देव पुरुष!सिद्ध पुरुष एवं हिमिप्रदेश

February 1988

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ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण जीवात्मा दिव्य विभूतियों से सम्पन्न है। उसे यह विभूति सत्ता बीज रूप में जन्मजात मिली है, उसकी संभावना इस स्तर की है कि विकास मार्ग पर चलते हुए पुनः ईश्वरत्व में प्रवेश करके तदनुरूप बन सकें। इतनी अद्भुत शक्ति संभावना का धनी होने पर भी उसे अपने समस्त क्रियाकलाप शारीरिक अवयवों के द्वारा ही सम्पन्न कराने पड़ते हैं। जीवात्मा की इच्छा अभिलाषा कुछ भी क्यों न हो पर वह उन्हें संकल्प मात्र से पूरा नहीं कर सकता। इसके लिए उसे शारीरिक अवयवों का, मानसिक संरचना का उपयोग करना ही पड़ता है। बिना इसके हलचलों की सक्रियता दीख नहीं पड़ती। यह वास्तविकता इस सीमा तक प्रकट होती है कि यदि शरीर और प्राण पृथक हो जायं तो अकेला जीवात्मा अदृश्य लोकवासी चेतना स्फुल्लिंग मात्र बनकर रह सकता है। उसके द्वारा किन्हीं निर्धारणों का क्रियान्वित कर सकना संभव नहीं रहता।

ठीक यही बात परब्रह्म के संबंध में भी है। वह सर्वव्यापी हरि व्यवस्थापक होने के नाते निराकार ही रह सकता है। प्रतिभाएं तो ध्यान धारणा के निमित्त ही बनाई जाती रहती हैं। निराकार परमेश्वर की सृष्टि के विभिन्न क्रिया-कलाप सम्पन्न करने के लिए किन्हीं शरीर धारियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। वे सहयोगी दो प्रकार के होते हैं। एक विशिष्ट दूसरे वरिष्ठ। विशिष्टों में देव शक्तियाँ आती है। उन्हें मोटेतौर पर तीन भागों में विभाजित किया जाता है। सृजेता-ब्रह्मा, अभिवर्धक, विष्णु और परिवर्तन-प्रधान-शिव। इन्हें दैवी रूप में मान्यता दी जाती है। इनके जब त्रिवर्गों के भेद उपभेदों को गिना जाता है तो उनके भेद तैंतीस कोटियाँ है या वे तैंतीस करोड़ हैं। इस विवाद में न पड़कर यहाँ इतना ही जान लेना पर्याप्त हैं कि अनेकानेक है और अपने-अपने हिस्से के काम करते रहते हैं। देवताओं के दो ही काम है, धर्म की स्थापना और अधर्म का निराकरण। शरीर भी यही करते हैं। जो उपयोगी है उसे मुँह, नासिका आदि से ग्रहण-धारण करता रहता है जो कचरा है उसे मल, मूत्र, श्वेद आदि के रूप में बाहर फेंकता रहता है। जहाँ क्रिया होती है वहाँ कचरा भी बनता है। मशीनों में भी यहीं होता रहता है। वे ऊर्जा माँगती है और कचरा उगलती है। सृष्टि में भी यही होता रहता है। दोनों की व्यवस्था करने में ईश्वर की इच्छा के अनुरूप देवशक्तियाँ जुटी रहती है वे सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दृष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में निरन्तर निरत रहती है। सृष्टि का संतुलन इसी प्रकार बना रह पाता है।

देवताओं के उपरान्त समुदाय सिद्धपुरुषों का है। वे भी आमतौर से अदृश्य ही रहते हैं, पर आवश्यकतानुसार स्थूल शरीर भी धारण कर लेते हैं। देवता परब्रह्म के अधिक निकट हैं और सिद्धपुरुष प्रकृति के। दैवी इच्छानुसार समस्त शिव ब्रह्माण्ड की सुव्यवस्था बनाये रहने में देवताओं की प्रमुख भूमिका रहती है। सिद्धपुरुषों क कार्य क्षेत्र पृथ्वी तक सीमित है। वे पृथ्वी पर चलने वाली उथल–पुथलों को संतुलित करते हैं। आत्मशक्ति सम्पन्न सात्विक सज्जन प्रकृति के उदारचेताओं को वे ढूंढ़ते रहते हैं और जो भी सत्पात्र दीख पड़ते हैं, उन्हें सत्प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमता का एक अंश धारणकर्ता की आवश्यकता एवं पात्रता के अनुरूप देते रहते हैं। इस प्रकार की अहैतु की कृपा वे बरसाते ही रहते हैं। श्रेष्ठता सम्पन्नों को ऐसे वरदान निरन्तर मिलते रहते हैं। साथ उनका दूसरा कार्य भी चलता है, “अनौचित्य का निराकरण” इसी को अधर्म का उन्मूलन भी कहा जा सकता है। धरातल के दिग्पाल-दिग्गज यह सिद्धपुरुष ही कहे जाते हैं। वे पृथ्वी का भौतिक और आत्मिक पदार्थपरक और चेतनात्मक संतुलन बनाये रहने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते रहते हैं। इन्हें धरतीवासियों के लिए परब्रह्म का विशेष अनुग्रह भी समझा जा सकता है।

साधनारत योगी तपस्वी जब अपने कषाय-कल्मषों का निराकरण कर लेते हैं। साथ ही देवोपम मानवी गरिमा के समस्त आधारों से अपने को सुसज्जित कर लेते हैं तो उन्हें देवात्मा का-सिद्धपुरुष का पद मिल जाता है। फिर वे मिल-जुलकर धरातल की आये दिन उत्पन्न होते रहने वाली समस्याओं के बारे में विचार करते रहते हैं और उसमें समाधान संदर्भ में अपनी भूमिका-योजना का निर्धारण करते रहते हैं।

बिखराव सदा असुविधाजनक होते हैं और सहकार सुविधाजनक। एक जुट होने के लिए समीपवर्ती निवास भी आवश्यक है। सैनिकों की छावनी अपने-अपने क्षेत्रों में होती है। वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाएं भी एक क्षेत्र में सटी हुई बनती है ताकि परस्पर सहकार संभव हो सके विश्वविद्यालयों में अनेक मनीषी अपने-अपने काम संभालते हैं। रेल का इंजन बनाने वाले कारखाने हैवी इलैक्ट्रिक जैसे टाटा लोह कारखाने में विशाल कल कारखाने भी एक बड़ी परिधि को घेरते हैं, उन्हें छोटी-छोटी फैक्ट्रियों के रूप में बखेरा नहीं जा सकता। ठीक इसी प्रकार सिद्धपुरुष भी एक-एक करके जहाँ-तहाँ बिखरे नहीं रहते। उन्हें परस्पर विचार विनिमय करना पड़ता है। और योजनाबद्ध कार्य पद्धति अपनाने के लिए तत्पर भी। ऐसी दशा में आवश्यक हो जाता है कि वे किसी सघन क्षेत्र में निवास करें। ऐसा स्थान इस पृथ्वी पर हिमालय का वह क्षेत्र ही है जिसे देवात्मा नाम दिया जाता रहा है। यों तो हिमालय बड़ा विस्तृत है, पर देवात्मा नाम से उत्तराखण्ड उसका हृदय प्रदेश है। “सिद्धपुरुषों की क्रीड़ास्थली भी इसी को समझा जानी चाहिए।

कभी देवताओं का निवास भी यहीं रहा है। उनकी कथा गाथाओं पर ध्यान देने और उनके बुद्धिसंगत निष्कर्ष निकालने के लिए जब प्रयत्न किया जाता है, तो देवताओं का लोक स्वर्ग किसी अन्य ग्रह पर अवस्थिति होने वाली बात गले नहीं उतरती, कारण कि सौर मण्डल के गृह उपग्रहों की पूरी-पूरी छानबीन लगभग पूरी हो चुकी है। वहाँ पदार्थ भर भरा पाया गया हैं सचेतन प्राणियों का अस्तित्व नहीं मिला। इसी प्रकार सौर मंडल के बाहर वाले क्षेत्र का रेडियो तरंगों, प्रकाश विकिरणों, के माध्यम से खोज बीन करने पर ऐसे क्षेत्र नहीं मिले जहाँ किन्हीं बुद्धिमान प्राणियों का अस्तित्व अस्वीकारा जा सके, फिर स्वर्ग कहाँ हो सकता है? जिसमें मानवाकृति के प्राणी निवास करते हों या करते रहे हैं। देव मान्यता को स्वीकारने पर इतना तो मानना ही पड़ता है कि उनका स्वभाव, रुझान, निर्वाह-साधन, सौंदर्य-बोध, सरसता आदि की दृष्टि से वे मनुष्य से मिलते-जुलते रहते हैं। उनका मनुष्यों के साथ संबंध भी रहा है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि धरती की सृष्टि के आरंभ में यहाँ देवता ही प्रकट हुए थे और उन्हीं के वंशज रूप में मनुष्य प्रकटे थे। आरंभिक ज्ञान और साधनों की व्यवस्था उन्हीं ने की थी। प्रयोजन पूरा करने के उपरान्त वे अदृश्य हो गये और अपने निर्धारित कार्य में लग गये।

स्वर्ग मान्यता के संबंध में उनकी संगति धरती के साथ ही बैठती है। मनुष्यों का उस क्षेत्र में आवागमन रहा है। देवता भी समय-समय पर पृथ्वी पर आते और मनुष्यों की चेतना में बैठकर उन्हें आवश्यक सामयिक परामर्श देते रहे है। ज्ञान और विज्ञान का आविर्भाव महामानवी के अन्तःकरणों में अनायास ही होता रहा है। इसके बाद उन्हें ऐसा दिशा-निर्देशन मिलता रहता रहा है, जिसके आधार पर वे किसी सुनिश्चित लक्ष्य तक पहुँच सके।

दशरथ के -अर्जुन के- देवलोक जाकर वहाँ वालों की सहायता करने असुरों को परास्त करने की कथाएं प्रख्यात है। नारदजी अक्सर विष्णुलोक जाकर भगवान से परामर्श किया करते थे। नहुष ययाति आदि से सशरीर स्वर्ग जाने का प्रयत्न किया था। युधिष्ठिर को स्वर्ग ले जाने के लिए देवयान आया था। इसी प्रकार देवताओं का भी मनुष्यों के अनेक कार्यों में सहयोग रहा है। कुन्ती के पुत्र देव पुत्र ही थे। शकुन्तला की माँ देवलोक से पृथ्वी पर उतर कर विश्वामित्र के संयोग से उसे जन्म दे गई थी। पांडव अन्त समय में सशरीर स्वर्गारोहण के लिए अग्रसर हुए थे।

इन कथा गाथाओं को यदि मिथक मानकर संतोष न कर लिया जाय और धरती पर स्वर्ग होने की बात पर ध्यान जुटाया जाय तो इसी निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि हिमालय का देवात्मा भाग कभी अति पुरातन काल में स्वर्ग भी रहा है। देवता सुमेरु पर्वत पर रहते थे। उनके उद्यान का नाम नन्दन वन था। यह दोनों ही इसी नाम से उपरोक्त क्षेत्र में अभी भी विद्यमान है। सुमेरु को स्वर्ण पर्वत कहा गया है। उसके शिखर पर अधिकाँश समय सूर्य की पीली किरणें पड़ती हैं। अस्तु बरफ सुनहरी दीखती है और स्वर्ण की बनी जैसी प्रतीत होती हैं। अब भू-भाग नीचा आ गया है। पर्वत ऊँचे हो गये। शीत की अधिकता बढ़ी संभवतः इस कारण देवताओं ने वह क्षेत्र अपने लिए उपयोगी न समझा हो और कारण शरीरों में अन्तरिक्ष क्षेत्र में रहने लगे हों, अपना स्थान सिद्धपुरुषों के लिए स्थानान्तरित कर दिया हो।

जो हो चर्चा सिद्धपुरुषों के संबंध में अभीष्ट हैं। उनके लिए यह स्थान सर्वथा उपयुक्त भी है। पूर्ववर्ती देव निवास होने के कारण उसकी संव्याप्त सुसंस्कारिता भी बढ़ी चढ़ी है। फिर धरती की परिस्थितियों को दूर-दूर तक देखने समझने की क्षमता भी। धरती की निचली पतों पर हवा में उड़ने वाला कचरा तह बनाकर बैठता रहता है। इसी प्रकार जिन स्थानों की समुद्र सतह में ऊँचाई कम हैं, वहाँ स्वस्थता और सम्पन्नता के साधन घटते जाते हैं। सौंदर्य सद्भाव भी अपेक्षाकृत कम होता है। जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जाती है वैसे-वैसे भूमि की उर्वरता और प्राणियों की प्रतिभा का विकास हुआ दृष्टिगोचर होता है। इस दृष्टि से हिमालय के ऊँचाई वाले क्षेत्र में जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य की भरमार है वहाँ स्वास्थ्य संरक्षक तत्व भी कम नहीं है।

साधन सम्पन्न लोग गर्मी के दिनों पहाड़ों पर अपनी निवास व्यवस्था बनाते हैं। जो अधिक समय वहाँ ठहरने की स्थिति में नहीं है वे उस क्षेत्र में सैर सपाटे के लिए निकलते हैं। कितने ही सेनेटोरियम पहाड़ी क्षेत्र में बने हैं। जिनमें क्षय जैसे कष्ट साध्य रोगों के रोगी रोगमुक्ति का लाभ प्राप्त करते हैं। सम्पन्न लोगों के विद्यालय भी देहरादून, मंसूरी, नैनीताल, अल्मोड़ा, जैसे स्थानों पर बने हैं, ताकि छात्र विद्या प्राप्ति के अतिरिक्त प्रकृति सान्निध्य एवं उपयुक्त जलवायु के सहारे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में अभिवृद्धि कर सकें। पहाड़ी क्षेत्र में निर्धनता रहते हुए भी वहाँ के निवासियों में सहनशीलता एवं सज्जनता की मात्रा अन्य स्थानों की अपेक्षा कम नहीं अधिक ही पाई जाती है।

तीर्थ यात्रा की धर्म भावना से प्रेरित होकर अब धर्मप्रेमी अन्यान्य भीड़ भरे नगरों में देवदर्शन के लिए जाने की अपेक्षा उत्तराखण्ड की दिशा अधिक उत्साहपूर्वक पकड़ने लगे हैं। अब से 100 वर्ष पहले मुश्किल से 6 हजार यात्री उस क्षेत्र में जाते थे। पर अब उनकी संख्या 20 लाख से भी अधिक होती है। यह प्रमाण बताते हैं कि मानसिक शान्ति की दृष्टि से जन-साधारण के लिए देवात्मा हिमालय वाला भाग कितना उत्साहवर्धक और आनन्ददायक है।


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