अपनों से अपनी बात - समस्याएँ हमीं ने उत्पन्न की हैं- हमीं हल भी करें

March 1983

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समस्याओं को सुलझाने और सुविधा संपदाओं को बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति उत्सुक इच्छुक पाया जाता है और इसके लिए अपनी मति के अनुसार कुछ न कुछ सोचता और करता भी है। पर इस संदर्भ में कोई ऐसी कठिनाई अड़ी रह जाती है जिससे चिन्तन के अनुरूप परिस्थितियाँ नहीं बन पातीं और जिनकी इच्छा तनिक न थी, उन्हें उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। देखना होगा कि वह व्यवधान क्या हो जो ईश्वर के अंश राजकुमार प्रतिनिधि कहे जाने वाले मनुष्य को इस प्रकार खिन्न विपन्न रखे रहता है। उसकी इच्छा आकांक्षाओं में से अधिकांश को मृग तृष्णा ही बनाये रहता है। जिसे भी देखा जाय, असन्तुष्ट उद्विग्न पाया जाता है।

इतना ही नहीं उसे अभिशाप भी घेरे रहते हैं जो अन्यान्य प्राणियों में से किसी को भी हैरान नहीं करते पर मनुष्य पर ही उनका आक्रमण होता है। दुर्बलता, रुग्णता, चिन्ता, अतृप्ति, अशांति, आशंका से ग्रसित पशु पक्षियों के समुदाय में कदाचित ही कोई कहीं मिलेंगे सभी हंसते हुए उठते, चैन की सास लेते और लम्बी चादर तानकर सोते हैं। फिर मनुष्य पर ही क्या ऐसी आफत टूटती है जिसके कारण न वह स्वयं चैन से रह पाता है और न जिनके साथ रहता है उन्हें चैन से रहने देता है।

दरिद्रता की शिकायत किसी प्राणी को नहीं, निर्वाह के उपयुक्त साधन सामग्री उन्हें अपने चारों ओर पर्याप्त मात्रा में पड़ी दीखती है। साथियों से बैर विद्वेष की उन्हें कोई शिकायत नहीं। सभी हिलमिल कर रहते हैं। मृगों से लेकर हाथियों तक- गौरैया से लेकर हंसों तक- चींटी से लेकर मधु-मक्खी तक सभी को मण्डली बनाकर सहयोगपूर्वक रहते देखते हैं। अपवाद तो कभी-कभी कहीं-कहीं ही दीखते हैं। जब सर्वत्र सन्तोष और शांति का वातावरण है। भगवान का अनुदान सभी पर बरसा हो तो अकेला मनुष्य ही क्यों ऐसा अभागा रह गया जिसे उतना समुन्नत शरीर- इतना सुविकसित मस्तिष्क इतना समृद्ध वातावरण उपलब्ध होते हुए भी चैन का नाम नहीं, सन्तोष दुर्लभ और हर समय खीजते-कलपते रहने की मनःस्थिति।

अवश्य ही यहां कोई ऐसा गतिरोध अड़ गया है जिससे आनन्द लुटने और प्रगति के उच्च शिखर तक चढ़ दौड़ने की समस्त सम्भावनाओं को ही कुँठित करके रख दिया। मनुष्य के सामने महती समस्या यही है यदि इसका समाधान बन पड़े तो समझना चाहिए दुर्भाग्य से छुटकारा मिला और सौभाग्य अनायास ही आकाश से टूट पड़ा।

यह व्यक्तिगत जीवन की चर्चा हुई। इससे एक कदम आगे बढ़ते ही परिवार सामने आता है। परिवार के बीच सभी को आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। पक्षी अपने घोसलों में अण्डे बच्चों समेत मोद मनाते हैं। मुर्गी अपने परिवार को साथ लिए फिरती है। चींटी अपनी सन्तान को लिये लिये फिरती है। बिल्ली से लेकर कुतिया तक के बच्चे अपनी माताओं की पीठ पर चढ़े मोद मनाते हैं। माता जिस भी परिस्थिति में है उन्हें दुलार से नहा देती है। बालकों को भी कोई शिकायत नहीं। एक मनुष्य है जिसके घर में स्वार्थों की खींचतान आरम्भ से लेकर अन्त तक चलती रहती है। सभी अपनी-अपनी गोद हरी करना चाहते हैं। बाहर से देखने में भेड़ों के बड़े सरायों, जेलखानों, मुसाफिर खानों की तरह एक घर में रहते अवश्य हैं और लोकाचार भी किसी कदर पालते हैं पर जिस साधन आत्मीयता के लिए प्राणी तरसता और घर परिवार बसाता है उसका कहीं नाम निशान नहीं दीखता। बुढ़ापे का सहारा किसी को मानना इन दिनों शेख चिल्ली के सपनों से कम नहीं रह गया है। पिण्ड मिलने, वंश चलने जैसी मूढ मान्यताओं को उपहासास्पद ठहराया जा सकता है पर बनता इतना तक नहीं कि उन्हें स्वावलम्बी सुसंस्कारी बन सकने तक का अनिवार्य उद्देश्य सध सके।

अनीति उपार्जन और निष्ठुर अपव्यय करने वाली सन्तान का बखान करना निरर्थक डींगे हांकने के समान है। इससे दूसरों पर रौब जमाया जा सकता है। आत्मा को, परमात्मा को, विश्वात्मा को यह सन्तोष नहीं दिलाया जा सकता कि जिनके लिए जीवन रस निचोड़ दिया उनका स्तर मानवी गरिमा के उपयुक्त बन सका या नहीं।

चन्दन अपने समीपवर्तिय पौधों को सुगन्धित बना देता है, माली का उद्यान फल-फूलों से लदा दीखता है किसान जिन खेतों में मेहनत करता है उसके बदले में अनाज के कोठे भर लेता है, गड़रिया जिन्हें पालता है उनकी संख्या और स्थिति बढ़ाता है। दूध, ऊन और बच्चों के सहारे अपने श्रम का प्रतिफल पाता है। यह बात देखने योग्य है कि परिवार पालने वाले इतना अधिक त्याग और श्रम करने के उपरान्त भी अनीति संचय उड़ेलते रहने पर भी आखिर पाते क्या हैं? उनके उस खेत से क्या फसल उगी और उससे किसका हित सधा यह विचारने ही योग्य है। इस तथ्य पर आरम्भ से अन्त तक विचार किया जाना चाहिए कि मनुष्य अपने लिए- परिवार के लिए- करता तो बहुत कुछ है, पर दोनों ही क्षेत्रों में उसे घोर असफलता हाथ लगती है। आखिर इस श्रम की निरर्थकता का कोई तो कारण होना ही चाहिए।

कोई अहंकारी दूसरों पर रोब गाठने की प्रवंचना कुछ भी कर सकता है। पर वास्तविकता की कसौटी पर हर व्यक्ति बुरी तरह असफलता ग्रस्त और जीवन की लाश ढोता पाया जायगा। बढ़िया कपड़े आभूषण शृंगार साधन दूसरे पर सौंदर्य और वैभव की छाप डालने में सफल हुए या नहीं, यह दर्शकों की आंखों में घुसकर ही देखना पड़ता है। अपनी दुर्बलता और अस्वस्थता तो उस हालत में भी पीछा छोड़ने वाली नहीं है। उसकी कसक तो मर्माहित करती ही रहेगी। धन वैभव का चमत्कार दिखाने के वाहन, बँगला, मोटर और गृह सज्जा से कितना प्रयोजन सधा, कह नहीं सकते। कितने रौब में आये, कितनों ने सराहना की, कुछ निश्चय नहीं। मन के लड्डू फोड़ते रहने पर भी हो सकता है कि इस प्रदर्शन से दूसरों को ईर्ष्या उभरी हो, सकता है अनीति उपार्जन और उद्धत अपव्यय का असंख्यों ने दोषारोपण किया हो और नीचा दिखाने के लिए कुछ भी कर गुजरने का ईर्ष्यालु षडयन्त्र बनाया है। सफलताओं का, बड़प्पन का, वैभव का ढिंढोरा पीटने के लिए धन की होली जलाना एक बात है और जिस सम्मान की प्यास के लिए यह महंगा जंजाल संजोया ढोया गया था उसमें वस्तुतः कितनी सफलता मिली उसे खोज निकालना सर्वथा दूसरी बात है।

ऐसे लोग कम नहीं जो शादियों में हजारों लाखों की संपत्ति फुलझड़ी की तरह देखते-देखते धुंआ उड़ा देते हैं। ऐसों की कमी नहीं जो तीर्थयात्रा, ब्रह्मभोज और देव पूजन और चींटी के बिलों पर आटा डालते और अपने को पुण्यात्मा सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। कौन जाने उन्हें उसमें कितनी सफलता मिली होगी। जिन पण्डों से जेबकटी वे उस ‘धर्म धुरीण’ यजमान को काठ का उल्लू से अधिक और कुछ समझ रहे होंगे या नहीं। जिन चींटियों के बिलों पर आटा डाला गया था उन्हें दूसरे ही क्षण कुत्ता उदरस्थ कर दिया होगा तो वे बेचारी क्या कहती होंगी? उन्हें पुण्य प्रदर्शन के ढिढोर नियों को शादी में दौलत उड़ाने वालों का ससुर और जमाता भविष्य में इन धन कुबेरों से और भी न जाने कितना पाने की आशा लगाने लगे होंगे और न मिलने पर उस वधू को मार कर दूसरी शादी करने पर इतना ही धन और कमाने की योजना बना रहे होंगे।

मनुष्य की बुद्धिमानी में कोई शक नहीं, पर उसकी मूर्खता भी ऐसी है जिस पर हंसते-हंसते लोट पोट हो जाने या आंखों से आँसू बहाते हुए हिचकी भर कर फूट पड़ने को मन करता है। बुद्धिमानी और मूर्खता का इतना विचित्र संयोग देख कर कभी तो उसके सृजेता से लड़ पड़ने को जी करता है और कभी मन आता है कि इन विडम्बनाओं, विपन्नताओं में बेतरह उलझे हुए अभागों को छाती से चिपटा कर फफक-फफक कर रो लिया जाय। उसका न सही अपना तो मन हलका कर ही लिया जाय। वस्तुतः दुर्गतिजन्य दुर्गति का ऐसा अभिशाप जैसा मनुष्य के हिस्से में आया, कदाचित ही सृष्टा की इस सृष्टि में अन्य किसी को संत्रस्त कर रहा हो।

आखिर यह सब है क्या? मनुष्य जीवन सृष्टा का सर्वोपरि उपहार है। उसे भव-बन्धनों से मुक्त होने, आत्म कल्याण के चरम लक्ष्य तक जा पहुँचे, सदुपयोग कर सकने पर और भी ऊँची पदोन्नति पाकर ऋषि, देवता, अवतार बनने जैसी अगणित सम्भावनाओं से भरा-पूरा यह उपहार क्या इसलिए था कि उसे अभिशाप की तरह वहन करना पड़े। सृष्टा ने अपेक्षा रखी है कि उसका राजकुमार हाथ बंटायेगा और उससे विवेक उद्यान को अधिक सुरम्य बनाने में सहयोग देगा। पर यह क्यों, वह तो स्वयं ही ऐसे दलदल में फँस गया है। जिससे उबरने से उसका अपना पुरुषार्थ काम नहीं दे रहा। जिस-तिस के सामने पल्ला पसरता, गिड़गिड़ाता, नाक रगड़ता देखा जाता है। देवी-देवताओं, मन्त्र-तंत्रों, पूजा-पाठन और सिद्ध पुरुषों के लिए इर्द-गिर्द मंडराने का उसका मात्र एक ही प्रयोजन है कि उसकी ऊपर लदी हुई विपत्तियों से किसी कदर छुटकारा दिलाने में उनका वरदान काम आये? यह ठीक है कि डूबता तिनके का सहारा चाहता है। पर पूछने लायक बात यह भी तो है कि बैठे ठाले उसे डूबने की आवश्यकता ही क्यों पड़ गई, जिसके लिए तिनकों की मनुहार करनी पड़े।

अपने पुरुषार्थ से सभी काम चलाते हैं। फिर मनुष्य के छह इंच वाले पेट को छह फुट वाली भुजाएँ क्यों कम पड़ीं? इतना विकसित मस्तिष्क होते हुए भी गुजारे में इतनी बाधा क्यों पड़ी जिसको अनीति पर उतारू होना पड़ा। अपराधी कृत्यों पर कमर बाँधनी पड़ी। षडयन्त्र कुचक्र, छद्मों का सहारा लेना पड़ा। निष्ठुरता और निर्दयता की नीति अपनाकर असंख्यों की आत्मा से चीत्कार उगलवा लेने की आवश्यकता पड़ी। आखिर इतना दरिद्र कहां से आया? आखिर इतनी बड़ी आवश्यकता क्या पड़ गई जिसके लिए ऐसा हेय आचरण अपनाना पड़ा जैसा कि हिंस्र पशु भी नहीं अपनाते। पेट खाली हो तो ही सिंह आक्रमण करता है। वह भरा हो तो समीप में ही अन्य पशु निर्भयतापूर्वक विचरते रहते हैं। छेड़खानी तक का प्रसंग नहीं आता। फिर मनुष्य का ही क्या हुआ जो गुजारे की सभी आवश्यकताएं उपलब्ध रहने पर भी निरन्तर अपराधों की बात सोचता है। साहस आक्रमण करते हैं कायर छल के जाल बिछाते हैं। दोनों की दिशाधारा एक ही है। न जाने मनुष्य हिंस्र पशुओं से भी गई-गुजरी हेय परिस्थिति में फंसता चला जा रहा है। न जाने कौन-सी विपत्ति उस पर टूट पड़ी है जिससे इतना निकृष्ट स्तर अपनाये बिना और बदले में देखने वाली आत्म प्रताड़ना सहे बिना काम ही नहीं चलता।

असफलताओं और असमंजसों से घिरा, विडंबनाओं से उलझा, समय और संकटों से जकड़ा- दलदल में पैर से सिर तक धंसा- यह कैसा जीवन जिसमें न सन्तोष, न चैन, न उत्साह, न आशा, न भविष्य। निश्चय ही कहीं कोई बड़ी भूल हो गई है। लगता है वह है ऐसी जो मूर्खता होते हुए भी बुद्धिमता दीखती है। विष तुल्य होते हुए भी अमृत जैसी मीठी लगती है। समझने में आती नहीं, न छूटती है, न हटती है, न उसे छोड़ने की इच्छा ही होती है। सम्भवतः इसी को मोह मयी मदिरा और माया की मृग तृष्णा कहा गया है। सम्भवत यही भ्रमग्रस्तता है जिसके लिए कस्तूरी के हिरन भटकते रहते हैं। यही वह मृग तृष्णा है जो प्यासे मृगों की ललचाती और दौड़ाती थकाती बेमौत मारती है।

चासनी पर बेहिसाब टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पंख फंसाती और प्राण गंवाती है। आटे को गोली के प्रलोभन में मछली और जाल के दानों पर टूट पड़ने वाली चिड़िया की अदूरदर्शिता हर किसी को अखरती है, पर उस व्यामोह को क्या कहा जाय? जो दुर्गति के सहारे दुर्गति कराने वाले अभिशाप के रूप में जन-जन के ऊपर लदा पड़ा है। इस सुयोग का जो लाभ मिलना चाहिए उनमें से तो एक भी मिल नहीं पाता, उलटा ऐसे संकटों का दुर्भाग्य सहना पड़ता है जितना कदाचित ही इस सृष्टि के अन्य किसी प्राणी के ऊपर लदता हो। अन्य प्राणी अपने संचित भोग कर निवृत्त हो जाते हैं किन्तु मनुष्य है जो त्राण पाने की अपेक्षा जन्म-जन्मान्तरों तक भुगते जाने वाले पाप कर्मों का पोटला बोझिल करता चला जाता है।

बुद्धिमान इस मूर्खता का कीकारण प्राचीन काल में ‘माया’ के नाम से जाना और कहा जाता रहा है और उससे विरत होने वाले को लोक-परलोक से असीम आनंद मिलने का प्रतिपादन अपने ढंग से किया जाता रहा है। अब परिभाषाएँ बदल गई हैं। ‘माया’ शब्द का उपयोग किये बिना भी कहा जा सकता है। उसमें दृष्टिकोण में समाविष्ट भ्रान्ति व्यवहार अव्यवस्था और निर्धारण में अदूरदर्शिता का समावेश कहा जाय तो भी हर्ज नहीं। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने वाले सिद्धांतों, आदर्शों और विधानों के तथा आज के प्रचलनों के बीच जमीन आसमान जैसी खाई बन गई है। पहले यह अन्तर कम था। तब मनुष्य उतना ही प्रसन्न और सन्तुष्ट था। आज परिस्थितियों में जटिलता आ गई है। उसके अनुरूप दृष्टिकोण की अपेक्षाकृत अधिक उदात्त और परिमार्जित होना चाहिए था। इसके स्थान पर हुआ ठीक उलटा है। समाज में सम्पन्नता अर्जित करने और उसे उद्धत प्रयोजनों में उड़ाने की प्रथा चल पड़ी है। इसके निमित्त मनुष्य को अधिक संकीर्ण, निष्ठुर, अनैतिक एवं आक्रामक बनना पड़ा है। संक्षेप में रहा है आज का प्रचलन।

यदि सामयिक समस्याओं का तात्कालिक हल निकालना ही अभीष्ट हो तो उसी प्रचलित नीति को अपनाये रहा जा सकता है जिससे मच्छरों, मक्खियों को पकड़ने और चेचक की हर फुँसी पर अलग-अलग मरहम पट्टी करने की विडम्बना प्रचलित है। यदि अत्यन्तिक और चिरस्थायी समाधान खोजना हो तो उसका उपाय एक ही है कि दृष्टिकोण, व्यवहार, स्वभाव एवं निर्धारण का पुनर्निरीक्षण किया जाय। नाली साफ करके सड़ी कीचड़ बुहार देने से ही मक्खी मच्छरों दुर्गन्ध कृमियों से छुटकारा मिलेगा। रक्त शोधन के उपचार से ही फुंसियों से पीछा छूटेगा। मनुष्य का आज का चिन्तन और स्वभाव ही गड़बड़ा गया और उसे भटकाव ने ग्रस्त लिया है कि सुखी सन्तुष्ट एवं समुन्नत जीवनयापन के लिए क्या सोचना और क्या करना चाहिए। प्रचलित ढर्रे ने किस प्रकार, कितना, क्या हेर-फेर करना चाहिए। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि जन-जन के सम्मुख उपस्थित समस्याओं और विभीषिकाओं में से अधिकाँश का- अधिकांश समाधान मिल गया है और संकटों का घटाटोप अनुकूल हवा बहते ही उड़ गया।

अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति के विकास के समुन्नत जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सुविधा साधन अर्जित करने के लिए भौतिक विज्ञान। सुविधा सामग्री श्रम और साधनों के सहारे उपलब्ध होती है। व्यक्तियों और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सकने में समर्थ व्यक्तित्व का निर्माण अध्यात्म विज्ञान के सुनिश्चित फार्मूलों के आधार पर ही सम्भव होता है। परिष्कृत व्यक्तित्व ही अपनी सुव्यवस्था बना सकता है और उसी के लिए यह संभव है कि स्वास्थ, सन्तुलन, सम्मान, वैभव, प्रभाव को सन्तोषजनक मात्रा में अर्जित कर सके। ऐसे व्यक्ति ही अपने संपर्क क्षेत्र को सुव्यवस्थित रख पाते हैं और उन्हीं के लिए सम्बन्धियों को सुसंस्कारिता प्रदान कर सकना सम्भव होता है। परिवार पोषण एक बात है और परिवार निर्माण दूसरी। इसके लिए जिन साधनों और परिस्थितियों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, उनकी सम्भावना तो सुनिश्चित नहीं, पर इतना हो सकता है कि जैसे भी साधन उपलब्ध हैं उन्हीं के साथ उच्चस्तरीय दृष्टिकोण का समन्वय करके ऐसा सन्तुलन बनाया जाय जिसमें डडडडडडड फूट पड़े- उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना उमड़ पड़े।

पदार्थ विज्ञान प्रत्यक्ष है। उसके सहारे अभीष्ट प्रतिफल हाथोंहाथ पाया कमाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अध्यात्म विज्ञान भी ऐसा सुनिश्चित विधान है जिसके आधार पर अपने दृष्टिकोण, व्यवहार, स्वभाव निर्धारण को परिष्कृत किया जाता है। प्रस्तुत ढर्रे को दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर पर्यवेक्षण कर सकना बन पड़े और जो उचित है उसी को अपनाने- अभ्यास में उतारने का साहस उग सके तो समझना चाहिए कि समस्याओं का कुहारा छंट गया। तमिस्रा ही डरावनी होती है। उसी में ठोकरें लगने का भय रहता है। निशाचर की दाल भी उसी आवरण के पीछे गलती है। आलस्य भी उन्हीं घड़ियों में चढ़ता है और नींद की गोद में भी उसी माहौल में सब लोग चले जाते हैं। उत्पादन होता नहीं न कुछ सूझता है न बन पड़ता है। सभी लोग बिस्तरों में मुंह छिपाये पड़े होते हैं और खरीद करते दीखते हैं। यह दुर्गति तमिस्राजन्य है। इसे हटाने के लिए जन-जन को झकझोरने और दरवाजे दरवाजे को खटखटाने का प्रयोजन पूरा कर सकना कठिन है। प्रकाश उगने से ही यह सारी समस्याएँ हल होती हैं।

अध्यात्म वह प्रकाश है जिसे अपनाने पर मनुष्य को प्रचलित ढर्रे के दलदल से उबरने की आवश्यकता प्रतीत होती है। साथ ही उन भ्रांतियों, आदतों को बदलने की इच्छा होती है जो वस्तुतः इस सारी विपत्ति की जन्मदात्री है। जिसमें आज जन-जन को फँसा पाया जा सकता है। विपत्तियों कहीं से उतरती नहीं हैं, समस्याएँ ऊपर से टूटती नहीं हैं। वे मनुष्य की अपनी बोई उगाई या न्यौति बुलाई हुई होती है। जाला मकड़ी बुनती है और उसमें स्वयं उलझकर विलाप करती और बेमौत मरती है। जब उसे यथार्थता का बोध होता है तो ढर्रा बदलती है। नये सिरे से सोचती और नई रीति-नीति अपनाती है। इतने मात्र से सारा माहौल बदल जाता है। जाले को वह उसी मुंह से समेटती निगलती चली जाती है जिसके माध्यम से कि उसे निकाला और फैलाया गया था। जाले का कच्चा मसाला मकड़ी के पेट से निकलता है और फिर ढर्रा बदलते ही उसी पेट में चला जाता है जिसमें से कि वह निसृत हुआ था। मनुष्य भी एक प्रकार की मकड़ी है। अपने दृष्टिकोण में अवांछनीयताओं का समावेश करके उन संकटों का सृजन करता है। जिनने उन्हें बेतरह खिन्न, विपन्न कर रखा है और तोड़-मरोड़कर रख दिया है।

परित्राण पाने के लिए दूसरों की और तकना व्यर्थ है। हम मुंह से भोजन करते और पेट से पचाते हैं। नित्य ही नहाते, मल-मूत्र त्यागते, सोते, पढ़ते, व्यवसायरत होते और बच्चे जनते हैं। यह कार्य औरों से नहीं कराये जा सके। अपना उद्धार आप करने का गीता परामर्श, नितान्त सही सार्थक है। यदि कोई आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म परिष्कार के लिए सच्चे मन से सहमत हो, उसकी आवश्यकता अनुभव करे और उस परिवर्तन के लिए साहस संजोये तो कोई कारण नहीं कि भौतिक विज्ञान की तरह ही आत्म विज्ञान के चमत्कार भी हाथोंहाथ न देखे जा सकें। खोया स्वास्थ्य वापस लौटाने की, उद्विग्न मनःक्षेत्र में उल्लास भरने की, अर्थ संकट से उबरने की, शत्रुता को मित्रता में बदलने की और निराशा के वातावरण में- उज्ज्वल भविष्य की आशा किरणें देखने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। जहाँ इतना आत्म परिशोधन, आत्म परिष्कार का क्रम चलेगा वहाँ यह भी बने बिना रहेगा नहीं कि जिस परिवार में सर्वत्र कुसंस्कारिता, आपाधापी, खींचतान अशिष्टता और असहकारिता भरी दीखती है उसमें आमूल चूल परिवर्तन के दृश्य न दीखने लगें।

स्मरण रखने योग्य तथ्य एक ही है कि अध्यात्म जादूगरी नहीं है। उसके द्वारा किसी देवी देवता का अनुदान सिद्ध पुरुष का वरदान या मन्त्र-तन्त्र का चमत्कार बरसने की दुराशा में जहाँ-तहाँ नहीं भटकते फिरना चाहिए। यह विशुद्ध आत्म निर्माण की विद्या है। इसके कुछ सिद्धांत और निर्धारण हैं। जो उन्हें अपनाते हैं वे उबरते हैं और अपने साथ-साथ संबंधियों समेत समूचे समाज समुदाय को उबारते हैं।

यही है वह आत्म विज्ञान जिसकी प्रत्यक्ष परिणति का रसास्वादन कराने के लिए शान्ति कुँज को एक समर्थ विद्यालय के गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। त्रिवेणी स्नान का प्रतिफल रामायण में “काक पिक बकहु मराला।” का आलंकारिक उल्लेख किया गया। त्रिपदा गायत्री की तीन धाराएं समझदारी, जिम्मेदारी, ईमानदारी के रूप में किस प्रकार जीवन चर्या में समाविष्ट की जा सकती है इसी की अनुभूत प्रशिक्षण कल्प साधना सत्रों में कराया जाता है। इस कल्प वृक्ष उद्यान में जो प्रवेश करते हैं उन्हें इस अध्यात्म विज्ञान की जानकारी, प्रेरणा एवं विद्या हस्तगत होती है जिसके आधार पर शेष जीवन को सुखी, समृद्ध, सम्मानित, सुसंस्कारी और आदर्श अनुकरणीय स्तर का बनाया जा सके।


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