विभूतियों का उद्गम अपना ही अंतरंग

March 1983

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आत्मिक प्रगति के सप्त आयामीय सोपानों के रूप में विभिन्न शरीरों के विकास के बारे में अनेकानेक मत चले आए हैं। इन्हीं को आप्त वचनों में सप्तलोकों- भूः, भुवः,स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम् के रूप में अलंकारिक रूप से वर्णित किया जाता रहा है। ये वस्तुतः होते हैं कि नहीं, इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन मानवी काया की सूक्ष्म चेतना में निवास करने वाली इन स्थितियों का अध्यात्म- मनोविज्ञान के ज्ञाता वर्णन करते हैं तथा उनके क्रमिक विकास को ही आत्मोत्थान, जीवनमुक्ति, परब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।

जाव चेतना की ये सात स्थितियाँ इस प्रकार हैं- फिजिकल बॉडी ( दृश्य कायिक स्वरूप), इथरिक बॉडी (अदृश्य चेतन स्वरूप), एस्टल बॉडी (सूक्ष्मतम दिव्य स्वरूप), मेण्टल बॉडी (मानसगत् चेतन स्वरूप), स्प्रिचुअल बॉडी (कारणगत चेतन स्वरूप), कॉस्मिक बॉडी (देव स्वरूप), बॉडीलेस बॉडी अथवा ब्रह्म स्वरूप स्थिति इसी जीवनमुक्ति, बंधनमुक्ति की अन्तिम चरमावस्था।

जो व्यक्ति साधना द्वारा अपनी चेतना का जिस सीमा तक विकास कर लेता है, उसके अंदर उसी अनुपात में क्षमताएँ उभरती और दृष्टिगोचर होने लगती हैं। एक ही व्यक्ति में एक से लेकर सात तक किसी भी स्वरूप के अपनी आत्मिक प्रगति के अनुपात में दर्शन हो सकते हैं। यह वह राजमार्ग है जिस पर अध्यात्म पथ के हर पथिक को गुजरना ही होता है। भ्रूण एक कोश की स्थिति से बहुगुणित होकर विकसित हो शिशु रूप लेता है। मानवी चेतना भी योग एवं तप के द्विविधि साधनों से विकसित होती हुई अन्तिम स्थिति को पहुँचती है। जो जिस स्थिति में अपनी काया से मुक्त हो जाती हैं वे क्रमशः अगले जीवन में उस उच्च स्थिति से फिर आगे बढ़ती हैं। कारण विशेषों के कारण कई बार ऐसे विक्षेप भी उत्पन्न होते हैं कि व्यक्ति अन्तश्चेतना की उच्चस्थिति में होते हुए भी बाह्य वातावरण के प्रभाव से सहज ही अपना प्रगति-पथ स्वयं अवरुद्ध कर लेते हैं और फिर वापस उन्हीं आयामों में लौट आते हैं जहाँ से उनका विकासक्रम आरम्भ हुआ था।

फिजीकल बॉडी दृश्य भौतिक शरीर है जो पंच तत्वों से बना है। इस इन्द्रियगम्य कहते हैं। जन्म से ही प्राणी इसी कलेवर को धारण किए रहता है। मात्र शरीरगत अनुभूतियाँ ही इसमें विकसित हो पाती हैं। अन्य जीव जगत के प्राणी आजीवन इसी स्थिति में बने रहते व प्रकृति के नियमानुसार स्वचालित जीवन जीते हैं। मात्र मानव ही एक अपवाद है। इसी जीवन में अन्य गहरी परतों- उच्चतर आयामों में प्रवेश करने की क्षमता रखता है।

दो वर्ष की आयु से मानवी काया में इथरिक बॉडी जो अदृश्य चेतन एवं सूक्ष्म स्वरूप है, विकसित होने लगती है। अपना-पराया, राग द्वेष, मिलन-वियोग की अनुभूति इसी के माध्यम से होती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ ये अनुभूतियाँ परिपक्व होती तथा इच्छाओं, आकांक्षाओं, संवेदनाओं के रूप में देखी जाती हैं। इससे अगली प्रगति की सीढ़ी है एस्ट्रल बॉडी जो सभ्यता एवं संस्कृति के परिवेश के अनुरूप किशोरावस्था में विकसित होने लगती है। यौन-अनुभूति, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, विचारों का व्यवस्थित क्रम, तर्क शक्ति का विकास इस शरीर के जागरण की उपलब्धियां हैं। सामान्यतः इसी सीढ़ी तक आकर सामान्य व्यक्तियों का विकास रुक जाता है। पेट-प्रजनन की परिधि में चक्कर काटते हुए यह प्रगति-पथ आगे अधिकाँश में अवरुद्ध हो जाता है। शरीरगत अनुभूतियाँ, सामान्य व्यावहारिक भाव- सम्वेदनाएँ तथा लोकाचार-व्यवहार कुशलता ये ही तीन मिलकर एक बहिरंग की दृष्टि से विकसित सामान्य मनुष्य का ढाँचा बनाते हैं। चाहे हम आदिम जीवन जी रहे वन्य वासियों के ढर्रे के जीवन को देखें अथवा सभ्य, सुविकसित कहे जाने वाले नागरिकों को इसी स्थिति तक पहुँचा देखा जा सकता है।

वस्तुतः अन्तः की प्रगति इसके बाद की स्थितियों में दृश्यमान होती है एवं इसके लिये साधना पुरुषार्थ करना होता है। मेण्टल बॉडी (मानसगत चेतन स्वरूप) कला सौंदर्य, विज्ञान एवं नूतन कल्पनाओं के विकास की स्थिति है। कवि, कलाकार, मनीषी, वैज्ञानिक, विचारक इसी भाव लोक में विचरण करते हैं। यह स्पष्ट माना जा सकता है कि जिस किसी भी समूह, जाति, समाज अथवा देश में सुविकसित मानस गत चेतन शरीर वाले व्यक्तियों की बहुतायत होती है वहाँ महत्वपूर्ण वैचारिक और आध्यात्मिक क्रांतियां जन्म लेती हैं। एक से बढ़कर एक विचारक, मनीषी, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक पैदा होते हैं। मानस शरीर उभरे तो सही परन्तु विकृति की दिशा में जाने लगे तो मनुष्य व्यसन और व्यभिचारजन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। ऐसे स्तर के लोग रसिक और कामुक अधिक पाए जाते हैं। अन्ततः वे अवगति को प्राप्त हो पूर्व के शरीरों की स्थिति में चले जाते हैं। महत्वाकाँक्षाएँ वस्तुतः इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करते देखे जाते हैं। लेकिन इनकी रंचमात्र सी विकृति से ही हिटलर, नेपोलियन और मुसोलिनी जन्म ले लेते हैं। बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी व्यक्ति विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी थे, पर दिशा के मोड़ से असामान्य बन गए। इसे प्रतिभा भी कह सकते हैं। प्रतिभाशाली व्यक्तियों में मनस् तत्व प्रबल होता है। संसार की समस्त भौतिक उपलब्धियां, श्रेय सम्मान आदि ‘मेण्टल बॉडी’ के विकास की ही परिणति है।

अतीन्द्रिय शक्तियाँ पांचवें आयाम- स्प्रिचुअल बॉडी में सन्निहित मानी जा सकती हैं। अचेतन मन की गहरी परतों में दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं, वे पांचवें शरीर से संबंधित हैं। टेलीपैथी ‘साय’ फिनामेनॉ जैसे चमत्कारी प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं। उग्र तपश्चर्याएं एवं कठोर तन्त्र साधनाएं इस पांचवें शरीर, स्थिति या आयाम को ही प्रबल बनाने, परिपुष्ट करने के लिए की जाती हैं। संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग, सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएं इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होती हैं। यों तो सामान्य तरह के सपने सभी देखते हैं पर किन्हीं-किन्हीं के सपने बिल्कुल यथार्थ होते तथा पूर्व बोध की अद्भुत क्षमता रखते हैं। जिनका पांचवां शरीर सुविकसित होता है उन्हें भूत-भविष्य अथवा महत्वपूर्ण घटनाओं का सन्देश देने तथा रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन करने वाले सपने आते हैं। त्रिकालज्ञ, सिद्ध स्तर के व्यक्तियों में पांचवां शरीर ही जागृत होता है। उन्हें भविष्य के गर्भ में पक रही घटनाएं सूक्ष्म जगत में प्रत्यक्ष वर्तमान की भांति दिखाई पड़ती हैं जो कि सामान्य स्थिति के व्यक्तियों के लिए असम्भव सा ही होता है।

ऋषि, तपस्वी, संतों योगीजनों में छठा शरीर विकसित होता है। इसे कॉस्मिक बॉडी या देव स्वरूप स्थिति भी कहा गया है। जिनका अंतःकरण देवत्व से ओत-प्रोत हो, वे ही देवता हैं। देवता मानवी चेतना के छठे आयाम में ही निवास करते हैं अर्थात् ऐसे व्यक्ति जिनकी मनःस्थिति एवं अन्तःकरण देवताओं जैसा विकसित हो, जो मात्र देना ही जानते हों, सर्वत्र विराट् की ही अनुभूति जिन्हें हो वे जीते जागते मानव शरीर में विराजमान देवता हैं।

ब्रह्म शरीर अथवा बॉडीलेस बॉडी अन्तिम सातवें आयाम की स्थिति है। इस सातवें शरीर के विकसित होने पर स्थूल शरीर सम्बन्धी सभी प्रारम्भिक आसक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। परमात्मा से, नियामक सत्ता से सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता तथा परस्पर दिव्य आदान-प्रदान का मार्ग खुल जाता है। ब्रह्म शरीर का सम्बन्ध ब्रह्म से बन जाने से उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। ऐसे ही स्तर पर पहुँचने की स्थिति को वेदान्त में ‘तत्वमसि’, ‘सच्चिदानंदोऽहम्’, ‘शिवोऽहम्’ कहा गया है। अवतार सातवें शरीर में पहुँची आत्माएँ होती हैं। जिनकी अपनी कोई इच्छा-आकाँक्षा नहीं होती। सृष्टि सन्तुलन के लिए वे समय-समय पर विधाता की इच्छानुसार विकसित अवतरित होती हैं तथा प्रयोजन पूरा करतीं, लोक मंगल के लिये जीकर अनेकानेकों को अपने साथ तारती देखी जाती हैं।

भौतिक आकर्षणों की परिधि तीसरे आयाम तक होती है। नर और नारी की मान्यताएँ भी इसी स्थिति तक सीमित रहती हैं। क्रमशः चौथे। पांचवें, छठे एवं सातवें आयामों के विकसित होने पर साधक को सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होने लगती है। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ तथा उपनिषद् में उल्लिखित तत्वदर्शी की स्थिति छठे शरीर के विकसित होने पर बन जाती है। परिवर्तनशील संसार की घटनाएं ऐसी मनःस्थिति सम्पन्न देवपुरुषों को प्रभावित नहीं कर पातीं। वे निर्विकार, निर्लिप्त एवं निस्पृह बने रहकर आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रगामी बने रहते हैं।

प्रकृति प्रेरणा से तीन शरीरों तक विकास हर व्यक्ति का अन्य जीवों की तरह अपने आप होता रहता पर इसके आगे के सूक्ष्मतम शरीरों के आयामों के लिए स्वयं साधना पुरुषार्थ करना पड़ता है। सप्तलोकों में एक से बढ़कर एक सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ का उल्लेख शास्त्र ग्रंथों में मिलता है। वे सभी विभूतियाँ, ऋद्धियां एवं सिद्धियां मनुष्य के भीतर विद्यमान इन गहन परतों में सन्निहित हैं। भौतिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ उन्हें ही करतलगत होती हैं, जो असाधारण पुरुषार्थ के लिए साहस जुटाते हैं। इससे भी आगे की आत्मिक क्षेत्र की चमत्कारी विभूतियाँ उन्हें ही प्राप्त होती हैं, जो उच्चस्तरीय साधना पुरुषार्थ के लिए साहस संजोते तथा तत्पर होते हैं। आध्यात्मिक जगत की इस रीति नीति से अवगत होना हर मनुष्य शरीर धारी जीव के लिये अनिवार्य है। इस ज्ञान को पाकर ढर्रे का जीवन न जीकर कुछ ऊंचा कर गुजरना एवं अधिक न सही तो भौतिक दृष्टि से ही लाभान्वित हो सकना हर किसी के लिये सहज ही शक्य है।


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