प्रधानता न दी जाय तो छोटे ग्रह और भी इस परिधि में हैं जिन्हें स्वतंत्रतः सत्ता, धुरी, परिभ्रमण और सूर्य परिक्रमाओं की विशेषताओं के कारण ग्रह ठहराया जा सकता है और उनकी संख्या तीस से भी अधिक हो सकती है। जिस बहुचर्चित दसवें ग्रह की खोज सभी वैज्ञानिकों ने की है उसके बारे में कहा जाता है कि वह उल्टी दिशा में चक्कर काट रहा है। इसी तरह नेपच्यून के सबसे बड़े उपग्रह ‘ट्राइटोन’ के परिभ्रमण पथ के संबंध में भी सोवियत वैज्ञानिकों ने ढूंढ़ निकाला है कि वह अपने मूल ग्रह के विपरीत दिशा में परिभ्रमण कर रहा है, जिसके कारण कुछ लाख वर्ष बाद नेपच्यून से इसके टकरा जाने की पूर्ण संभावना है।
सृष्टि में संव्याप्त भौगोलिक शक्तियों का पारस्परिक संतुलन इतना बढ़िया तथा निर्णायक है कि उनमें कहीं भी व्यतिरेक या व्यवधान नहीं पड़ता है, परन्तु यदि संयोगवश ऐसा हुआ तो उनका आँशिक परिवर्तन भी समस्त मानव जाति के लिए विनाश का सूचक बन सकता है।
ब्रह्माण्ड परिवार के सदस्य ग्रह-नक्षत्र जहाँ विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं, वहीं उनमें वृद्धता, मरण और पतन का क्रम भी अपने ढंग से चल रहा है। उसे देखते हुए यह संभावना स्पष्ट है कि इस विशाल ब्रह्माण्ड को भी एक दिन मरण के मुख में जाना पड़ेगा। तारक और आकाश गंगायें स्वाभाविक वृद्धता के शिकार होकर मृत्यु के पास होते रहें और आगे होते रहेंगे। जब समस्त ब्रह्माण्ड बूढ़ा हो जायगा तो महाकाल उसे भी अपनी कराल दाढ़ों से चबाकर रख देगा। जन्म के बाद विकास, विकास के बाद मरण का सिद्धान्त तो ब्रह्माण्ड को भी लपेट में लिये बिना छोड़ने वाला नहीं है।
सूर्य को ही लें तो यह पाँच अरब वर्ष की आयु का है। उसकी परिधि में आये दिन हाइड्रोजन बम जैसे धमाके होते रहते हैं। प्रति सेकेंड उसका हाइड्रोजन 40 करोड़ टन के हिसाब से हीलियम में परिवर्तित होता रहता है। अनुमान है कि उसके पास यह ईंधन इतने ही समय के लिए और बचा है, जितने के सहारे कि अब तक गुजारा हो लिया। इसके बाद सूर्य का बुढ़ापा आ धमकेगा। गर्मी घटते जाने पर उसकी खाल लटकती जायगी और आकार बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में पहुँचे हुए तारे ‘लाल दानव’ कहे जाते हैं। वे पड़ौसियों को निगलते लगते हैं। बुध और मंगल तो पूरी तरह उसके पेट में समा जायेंगे। इसके बाद पृथ्वी की बारी आयेगी। हो सकता है वह उसके पेट की सीमित गर्मी से हजम न हो सके और उसके एक कोने में बैठी अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रहे।
उस स्थिति में सूर्य का तापमान घटने पर भी इतना होगा कि धरती के समुद्रों का पानी खोलने लगे। गरम बादलों का धुँध एक घेरा बना लें। उसमें प्राणियों का रहना संभव न हो सके। तब कदाचित पृथ्वी का मानव जीवन किसी अन्य उपयुक्त ग्रह की ओर वैसी ही दौड़ पड़े जैसे कि वह कभी पृथ्वी पर किसी अन्य लोक से आया था।
सूर्य का अन्त कैसे होगा, इसके संबंध में अनुमान लगाया जाता है कि दानव के रूप में उसकी चिता बुझते-बुझते मुट्ठी भर सफेद हड्डियों की राख रह जायगी। जब उसे ‘सफेद बौने’ का नाम दिया जाएगा। यह सफेदी भी क्रमशः कालिमा अपनाती जायगी। आश्चर्य इस बात का है कि विस्तार सिकुड़ने पर भी वजन न घटेगा। सफेद या काले बौने की स्थिति में रह रहे सूर्य के एक इंच घेरे में एक टन से अधिक वजन होगा।
कितना भौचक्का कर देते हैं विराट से संबंधित तथ्य हमें? प्रकृति का सम्पूर्ण परिकर जहाँ एक ओर अनुशासित सत्ता के नियमों के अधीन चालित दृष्टिगोचर होता है, वहीं दूसरी ओर अविज्ञात एवं अपवादों से भरा विराट् का यह वैभव यह भी बताता है कि हमारे ज्ञान की एक सीमा है। इससे ऊँचे उठकर अनुभूति के स्तर पर अंतर्दृष्टि के सहारे ही उस परमसत्ता को जाना जा सकता है।