दूरदर्शी विवेकशीलता “धीः”

February 1988

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(दिसम्बर 87 अंक से आगे)

सातवाँ चिन्ह धर्म का धीः है। धीः अर्थात् समझदारी, बुद्धिमानी। लोक व्यवहार में तो इन्हीं के सहारे काम चलता है। अनगढ़ बिखरी परिस्थितियों में से जो अपनी परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप हैं उन्हें चुन लेना। जो चुना जाने को है उसके लाभ हानि, उचित अनुचित के हर पक्ष पर गंभीरतापूर्वक ऐसा विचार करना, जिसमें गलत चयन करने का बाद में पश्चाताप न करना पड़े। बुद्धिमान ही इस मेले में से अपने काम की सही चीज चुन पाते हैं अन्यथा इस सुविस्तृत मेले में ऐसे आकर्षणों की भरमार है कि हर वस्तु ललचाती है और अपने ऊपर मक्खी की तरह टूट पड़ने का इशारा करती है। उस भ्रम - जंजाल में भटक जाने वाले खरीदते और कड़ुवापन चख कर फेंकते रहने में ही जिन्दगी के दिन पूरे कर लेते हैं।

अक्लमन्द तो कभी-कभी धूर्तता, चतुरता, उच्छृंखलता और अपराधी दृष्प्रवृत्तियों के साथ भी साझीदारी कर लेते हैं। ऐसी दशा में जो जितना अक्लमंद है वह उतना ही धूर्त, ठग अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाता है और धोखेबाजी विश्वासघात के नये-नये तरीके ढूँढ़ निकालता है। उक्त के सहारे बुरी से बुरी बात के समर्थन में भी तर्क दिये जा सकते हैं। मन ऐसा वकील है जो किसी भी पूर्वाग्रह की वकालत इस तरह कर सकता है कि झूठी बात भी सच प्रतीत होने लगे और सच्चाई के औचित्य पर संदेह उठने लगे।

जेलखानों में जाकर वहाँ बन्द अपराधियों से भेंट मुलाकात की जाय तो प्रतीत होगा कि दुनिया की आधी अभी चतुरता, अक्लमंदी इसी वर्ग के हिस्से में आई है और दुनिया ने उसे स्वतंत्र विचरण करने तक से रोक दिया है। इनके कृत्यों की कथा सुनी जाय तो प्रतीत होगा कि वे चकमा देने और दुस्साहस दिखाने में कमाल ही करते रहते हैं। ऐसी अक्लमन्दी को धिक्कारा ही जा सकता है उसकी तुलना में मूर्ख कहे जाने पर सरल सीधे लोगों की प्रशंसा की धर्म धारणा की सातवीं धारा “धीः” नीति समर्थक और भावी परिणामों का सही चित्र खींच सकने वाली उस दूरदर्शी विवेकशीलता से है जो मनुष्य को भौतिक क्षेत्र में राजहंस और अध्यात्मक क्षेत्र में परमहंस बनाती है।

साधारण हंस तो तालाबों में रहते और कीड़े, मकोड़े खाते रहते हैं। पर राजहंसों के बारे में कवि कल्पना यह है कि वे नीर क्षीर का विश्लेषण और पृथक्करण कर सकते हैं। दूध और पानी मिला हुआ हो तो वे केवल दूध पियेंगे। और पानी को छोड़ देंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि अगणित प्रतिपादनों, क्रिया-कलापों का कोलाहल कितना ही क्यों न मचा रहे वे उस जंजाल में से उसी को चुनते हैं जो आदर्शों की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरे उतरते है और जिनका उच्चस्तरीय मेधा, प्रज्ञान समर्थन करती है। इसके अतिरिक्त जो तर्क और उदाहरण घटिया दर्जे के होते हैं। उनका सहज तिरस्कार करते हैं।

राजहंसों की एक और भी विशेषता है कि वे मोती ही चुगते है। कीड़े मकोड़ों के लिए चोंच नहीं खोलते। कवि कल्पना के इस राजहंस का कृत्य हर दृष्टि से सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। हमारी उपभोग्य सामग्री शालीनता की कसौटी पर सर्वथा खरी और सही होनी चाहिए। मोती की प्रतिष्ठा इसी रूप में है। वह दिव्यलोक से बरसने वाली स्वाँति बूँदों का ही अनुदान है। राजमुकुटों में धारण किया जाता है। उसकी चमक साधारणतया उतरती नहीं।” राजहंस अपना आहार इन्हीं मोतियों को बनाता है अन्यथा भूखा मर जाता है। कीड़े मकोड़ों के लिए चोंच नहीं खोलता। इस समूचे दृष्टान्त का तात्पर्य इतना ही है कि मेधावान् विवेकशीलों की सद्बुद्धि ही सराहनीय है वह चिन्तन क्षेत्र पर आच्छादित रहनी चाहिए।

आम आदमी तात्कालिक लाभ को देखता है और यह भूल जाता है कि इसका दूरगामी परिणाम क्या हो सकता है? दूरदर्शी आज के घाटे की परवाह नहीं करते और भावी सत्परिणामों को देखते हुए पूँजी रूप में अपनी समूची क्षमता को दाव पर लगा देते हैं। किसान यही करता है वह निरन्तर जुताई, बुआई, निराई, सिंचाई, रखवाली में लगा रहता है और इसके निमित्त घर की पूँजी भी खर्च कर डालता है। किन्तु समय आने पर जब फसल पकती है तो उसके कोठे अनाज से भर जाते हैं और सम्पदाजन्य सुख और यश उसे मिलता है।

विद्यार्थी को भी यही करना पड़ता है। प्रथम कक्षा से लेकर एक.ए. करने की अवधि में उन्हें चौदह वर्ष का समय एकनिष्ठ होकर लगाना पड़ता है। यह समय राम वनवास के चौदह वर्षों की तरह कटता है। इस अवधि में खाने-पहनने, पुस्तकें खरीदने, फीस चुकाने में काफी खर्च भी पड़ता है। पर शिक्षा पूरी करने के उपरान्त जब उसे विद्वान कहा और अफसर जैसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है तब पता चलता है कि दूरदर्शिता किसे कहते और उसमें आरंभिक पूँजी नियोजन का प्रावधान क्यों हैं?

पहलवान लम्बे समय तक कसरत करता पौष्टिक भोजनों का खर्च उठाता और संयम बरतता है। तब कहीं समयानुसार परिपुष्ट होकर दंगल जीतता और यशस्वी बनता है। व्यापारी को कारखानों का ढाँचा खड़ा करने में अपनी पूँजी झोंक देनी पड़ती है और आवश्यकता पड़ने पर कर्ज भी लेना पड़ता है। पर जब यह सब हो चुकता है तो कारखाना चल निकलने और मुनाफे से तिजोरी भरने का अवसर मिलता है।

यदि किसान ने बीज को भुना कर चबेना बना लिया होता, विद्यार्थी फीस न देकर सिनेमा देखता और पहलवान उस साधना से बचकर आवारागर्दी के गुलछर्रे उड़ाता, व्यापारी कारखाने में लगने वाला धन एयाशी में उड़ा देता तो इन सब का भविष्य अन्धकारमय ही बनता। भले ही आरंभ में वे शौक-मौज का मजा चख लेते।

दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता का अन्तर यही है। इसी को सच्चे अर्थों में बुद्धिमता एवं मूर्खता समझा जाना चाहिए। विवेकशील दूरदर्शी ही सच्चे अर्थों में बुद्धिमान है। जिन्हें सिर्फ आज का मजा दीखना और भविष्य में अन्धकारमय बनने की कोई चिन्ता नहीं होती, उन्हें उस मंडली द्वारा भी तिरस्कृत होना पड़ता है, जो आरंभिक दिनों में उस आवारागर्दी को प्रोत्साहन प्रदान करते थे और स्वयं भी सम्मिलित रहकर दूसरे की अंगीठी पर रोटी सेकते थे।

नशेबाजी जैसे अनेकों प्रकरण ऐसे है जो लत लगाने के दिनों में बड़े मजेदार प्रतीत होते हैं पर वे जब आदत बनकर स्वास्थ्य, धन, यश, परिवार आदि को जर्जर कर लेते हैं तब भूल का पता चलता है। तब तक यह पिशाच ऐसी मजबूत सवारी गाँठ चुका होता है जिससे पीछा छुड़ाना फिर संभव ही नहीं रहता। यह तात्कालिक लाभ की दृष्टि है। व्यभिचार भी इसी श्रेणी में आता है। इश्कबाजी के आरंभिक दिन कितने मधुर लगते है पर कुछ ही दिन बाद जब सब और से भर्त्सना आ प्रताड़ना बरसती है तब पता चलता है कि आरंभ का मौज मजा इतना महत्वपूर्ण नहीं है। जितना कि भविष्य में दुष्परिणाम सहने से पश्चाताप।

दूरदर्शी विवेकशील भौतिक जगत में प्रगति समृद्धि प्रतिष्ठा और सफलता से ही महान बने है। उनने यश कमाया मान पाया, आभा पायी और सुख उठाया है किन्तु जो अदूरदर्शी है जिन्हें आज का लाभ ही सब कुछ दीखता है वे वंशी में फँसने वाली मछली, जाल में तड़पने वाली चिड़िया और चासनी में पर फंसकर बे मौत मरने वाली मक्खी का उदाहरण बनते है।


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