आजीविका उपार्जन और गृह उद्योग

February 1988

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शहरों, कस्बों के सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आजीविका के लिए बड़े उद्योग, व्यवसाय, फर्म, कारखाने लगा लेते हैं। सुशिक्षित सरकारी नौकरियों में खप जाते है। कला, साहित्य, शिल्प आदि के सहारे अपने लिए अच्छी आजीविका कमा लेते हैं, पर वह वर्ग दस प्रतिशत से अधिक नहीं है। अधिकाँश जनता देहातों में रहती है। उनके सामने कृषि पशुपालन और मजदूरी के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। गृह उद्योगों का प्रचलन नाम मात्र का है। उसमें एक-दो प्रतिशत लोग ही लगे हैं। शेष का खेती से बचा हुआ समय प्रायः बेकार ही जाता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि देहात में रहने वाले बहुसंख्यक समाज को गृह उद्योगों में लगाया जाय। उनके उत्पादन को खपाने के लिए नये सिरे से ‘स्वदेशी आन्दोलन’ जैसी नई लहर चलाई जाय। खादी को सैद्धान्तिक आधार पर ही लोकप्रिय बनाया गया था। अब स्वदेशी के प्रति जन साधारण को वैसा ही उत्साहित किया जाय। मिल के सस्ते और आकर्षक उत्पादन की तुलना में दोहती कुटीर उद्योगों को प्रतिद्वन्द्विता से बचाने और उन्हें पनपने का अवसर इसी आधार पर मिलेगा। गरीबी और बेकारी से पिण्ड इसी प्रकार छूटेगा। बहुमत के लिए आजीविका उपार्जन में सहायता करने के लिए इसी प्रयास को नये उत्साह और नये संकल्प के साथ आरम्भ करना होगा।

तीन-तीन महीने के युग-नायक सूत्रों में इसी विषय की बौद्धिक जानकारी और व्यावहारिक अभ्यास का समावेश इसी निमित्त किया गया है। कुटीर उद्योगों की संख्या स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार हजारों प्रकार की हो सकती है। उन सभी के सिद्धान्त तो बताये जा सकते हैं, पर व्यवहारिक अभ्यास कराने के लिए विशालकाय बहुमुखी प्रयोगशाला चाहिए। उसकी सम्भावना शांतिकुंज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए है नहीं। बड़े के इन्तजार में देर तक रुके बैठने के अवसर नहीं। इसलिए जितना संभव हो सका, उतने कुटीर उद्योगों संबंधी सिद्धान्त और अभ्यास शिक्षण प्रक्रिया में समाविष्ट किया गया है। चूँकि समय तीन महीने जितना अल्प है। उसमें भी बुद्धिमता और स्वास्थ्य रक्षा जैसे महत्वपूर्ण प्रकरण जुड़े हुए है। इतने पर भी कुटीर उद्योगों के प्रशिक्षण में जितना अधिक संभव था, समावेश किया गया है। सिद्धान्त तो पूरी तरह सिखा ही दिए जायेंगे। व्यवहार भी समय के अनुसार सभी को प्रयोग में लाने का अवसर मिलेगा, पर पूर्णता और पारंगतता तो कार्य हाथ में मिलने पर लम्बे अभ्यास के उपरान्त ही मिल सकेगी।

जो कुटी उद्योग 3 माह के सत्र की अवधि में जिस प्रकार सिखाये जायेंगे, उसका विवरण इस प्रकार है -

(1) सहकारिता और कुटीर उद्योगों का पारस्परिक संबंध, दोनों को साथ-साथ चलाने की प्रक्रिया।

(2) कृषि और पशुपालन के पुरातन तरीकों और अन्वेषणों को समझाते हुए उनमें सुधार करने की आवश्यकता। इस संदर्भ में अधिकाधिक जानकारियां उपलब्ध कराना। दीमक और कृषि कीटकों से बचाव।

(3) वस्त्र उद्योग, कताई बुनाई संबंधी अभ्यास। इस संदर्भ में हुए नवीनतम सुधारोँ का प्रदर्शन और अभ्यास।

(4) काम चलाऊ सिलाई की मशीनों, का प्रयोग।

(5) रसायन, साबुन तथा साबुन पाउडर बनाना, अगरबत्तियाँ बनाना, मोमबत्तियाँ बनाना।

(6) घरेलू प्रयोग में आ सकने वाली थोड़ी बिजली से चलने वाली आटा चक्की, धुलाई मशीन, तेल निकालने की घरेलू मशीन (कोल्हू) जो बिजली से चलेगी।

(7) टूट-फूट की मरम्मत

(8) वृक्षारोपण आन्दोलन, सब्जियों से अधिक से अधिक लाभ लेने की विधि, पुष्पोद्यान, उनके बीज भण्डार चलाना और पौध उगाकर बेचना।

(9) मधुमक्खी पालन एवं सामूहिक स्तर पर गोबर गैस प्लांट लगना।

(10) स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार जो उद्योग पनप सकते हैं, उनकी सम्भावनाओं पर परामर्श।

उपरोक्त दस विषयों में सैद्धान्तिक एवं अभ्यास की यथा संभव व्यवस्था है। इन्हें अपने क्षेत्र में प्रचलित किया जा सकता है और अनेकों की बेकारी गरीबी दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकना संभव हो सकता है। जो दूसरों की इस स्तर की सहायता करेंगे उन्हें सिखाने और कराने में जुटेंगे, वे निश्चय ही अधिक लोकप्रिय बनेंगे। उनकी सेवा, साधना सर्वत्र सराही जायगी। सेवा-साधना के आधार पर ही किसी को लोकनायक स्तर पर सम्मान मिला है - इस तथ्य को भली प्रकार गाँठ बाँध रखना चाहिए।

इन उद्योगों के सीखने का एक लाभ यह है कि अपने क्षेत्र में इन प्रशिक्षणों में से जो सम्भव है, उनके प्रशिक्षण का केन्द्र चलाया जा सकता है। उस उत्पादन की खपत का सहकारी स्तर पर विक्रय विभाग चलाया जा सकता है। नई सहकारी समिति गठित की जा सकती है और उसके सहारे पूँजी का प्रबन्ध सरकार के माध्यम से किया जा सकता है। इस प्रकार निजी रूप में भी उन्हें किया जा सकता है और सहकारिता के आधार पर बड़े क्षेत्रों में भी और बड़े रूप में भी।

यदि निजी रूप में इनमें से कोई व्यवसाय करना हो, तो उसे घरेलू सुविधा संवर्धन का आधार भी बनाया जा सकता है और यह भी हो सकता है कि उसे थोड़ा विस्तार देकर स्वयं ही नियोजित किया जाय। डेरी उद्योग के पनपने की हर जगह आवश्यकता है। मसाले पीसने, आटा पीसने, घर के कोल्हू पर शुद्ध तेल निकालने और जन-साधारण को उपलब्ध कराना ऐसा उद्योग है कि उसके सहारे अनेकों, की खाद्य पदार्थों में मिलावट की हानियों से भारी हानि उठाने वालों की जीवन रक्षा की जा सकती है। साथ ही अपने लिए भी घर-गाँव में रहकर इतनी आजीविका अर्जित की जा सकती है जिसके लिए नौकरी तलाश करने और आये दिन बदली का झंझट उठाने की विवशता रहती है। उस फेर में संयुक्त परिवार भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। देहात छोड़कर लोग शहरों की गन्दगी में घुस पड़ने के लिए इसी लिए दौड़ते है कि ग्राम्य जीवन में कुटीर उद्योगों के आरम्भ करने और खपाने की पूँजी जुटाने का कोई सुप्रबन्ध नहीं है। यदि कोई व्यवसाय बुद्धि का लोकसेवी इस क्षेत्र में प्रवेश करें, तो अपनी निजी आजीविका का प्रश्न तो स्थायी रूप से हल कर ही सकता है, साथ ही अपने प्रभाव क्षेत्र में घरेलू उद्योगों द्वारा आजीविका उपार्जन के नये आधार खड़े कर सकता है।

तीन महीने के सत्रों में इस विषय के पाठ्यक्रम है उनका पूरी तरह अभ्यास कर सकना तो शायद न बना पाय, पर इतना निश्चित है कि समुचित जानकारी इस स्तर की बन पड़ेंगी कि वापस लौटने पर जिन भी कार्यों को हाथ में लिया जाय उनकी प्रवीणता काम करने की साथ-साथ सम्पन्न कर ली जाय। यह भी हो सकता है कि इन विषयों के कारीगरों को नौकर, रखकर अभ्यास प्रकरण को पूरा कराते रहा जाय।

कुटीर उद्योगों के लिए पूँजी और खपत का प्रबन्ध करने के लिए जहाँ सरकारी समितियों की स्थापना आवश्यक है, वहाँ वह भी जरूरी है कि ‘स्वदेशी आन्दोलन’ को एक प्रचण्ड आंदोलन के रूप में गतिशील किया जाय, ताकि लोग बड़े कारखानों की बनी वस्तुएं खरीदने के स्थान पर गृह उद्योगों से बने माल को अपनाने के लिए सहमत और प्रतिज्ञा बद्ध हो।

निजी रूप में घरेलू शाक वाटिका, टूट-फूट की मरम्मत जैसी कार्यों को घर-परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए अपनाया जा सकता है, पर अधिक लोगों को अधिक काम देते हुए आर्थिक क्षेत्र का लोक नेतृत्व करना हो, तो उस प्रक्रिया को व्यापक बनाने की बात सोचनी पड़ेंगी। यही बात बुद्धिमता और स्वास्थ्य रक्षा क्षेत्रों में भी लागू होती है। उन्हें भी सीमित न रहकर व्यापक बनाना पड़ेगा, तभी लोक नेतृत्व का श्रेय समुचित रूप में मिल सकेगा।


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