कुण्डलिनी शक्ति का जागरण एवं सृजनात्मक सुनियोजन

February 1988

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योगशास्त्रों में कुण्डलिनी साधना की महत्ता को सर्वोपरि माना गया है और इस पर विस्तृत रूप में प्रकाश डाला गया है। यह वस्तुतः चेतन प्रकृति द्वारा जड़ पदार्थों के नियंत्रण की विद्या कही जा सकती है। पदार्थों, परमाणुओं तथा जड़-जगत की संरचना इसी के अंतर्गत आती हे। विज्ञान की समस्त धाराएं इसी में सन्निहित है। सृष्टि का समस्त व्यापार इसी महाशक्ति से गतिमान है। ‘शक्ति तंत्र’ में कहा भी गया है - “शक्ति कुण्डलिनोति विश्व जनन व्यापार व्रतोद्यमा।” अर्थात् - यह सारा जगत-व्यापार कुँडलिनी महाशक्ति के ही प्रयत्न से चल रहा है। भौतिक एवं आत्मिक सम्पदाओं का मूल यही है। जीवन में पवित्रता का समावेश करके सतत् अभ्यास द्वारा इसे जागृत किया एवं दिव्य विभूतियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है।

कुण्डलिनी शक्ति का एक नाम ‘जीवन अग्नि’ - फायर आफ लाइफ भी है। जो कुछ भी चमक, तेजस्विता, आशा, उत्साह, उमंग, उल्लास दिखाई पड़ता है, उसे उस प्राण अग्नि का ही प्रभाव कहा जा सकता है। शरीरों में बलिष्ठता, निरोगता, स्फूर्ति, क्रियाशीलता के रूप में और मस्तिष्क में तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता, स्मरण शक्ति, सूझ-बूझ, कल्पना आदि विशेषताओं के रूप में यही परिलक्षित होती है। आत्मविश्वास और उत्कर्ष की अभिलाषा के रूप में, धैर्य और साहस के रूप में इसी शक्ति का चमत्कार झाँकते हुए देखा जा सकता है। रोगों से लड़कर उन्हें परास्त करने और मृत्यु की संभावनाओं को हटाकर दीर्घजीवन का अवसर उत्पन्न करने वाली एक विशेष विद्युत-धारा जो मन में प्रवाहित होकर समस्त शरीर को सुरक्षा की अमित सामर्थ्य प्रदान करती है, उसे कुण्डलिनी ही समझा जाना चाहिए।

कुण्डलिनी मूलाधार और सहस्रार दो शक्ति केन्द्रों की अधिष्ठात्री है। मूलाधार भौतिक सामर्थ्य का और सहस्रार आत्मिक विभूतियों का उद्गम केन्द्र है। एक को आत्मा का - दूसरे को परमात्मा का - प्रतीक प्रतिनिधि कह सकते हैं। एक भूलोक है तो दूसरा स्वर्ग लोक। मूलाधार से सहस्रार तक पहुँचने का मार्ग मेरुदण्ड है। इसी को आध्यात्मिक भाषा में ध्रुव केन्द्र कहा गया है। शक्ति को मूलाधार और शिव को सहस्रार कहते हैं। इन्हीं का प्रतिनिधित्व शिव मंदिरों में स्थापित उभय-पक्षीय लिंग प्रतीकों में देखा जाता है। वस्तुतः यह कुण्डलिनी शक्ति का ही अलंकारिक दिग्दर्शन है।

इन दोनों को धन और ऋण विद्युत भी कहा जा सकता है। मानवी काया को -पिण्ड को- इस दृश्य ब्रह्माण्ड का -विश्व विराट् का छोटा नमूना भी कह सकते हैं। जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व-ब्रह्माण्ड में कहीं भी विद्यमान हैं उन सबका अस्तित्व इस शरीर में भी मौजूद है। जिस प्रकार वैज्ञानिक जानकारी, प्रयोग विधि और यन्त्र व्यवस्था के आधार पर विद्युत, ईथर आदि शक्तियों से प्रत्यक्ष लाभ उठाया जाता है, ठीक उसी प्रकार योग साधना के वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा शरीरगत अपरा-प्रकृति की प्रचंड शक्तियों का उद्भव किया जा सकता है। इसी को योगियों के दिव्य कर्तव्य के रूप में देखा जा सकता है। अलौकिकताएं- सिद्धियाँ, चमत्कार एवं असाधारण क्रिया-कृत्यों की जो क्षमता साधना विज्ञान द्वारा विकसित की जाती है उसे शरीरगत अपरा-प्रकृति का विकास ही समझना चाहिए और इस निर्झर का मूल उद्गम जननेन्द्रिय मूल कुण्डलिनी को ही जानना चाहिए।

इसी प्रकार व्यक्तित्व में गुण, कर्म स्वभाव, संस्कार, दृष्टिकोण, विवेक, प्रभाव, प्रतिभा, मनोबल, आत्मबल, आदि की जो विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं, उन्हें चेतना तत्व से भाव संवेदन की उपलब्धि माननी चाहिए। इसका केन्द्र मस्तिष्क स्थित सहस्रार कमल है। कालाग्नि यहीं शिव स्वरूप विद्यमान है। व्यक्तित्व की भावनात्मक, चेतनात्मक प्रखरता एवं शरीर की असामान्य क्रियाशीलता-आत्मविद्या के दो लाभ कहे गये हैं। इन्हीं को विभूतियाँ और सिद्धियाँ भी कहते हैं। विभूतियाँ मस्तिष्क केन्द्र से ज्ञान संस्थान से-भाव ब्रह्म से प्रसृत होती है और सिद्धियाँ काम केन्द्र से-शक्ति निर्झर से-कुण्ड-कुण्डलिनी से प्रादुर्भूत होती है। इन दोनों शक्ति केन्द्रों को मानवीय अस्तित्व के दो ध्रुव मानना चाहिए। पृथ्वी के दो सिरों पर उत्तरी दक्षिणी दो ध्रुव है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क केन्द्र उत्तरी ध्रुव और काम केन्द्र दक्षिणी ध्रुव कहा जा सकता है। इन केन्द्रों में सन्निहित असंख्यों दिव्य क्षमताओं का उन्नयन, प्रकटीकरण एवं उपयोग कुण्डलिनी जागरण से हो सकता है।

वस्तुतः कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य मूलाधार से सहस्रार-कामबीज से ब्रह्मबीज तक पहुँचने का है। उन दोनों की असीम एवं अनन्त जानकारी प्राप्त करने और उन सामर्थ्यों को जीवन विकास के अंतरंग और बहिरंग क्षेत्रों में ठीक तरह प्रयोग कर सकने की विद्या का नाम ही कुण्डलिनी विज्ञान है। इस साधना में एक प्रकार से शरीर में प्राण और संकल्प के आघात से परमाणु ऊर्जा उत्पन्न की जाती है और उसका नियंत्रण नियमन किया जाता है। मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं अनुसंधानकर्ता प्रो0 वौन वैजसेकर ने कुण्डलिनी जागरण में प्राण तत्व के नियंत्रण और नियमन पर अधिक बल दिया है। उनका कथन है कि इसकी संगति भौतिक विज्ञान के क्वाँटम सिद्धान्त से बिठाई जा सकती है। दोनों के परमाणु सूक्ष्म स्तर के होते हैं। सूक्ष्म शरीर का प्राण प्रवाह ही कुण्डलिनी है। षट्चक्रों को जगाने-बेधन करने की क्षमता इसी प्राण-शक्ति में होती है। इसलिए भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए इसके शोधन, परिष्कार एवं उन्नयन के विविध विधि साधना विधानों को अपनाने का योगशास्त्रों में उल्लेख मिलता है।

योग उपनिषद् में कहा गया है कि “कुण्डलिनी शक्ति जो कुण्डलित स्थिति में मानवी काया में विद्यमान है, यदि उसके जागरण का सही रूप में अभ्यास उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए किया जाय तो ही वह शक्ति ठीक रूप से विकसित हो सकती है अन्यथा विपरीत प्रभाव उत्पन्न करती है।” स्टडीज ऑफ सैवेज एण्ड सैक्स” नामक पुस्तक के मूर्धन्य लेखक श्री क्राबेल का कहना है कि “कुण्डलिनी जागरण का मूलभूत आधार जीवन की पवित्रता है। यह साधक के शारीरिक गठन तथा गुण, कर्म, स्वभाव से प्राप्त होती है।” प्राचीनकाल के भारतीय योगी एवं संत-महात्मा इसके प्रमाण है। आध्यात्मिक नियमों का निष्ठापूर्वक परिपालन करते रहने से एक निश्चल पवित्रता का विकास होता है जो कुण्डलिनी जागरण के लिए अत्यधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। इसी के आधार पर उनने जाना था कि मेरुदंड के नीचे अंतिम छोर पर इस मानव ढाँचे में इतनी रहस्यपूर्ण दिव्य ऊर्जा विद्यमान है। षट्चक्र निरूपण में इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है - “कूजन्ती कुल कुण्डली च मधुर ...................... सा मूलाम्बुज गहवरे विलसति॥ अर्थात् कुण्डलिनी मधुर कूँजन करती है। श्वाँस-प्रश्वास का प्रवर्तन करती हुई वह संसार के जीवों को प्राण धारण कराती है तथा मूलाधार पद्धा-गह्वर में विलास करती है। जीवन में बाह्याभ्यांतर शुचिता-पवित्रता का समावेश करके ही इसे जाना और पाया जा सकता है।

सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री ओवे्लान ने अपनी कृति “द सर्पेन्ट पावर” में कहा है कि कुण्डलिनी शक्ति का अभिव्यक्तीकरण सृजनात्मक शक्ति के रूप में सभी मानवों में दृष्टिगोचर होता है। मानवी काया में यह महाशक्ति एक दैवी बीज के रूप में विद्यमान है, जो कालान्तर में गहन अभ्यास के द्वारा पुष्पित और पल्लवित होती है। यदि एक बार भी शक्ति जागृत हो गई और क्रिया-कलापों में आ गई तो साइकिक नर्व से होती हुई मस्तिष्क के सहस्रार अर्थात् सहस्र दल कमल में प्रवेश करती है। इसके जागरण और संचालन से समस्त आध्यात्मिक शक्तियाँ जागृत हो उठती है और सामान्य मनुष्य को असामान्य स्तर का - महामानव-देवपुरुष की श्रेणी में पहुँचा देती है। मूर्धन्य लेखक श्री वेले ने अपनी पुस्तक “ए ट्रीटीज आँन कास्मिक फायर” में लिखा है कि मेरुदण्ड स्थिति कुण्डलिनी शक्ति का जब ऊर्जा के रूप में रूपांतरण होता है तो मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके जागरण और कुण्डलित सर्पिणी के खुलने से मानव जाति का उत्थान श्रेष्ठता और महानता में परिणत होता है। वेले का कथन है कि कुण्डलिनी जागरण की पद्धति विकासात्मक नहीं वरन् प्रयासात्मक है। साधक को बड़े धैयपूर्वक कई वर्षों तक इसका निरंतर नियमित अभ्यास करना पड़ता है साथ शारीरिक, मानसिक एवं वैचारिक पवित्रता का बहुत ध्यान रखना पड़ता है, तभी वह लक्ष्य तक पहुँच सकता है। पवित्रता का अंश जितनी मात्रा में विकसित होता है उसी अनुपात से उत्कृष्टता बढ़ती है और साधक को लक्ष्य के समीप पहुँचाती है।

उसी प्रकार प्रख्यात लेखक श्री लेडवीटर ने अपनी पुस्तक “दी चक्राज” में बताया है कि आचार और व्यवहार को पवित्रता के बिना उत्कृष्ट क्षमता के इस शक्ति के जागरण के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं। अतः इसके लिए कठोर अनुशासनात्मक जीवन-यापन करना अनिवार्य होता है। मूर्धन्य लेखक श्री प्रेसे ने अपनी कृति “द एपोकलिप्स अनसील्ड” ने चेतावनी देते हुए लिखा है कि कुण्डलिनी जागरण एवं उसके विकास में बड़े गंभीर और भयानक खतरे भी जुड़े हुए हैं। पवित्रता के अभाव में यदि साधक का झुकाव साँसारिकता की ओर होता है तो वह पतनोन्मुखी हो जाती है और कामवासना तथा बुरे विचारों के माध्यम से विचारों के माध्यम से जीवन को अधोगामिता की ओर ले जाती है। ऐसी स्थिति में सृजनशक्तियाँ दुर्बल और घटिया बनती चलती है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति इसका अभ्यास करने और जागृत कर पाने में सर्वथा असफल पाये जाते हैं, किन्तु जो श्रेष्ठ मार्ग पर अवलम्बित होते हैं तथा कठोर नियमों एवं संयम का जीवन में परिपालन करते हैं, वे चमत्कारी शक्तियों के भाण्डागार बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं। किन्तु समाज के लिए मानव जाति के लिए वे हर दृष्टि से उपयोगी और महत्वपूर्ण होते हैं। इसी तथ्य पर प्रकाश डालते हुए विद्वान लेखक एग्यूटरा ने “निकाया” नामक अपनी पुस्तक में कहा है कि प्राचीन तत्वज्ञान के साहित्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य जाति का उत्थान करने एवं उसे उत्कृष्ट बनाने में यह सर्पिणी शक्ति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। समाज में संव्याप्त बुराईयों और दुर्गुणों के निदान के लिए यह सबसे बड़ा पवित्र और सुनिश्चित मार्ग है, परन्तु इसका लाभ तभी कोई व्यक्ति ले सकता है जब वह अपने अंतर्तम् निहित संवेगों को परिशोधित एवं पवित्र बना लें।

प्रसिद्ध पुस्तक “द एस्ट्रल एडी एण्ड अदर एस्ट्रेल फेनमिना” में लेखक आर्थर ई॰ पावेल ने कहा है कि “कुण्डलिनी जागरण की अभ्यास प्रक्रिया में मादक एवं नशीली वस्तुओं का सेवन करना अत्यन्त अनर्थकारी होता है। इससे षट्चक्रों के प्राण तत्व दूषित हो जाते हैं और उनकी झिल्लियाँ फट जाती है। दूषित तत्वों के प्रवाह से उनमें कड़ापन आ जाता है। जिससे सूक्ष्म तत्वों के प्रवाह में भी बाधा उत्पन्न हो जाती है और चक्रों का प्राण तत्व विकृत शक्तियों के प्रभाव में आ जाता है इससे मनोविकृतियाँ, पागलपन, कंपन जैसी अनेकानेक बीमारियाँ प्रकट होने लगती है और साधक स्वार्थी, हिंसक एवं पशुओं जैसा व्यवहार करने वाला बन जाता है। इसी तरह सामान्य लोगों के चक्रों में शुद्ध सूक्ष्म तत्वों का प्रवाह अवरुद्ध होने के कारण उनकी प्राण चेतना में निम्नस्तरीय परमाणुओं का ही प्रवाह होता रहता है जो उनकी चेतना को अशुद्ध एवं विकृत बना देता है।

कुण्डलिनी शक्ति के जागृत हो जाने पर कभी-कभी असामयिक घटनायें भी घटित हो जाती हैं, जिनसे साधक को सदैव सावधान रहना चाहिए। मस्तिष्क में महत्वाकाँक्षा उत्पन्न हो जाती है। जो सम्पूर्ण कार्य संस्थान को उभार देती है। अहंकार के जागृत हो जाने पर साधक का पतन हो जाता है। शारीरिक, मानसिक शक्तियों का उभार उनकी जागृति, योगियों को जहाँ स्वतंत्रता प्रदान करती है आगे का मार्ग प्रशस्त करती है, वहीं मूर्खों के लिए बन्धन का कारण बन जाती है। शारीरिक, मानसिक एवं वैचारिक पवित्रता ही आधार है जो लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होता है।


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