प्रगति की प्रसन्नता की जड़ें हमारे अपने ही अन्दर

March 1983

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आम आदमी अपनी प्रसन्नता कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों या परिस्थितियों पर निर्भर मानता है और उनका सान्निध्य, अनुग्रह या बाहुल्य उपलब्ध करने के लिए प्रयत्नरत रहता है। सुख की इच्छा स्वाभाविक है। उस प्रयास में पुरुषार्थी बनने और व्यस्त रहने का अवसर मिलता है। इसी प्रकार दुःख से बचने की बात भी सारगर्भित है। कठिनाई में न पड़ने या उबरने के प्रसंग भी अधिक जागरुकता एवं साहसिकता प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से सुविधा साधनों के संचय तथा परिस्थितियों के अनुकूल की आकाँक्षा भी अधिक जागरुकता एवं साहसिकता प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से सुविधा साधनों के संचय तथा परिस्थितियों के अनुकूलन की आकांक्षा का औचित्य भी है। सामान्य जन यदि ऐसा सोचते हैं और उस हेतु प्रयत्नरत रहते हैं तो इसमें अनुचित जैसी कोई बात भी नहीं है। असमंजस तब उत्पन्न होता है जब इन प्रयत्नों में संलग्न रहने पर भी छुटपुट सफलताएँ मिलते रहने पर भी सन्तोष नहीं होता और दुःखी विपन्नों जैसी मनःस्थिति जड़ जमाये बैठी रहती है।

इस संदर्भ में यदि हम थोड़ा गहराई से विचार करें तो जान पड़ता है कि मान्यता क्षेत्र की कुछ मौलिक भूलें भी रहती हैं जिनके कारण आवश्यकता से अधिक निराशा और खिन्नता से ग्रसित रहना पड़ता है। इन भूलों में प्रमुख यह है कि जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही होना चाहिए। जिन वस्तुओं की अभिलाषा है, वे मिलनी ही चाहिए। संबद्ध व्यक्तियों को हमारा कहना मानना ही चाहिए। जैसी उनसे अपेक्षा की गयी है, वैसा ही उन्हें करना या रहना चाहिए। परिस्थितियों का प्रवाह वैसा ही बहना चाहिए जैसा की सोचा या चाहा गया है। यह मान्यता संसार की संरचना और प्रकृति प्रवाह के तारतम्य के साथ परिचय न होने के कारण ही बनती है। यह संसार मात्र हमारे लिए ही नहीं बना है। वैभव का सृजन हमारे हाथ में रहने के लिये ही नहीं हुआ है। प्राणियों की अपनी सत्ता एवं चेतना भी है, यह बहुधा हम भूल जाते हैं।

यह कोई अनिवार्य नहीं कि कोई हमारी मर्जी के अनुरूप ही अपनी गतिविधियों का निर्धारण करे? जब हम स्वयं दूसरों की इच्छा के अनुरूप ढल नहीं पाए तो यह आशा करना व्यर्थ एवं अनौचित्यपूर्ण है कि संबद्ध लोग ही हमारे कहने पर चलेंगे। जब लोग नियन्ता तक की अवज्ञा करते हैं तो फिर कैसे आशा की जाय कि हर कोई वैसा करेगा, बनेगा, रहेगा, जैसा कि चाहा गया है। यह अतिवाद है। हर किसी कि एक मर्यादा है। अपनी भी है। दूसरों के साथ व्यवहार साधना तो पड़ता है, पर यह मानकर चलना चाहिए कि जितनी अनुकूलता मिल सके उतने से ही काम चलाया जाय और अधिक पाने के लिये प्रयास जारी रखे जायं। जो नहीं मिला, उससे खिन्न रहने की अपेक्षा यही अधिक अच्छा है कि जो हस्तगत हुआ, उस पर मोद मनाते हुए जीवन शकट को नियति पथ पर आगे बढ़ाया जाय। महत्वाकाँक्षी होने में हर्ज नहीं, पर वे उमंगें मात्र सुखद कल्पनाओं तक ही सीमित रहे। उनका उपयोग प्रयत्नशीलता को अधिकाधिक बढ़ाते रहने के लिए ही करना चाहिए। इससे आगे बढ़ना और आतुरता की सीमा तक पहुंचना हानिकारक है। गुँजाइश इस बात की भी रहनी चाहिए कि प्रतिकूलता प्रबल रही तो भी अपना उत्साह गँवाया न जाएगा। असफलता को निराशा और खिन्नता की सीमा तक पहुँचने न दिया जाएगा। स्मरण रहे सन्तुलन बनाये रहने पर ही अभीष्ट लक्ष्य की दिशा में गिर-गिरकर उठने और उठ-उठकर चलने की बात बनती है। आतुर महत्वाकाँक्षाएँ ही प्रातः निराशा में बदलती और मनोबल को इतना तोड़-मरोड़कर रख देती हैं कि फिर कुछ करते धरते ही न बन पड़े।

जीवन शास्त्र के मनीषी ए. एल्वारेज ने लिखा है- “प्रतिकूलता एवं अनुकूलता सापेक्ष हैं। एक व्यक्ति के लिए जो बात दुर्भाग्य का चिन्ह हो सकती है, उसी की उपलब्धि अधिक गई-गुजरी स्थिति में रहने वाले अपना सौभाग्य मान सकते हैं। अपंगों के लिए वे भी सौभाग्यवान हैं जो लंगड़ाकर चल लेते हैं। किन्तु लंगड़ा जब दौड़ने वालों के साथ अपनी तुलना करेगा तो स्वयं को अभागा अनुभव करेगा। वस्तुतः अभागा कोन है? इसका कोई पैमाना नहीं। दरिद्री किसे कहा जाय? दुःखी किसे कहा जाय? इसके उत्तर में दो बातों ही कही जा सकती हैं। एक यह कि किसके साथ तुलना की जा रही है। दूसरा यह कि आकाँक्षा की आतुरता का दबाव कितना है? कइयों को छोटी-छोटी प्रतिकूलताओं में अपना सन्तुलन खोते- आत्मघात तक करते देखा गया है जबकि दूसरे लोग उन्हीं असफलताओं को नियति का एक मजाक भर मानते, नया रास्ता अपनाते और नये सिरे से ताना-बाना इस प्रकार बुनते देखे गये हैं मानो कि कुछ हुआ ही न हो। इससे सिद्ध होता है कि महत्व परिस्थितियों का नहीं, मनःस्थिति का है।”

खीज और निराशा भी शोक सन्ताप की तरह मानसिक सन्तुलन को गड़बड़ा देती है। असन्तुष्ट और विक्षुब्ध व्यक्ति अध-पागलों की स्थिति में जा पहुँचते हैं। कठिनाई से निकलने के लिए क्या करना चाहिए, प्रतिकूलताओं से बचते बचाते नया रास्ता क्या अपनाना चाहिए, इसका निर्धारण आतुर या आवेश ग्रस्त मस्तिष्क के लिए कर सकना कठिन है। सामान्य परिस्थितियों में काम-काज का ढर्रा घुमाते रहना एक बात है और अवरोध खड़ा होने पर नये सिरे से नया कुछ सोच सकना- नया कुछ कर सकना सर्वथा दूसरी। इसके लिए अधिक यथार्थवादी सूझ-बूझ चाहिए। वह उद्विग्नता के रहते सम्भव नहीं। कुशल सेनापति हर स्थिति में अपना सन्तुलन बनाये रहते हैं तभी तो उनके लिए स्थिति के अनुरूप उलट-पलटकर निर्णय कर सकना सम्भव होता है। यदि वह किसी असफलता से सन्तुलन गँवा बैठे, असफलता पर उन्मत्त होने लगे तो समझना चाहिए कि अनुपयुक्त कदम उठेगा और नया संकट खड़ा होगा। जो अपेक्षा कुशल सेनापति से बड़े मोर्चे पर बड़े रूप में युद्ध संचालन के निमित्त की जाती है, वही छोटे रूप में सामान्य जीवनचर्या के संदर्भ में भी आवश्यक होती है। यह स्थिति है या नहीं इसका एक ही मापदण्ड है कि व्यक्ति अपने चेहरे पर सहज मुसकान बनाये रह रहा है या नहीं।

खिन्नता असफलता की अभिव्यक्ति है। असफलता का मूल्यांकन अयोग्यता के रूप में किया जाता है। अयोग्यों के साथ किन्हीं की सहानुभूति तो हो सकती है और कोई उदार उनकी सहायता भी कर सकता है किन्तु ऐसा नहीं होता कि उन्हें सम्मान दिया जाय, सराहा जाय, मैत्री योग्य समझा जाय। ऐसी दशा में खिन्नता व्यक्त करने वाले भले ही दूसरों से उथली सहानुभूति कुछ समय के लिए पा सकें, पर अपनी गरिमा तो गँवा बैठते हैं। लोग ऐसे साथी चाहते हैं जो सफल, समर्थ एवं सुयोग्य हों। यह विशेषताएँ सिद्ध करने में मात्र वे ही समर्थ होते हैं जो प्रसन्न और आशान्वित रहते हैं। साहस और पराक्रम बनाये रहना भी ऐसे ही लोगों से बन पड़ता है। फलतः सम्मान और सहयोग भी उन्हें ही मिलता है। मित्रता के लिए उन्हीं की ओर संसार के हाथ बढ़ते हैं।

प्रसन्नता निठल्लेपन की नहीं, व्यस्तता के नजदीक खोजी जा सकती है। कई लोग मौज मजे की जिन्दगी उसे समझते हैं जिसमें खाली बैठने का अवसर मिलता है और निरर्थक या उथली बातों में दिन गुजरता है। यह हलकापन व्यक्ति को अपनी और दूसरों की आंखों में भी हलका बना देता है। हलके का अर्थ है- उथला निरर्थक। यह व्यक्तित्व का अवमूल्यन है। महत्व खो बैठन पर सम्मान भी चला जाता है। जो अपनी तथा दूसरों की आँख में महत्व गँवा बैठा, समझना चाहिए कि उसकी गणना उथलों में- अयोग्यों में होने लगी। ऐसी स्थिति में न कोई गौरवान्वित हो सकता है और न सच्चे अर्थों में प्रसन्न ही रह सकता है।

दूसरों की निंदा या प्रशंसा पर लहराने वालों को भी एक तथ्य जानना चाहिए कि इसके पीछे प्रायः चाटुकारिता या ईर्ष्या काम करती है। ऐसी दशा में सामान्य जनों को न तो प्रशंसा का कोई महत्व है और न निंदा का। उसका महत्व तो तब बनता है जब किसी विवेकवान व्यक्ति द्वारा गहरी छान-बीन करने के उपरान्त कोई निष्कर्ष निकाला और सुधार प्रोत्साहन के उद्देश्यों को सामने रखकर व्यक्त किया गया हो। उद्देश्य और काम का सही स्वरूप समझना मात्र अपने लिए ही सम्भव हो सकता है। इसलिए यदि निन्दा प्रशंसा का कोई महत्व माना जाय तो वह आत्मावलोकन आत्म-निरीक्षण के आधार पर अपने द्वारा ही प्रस्तुत की गई होनी चाहिए।

दुराग्रही प्रायः रुष्ट असन्तुष्ट पाए जाते हैं। बदली हुई परिस्थितियों में अपने चिन्तन एवं व्यवहार को बदलने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए जो तैयार रहते हैं, वे प्रसन्न रहते पाये जाते हैं। जिन्हें देश, काल, पात्र के अनुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन करना आता है, समझना चाहिए कि उन्हें संसार में रहना हलका-फुलका जीवन जीना आ गया। अड़ियल लोग ही प्रायः हैरान पाये जाते हैं। आदर्शवादी सिद्धांतों पर अडिग रहना और अपनी निजी जीवनचर्या को उसी ढाँचे में ढालना- इतने भर का आग्रह रखना पर्याप्त है। सभी वैसा करेंगे, वैसी अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। अवांछनीयता को सुधारने के कई तरीके हैं। उसके लिए विरोध, असहयोग और संघर्ष तक के तरीके काम में लगाये जा सकते हैं। पर वे कटु प्रयास भी अपनी शालीनता गँवा बैठन जैसे नीचे स्तर पर उतर कर नहीं होने चाहिए। रोग को निरस्त करने और रोगी को बचाने की नीति अपनाकर दुर्जनों से भी सफल लड़ाई लड़ी जा सकती है। इस नीति को अपनाकर चलने में प्रसन्नता भी बनी रहती है और सफलता भी अपेक्षाकृत अधिक मिलती है।।

अपने काम ही अपनी प्रसन्नता के आधार हो सकते हैं। अपने लोगों के साथ रहकर भी प्रफुल्ल रहा जा सकता है। अपनी परिस्थितियों को सँभालने और सुधारने का कार्यक्षेत्र भी इतना है, जिसमें कौशल व्यक्त करते हुए किसी के लिए भी प्रसन्न रहने और रखने का आधार बना रह सकता है। नई वस्तुओं में, नई परिस्थितियों में, नये व्यक्तियों में प्रसन्नता खोजते फिरने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जो कार्यक्षेत्र एवं परिकर उपलब्ध है उसी का स्तर उठाने में अपना कौशल प्रदर्शित किया जाय और उसी पुरुषार्थ के आधार पर प्रसन्न रहने का अपना स्वरूप बना लिया जाय।

अविश्वास और आशंका की हलकी सी किरणें बनाये रहने पर खतरों से बचा और जागरुक रहा जा सकता है किन्तु उसकी अति में हानि ही हानि है। हर किसी को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाय, हर किसी पर सन्देह किया जाय तो फिर इस संसार में कुरूपता और कुढ़न के अतिरिक्त और कुछ शेष ही न रहेगा। भविष्य की आशंका में निमग्न रहा जाय तो अपनी कुकल्पनाएँ ही चित्त को उद्विग्न बनाये रहने के लिए निमित्त कारण बन जायेगी। भले ही वस्तुतः वैसा कुछ होने वाला न हो।

एकाकी व्यक्ति अपने आपको असहाय अनुभव करता है। जो व्यक्ति अपने को आत्मीयों और सज्जनों से घिरा हुआ अनुभव करते हैं, उन्हें मानवी सज्जनता और सहकारिता पर विश्वास रहता है। जो दूसरों का दुःख बँटाते और अपना सुख बाँटते रहते हैं, उन्हें हलकी-फुलकी- हंसती-हंसाती जिन्दगी जीने का अवसर मिलता है। ऐसे लोग हर परिस्थिति में- हर स्थान में- हर प्रकार के व्यक्तियों के साथ रहते हुए भी अपनी प्रसन्नता को अक्षुण्य बनाये रहते हैं।


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