नर-वानर देवमानव कैसे बने?

February 1988

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अन्न के दाने मोटेतौर पर पेट भरने के काम आते हैं। उन्हें पीस कर आटा बनाया जाता है। आटे की रोटियोँ बनती और पेट में जाती है। पेट में पचने के बाद वह मल बनता और कचरे के ढेर में फेंक दिया जाता है। यही है उसकी सामान्य नियति।

किन्तु उसकी सत्ता को इतने तक ही परिसीमित मान बैठना भूल होगी। गंभीर पर्यवेक्षण करने पर उसके अन्य गुण भी प्रकट एवं और प्रत्यक्ष होते है। उसके अदृश्य अन्तराल में एक ऐसी क्षमता भी होती है जिसका प्रयत्न पूर्वक जागरण करने से वह निष्क्रिय से सक्रिय, निर्जीव से सजीव होने लगती हैं। बीज की तरह उसे प्रयुक्त किये जाने पर अपने आकार की वृद्धि करता है। उसके जीवन तत्व बढ़ जाते हैं। उर्वर भूमि का अंश सोखता है और अपने कलेवर के एक कक्ष से अंकुर फोड़ता है।

खाद पानी की अनुकूलता होने पर वह अंकुर बढ़ता है। पौधे के रूप में विस्तार करता है। उसे यदि पशु-पक्षियों द्वारा चर न लिया जाय तो क्रमशः बढ़ता ही रहता है। बढ़ोत्तरी दीर्घकाल तक चलती ही रहती है। समयानुसार परिपक्वता आती है और प्रौढ़ता प्राप्त वृक्ष फूलना-फलना आरंभ कर देता है। यह प्रतिक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि उसका अन्तकाल नहीं आ जाता।

फूल वातावरण को सुवासित करते है। अपनी सुन्दरता से उधर से गुजरने वालों का मन मोहते हैं। तितलियों, मधु–मक्खियों और भ्रमरों के लिए उपयोग का, आकर्षण के केन्द्र बनते है। इसके उपरान्त उनके फलित होने की बारी आती है। फल, पक्षियों-मनुष्यों का आहार बनते हैं। उपभोक्ताओं के पोषण का निमित्त कारण बनते हैं। उन फलों के मध्य में एक या अनेक ऐसे बीच होते हैं जो परिपक्व होने पर वैसी ही सृष्टि आरंभ कर देते हैं, जैसी कि उनके पिता पितामह ने वंशवृद्धि के लिए अपने को प्रस्तुत समर्पित किया था। इन बीजों में से हर एक में अपने पूर्वजों की भाँति प्रत्यक्ष और परोक्ष गुण होते हैं। प्रत्यक्ष में उनका उपयोग साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति में हो जाता है। परोक्ष रूप से उनमें अपने को विकसित करने की, आकार की विशालता धारण करने की क्षमता होती है। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि प्रत्येक बीच वृक्ष बन ही सकेगा। यदि उसका उपयोग सामान्य रीति से हुआ तो वह किसी प्राणी का आहार ही बन सकता है। चलते चलाते दुर्गन्धित कचरे के रूप में ही परिणत हो सकता है। असामान्य स्तर प्राप्त करके वृक्ष रूप में विकसित होना उसका सौभाग्य है। इस स्थिति में वह अपना मूल्य असंख्य गुना बढ़ा लेता है। छाया, ईंधन, प्राणवायु, भू-संरक्षण, भवन बनाने का माध्यम, आदि के रूप में अपना गौरव प्रदर्शित करता है। उद्यान के रूप में धरती की शोभा बनता है। इतनी प्रगति हो तभी पाती है जब बीज की अंतर्निहित क्षमता को विकसित करने का अवसर मिले। उपेक्षित रहने पर तो वह सड़, घुन जाता है और अपनी सामान्य उपयोगिता तक खो बैठता है। उसका बाजारू मूल्य एकाकी और सामान्य रहने पर नगण्य बन कर ही रह जाता है।

मनुष्य का सामान्य स्वरूप तुच्छ है। वह हाड़, माँस का चलता फिरता बोलता, सोचता पिटारा भर है। उसका जीवन इस कुचक्र की धुरी पर घूमता रहता है कि जीवित रहने और वंश परम्परा को बनाये रखने के लिए श्रम करें। समय लगाये। बहुत हुआ तो दूसरों से अधिक समझा जाने की महत्वाकाँक्षाओं में से किसी को चुने, अपनाये और उनके निमित्त असाधारण प्रयास करते हुए उस विधा को भी अपनाये जिसे अन्याय अपराध, कुकर्म, पाप आदि नामों से जाना जाता है। महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति इसके बिना हो नहीं सकती। ऊँचा भवन बनाने के लिए समतल भूमि ही उपयुक्त पड़ती है। ऊबड़-खाबड़ भूमि पर भवन नहीं बन सकता। इसी प्रकार महत्त्वाकाँक्षाएं जो शरीर के साथ जुड़ी रहती है। मन क्षेत्र में संस्कारों का भवन नहीं बनने देतीं। लिप्सा वासना, तृष्णा, अहंता से कुछ प्रसन्नता शोभा शरीर को ही प्राप्त होती है इस एक पक्षीय बढ़ोत्तरी में आत्मा की तो उपेक्षा ही होती रहती है। उसे वह अवसर मिल नहीं पाता जिसके आधार पर सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म की धरोहर का सही उपयोग बन पड़े। अपूर्णता दूर करने का पुरुषार्थ और परमार्थ संचय का पुण्य ही आत्मा की तुष्टि-पुष्टि और शान्ति का आधार है। पर उसे कर पाने का अवकाश ही कहाँ मिलता है? सारतत्त्व को आवश्यकताएं और आकाँक्षाएं ही निगल जाती है। खिलवाड़ में ही आयुष्य खप जाती है। वैसा कुछ बन नहीं पड़ता जिसे महत्त्वपूर्ण कहा जा सके।

जीवन सम्पदा को पशु-प्रवृत्तियों में पेट प्रजनन में समाप्त कर देने का तात्पर्य है कि उसकी स्थूलता ही कार्यान्वित होती रहे। सूक्ष्मता को विकसित होने का अवसर नहीं मिला। बीच का स्थूल कलेवर किसी का आहार भर बनता है। बीच का स्थूल कलेवर किसी का अहार भर बनता है। अपना श्रेय सम्पादित करने की गरिमा का उसे दर्शन भी नहीं हो पाता। इसे दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण नियति ही कहा जा सकता है। जिसका अन्त कचरे के रूप में हो उसे अभागा नहीं तो और क्या कहा जाय?

सौभाग्य का उदय उस स्थिति से आरंभ होता है जिसमें बीच को अपनी अन्तरंग क्षमता को विकसित करने का अवसर मिले। यह उपलब्धि तब हस्तगत होकर जब अन्तर्मुखी बना जाय। अन्तरंग क्षमताओं को समझा और उभारा जाए। मूढ़ता छाई रहे तो यह निरीक्षण पर्यवेक्षण किसी प्रकार संभव हो सके।

प्रत्यक्षतः मनुष्य नर वानर है। उसका शरीर कुदकता और मन फुदकता रहता है। इस उछल कूद की बाल-क्रीड़ा में ही समय बीत जाता है और जीवन का मृत्यु की गोद में अन्त होता है। इसके उपरान्त अन्धकार ही अन्धकार अवशेषों को भी दुनिया कही हलचलें कुछ ही समय में समाप्त कर देती है। न कुछ अपने लिए बन पड़ता है और न दूसरों के निमित्त ऐसा कुछ हो पाता है, जिसे अभिनन्दनीय और अनुकरणीय कहा जा सके।

सामान्य तक सीमाबद्ध रहना मनुष्य का अविवेक और दुर्भाग्य है। हीरक को काँच के समान कौड़ी मोल का बना देने के समान है, समझदारी का उदय आरंभ तब माना जाना चाहिए जब अन्तर्निहित क्षमता को समझने और जानने का सुयोग तलाश जाय। आहार बनने और कचरे में अन्त करने की अपेक्षा बुद्धिमत्ता इसमें है कि बीज बनकर उगने और वृक्ष बनने का महत्व समझा और विधान अपनाया जाय। बड़प्पन इसी में है। सुयोग और सौभाग्य भी इसी दिशा-धारा के साथ जुड़ता है। यह अवसर हर किसी के हाथ में है कि वह अपने अन्तरंग को विकसित करके देवोपम श्रेय प्राप्त करे या कचरे की दुर्गति का चयन करें।

बीच अचेतन है, उसकी स्वेच्छा को कोई मूल्य नहीं। मालिक ही उसका जैसा चाहे उपयोग कर सकता है, किन्तु जीवात्मा को यह विशिष्टता प्राप्त है कि वह इच्छानुसार जिस भी दिशा को अपनाये। इच्छित मार्ग पर चले। अपनी नियति को भली-बुरी चाहे जैसी बनाये। सुयोग या सदुपयोग इसी में है कि जीवन को चंदन-वृक्ष, कल्प-वृक्ष की तरह विकसित, सुन्दर और सौभाग्य सम्पन्न यशस्वी बनाया जाय।


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