कायाकल्प कितना सम्भव कितना असम्भव

March 1983

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काया कल्प की चर्चा बहुत होती रहती है और वृद्धता को यौवन में बदलने के स्वप्न देखे जाते रहते हैं। इसका एक पक्ष सम्भावित है और दूसरा असम्भव। सम्भव यह है कि मनुष्य अपनी कार्य क्षमता को आजीवन बनाए रहे और स्वास्थ्य को बिगड़ने न दे। रोगों के चंगुल में न फंसे। असंभव यह है कि सृष्टि क्रम उलट जाय। बुड्ढे जवान, जवान किशोर बच्चे, भ्रूण और भ्रूण शुक्राणु बनने के लिए उल्टी दिशा में चलने लगें। यह प्रकृतिक्रम को उलट देने के सदृश है। इसे सूर्य को पश्चिम से उगाने और पूर्व में डुबाने की तरह, प्रकृतिक्रम को उलटने के मनसूबों की तरह असम्भव ही कहा जा सकता है। जो वार्धक्य को यौवन में उलट सकेगा उसके लिए नई सृष्टि बना देना और प्रकृति के नये नियम निर्धारित कर गुजरना भी सम्भव हो जायगा। वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा बन पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। इसलिए यह जल्पना तो छोड़ ही देनी चाहिए कि मृतकों को बूढ़ा और बूढ़ों को जवान बनाने की बात बन सकेगी।

इस संदर्भ में इतना ही हो सकता है कि मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक लम्बी अवधि तक जी सकता है और इस अवधि में उसे जो बार-बार रुग्णताग्रस्त होना पड़ता है उससे बच सकता है। स्वाभाविक समर्थता को देर तक स्थिर रखे रहना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। अधिकांश तो अपने ही उद्धत आचरण से समय से बहुत पहले मरते हैं और इस प्रकार भी जितने दिन जीते हैं उनमें से अधिकाँश को दुर्बलता, असमर्थता, रुग्णता का त्रास सहते हुए अनुपयोगी बना देते हैं। उस स्थिति में कोई कहने लायक पुरुषार्थ भी नहीं बन पड़ता। साथ ही जितने दिन गुजरते हैं वे भी नीरस एवं भारभूत स्थिति में रहते हुए व्यतीत होते हैं। यह मनुष्य की स्वनिर्मित स्थिति है। इससे समझदारी अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति सहज ही बच सकता है। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि अमरता न सही, समर्थ, प्रसन्न और सफल जीवन जी सकने का सुयोग बन गया।

स्वस्थ और समर्थ दीर्घजीवन के लिए आहार-बिहार के संयम का राजमार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है। इस दिशा में खोजी गई पगडण्डियों में से प्रायः सभी असफल सिद्ध हुई हैं। विधाता ने इस क्षेत्र में किसी ‘शाटर्कट’ की गुंजाइश नहीं रखी है। च्यवन प्राशावलेह से लेकर पारद विनिर्मित सिद्ध मकरध्वज के विभिन्न प्रयोगों का अपने देश में चिरकाल से यशेगान होता रहा है। पौराणिक गाथाओं से उत्साहित होकर महामना मालवीय जी तक कायाकल्प उपचार कराने के लिए तत्पर हुए। अमीरों के लिए राजवैद्यों द्वारा तरह-तरह के कीमिया कुश्ते बनाने में उनकी हैसियत के अनुरूप खर्च कराने वाले चित्र-विचित्र सरंजाम खड़े किये जाते रहे हैं पर इनमें किन्हें कितनी सफलता मिली, इसका पर्यवेक्षण किंवदंतियों से आगे बढ़कर जब किया जाता है तो कुछ सार सार हाथ नहीं लगता।

बुड्ढों को जवान बनाने के जादुई उपचारों की समय-समय पर जोर आज़माइश होती रही है। इनमें से एक है प्रौढ़ पशुओं के यौवन रस को मनुष्य शरीर में प्रविष्ट कराना। इसके लिए बंदरों की आफत आई और उनके अन्दर कोशों का रस निचोड़कर या अवयवों का आरोपण करके यौवन वापिस बुलाने का स्वप्न देखा गया। स्टालिन, ब्रेझनेव, चर्चिल, टीटो आदि मूर्धन्य राजनेताओं के नाम ऐसे लोगों में सम्मिलित हैं जिनकी जवानी वापस लौटाने के लिए विशेषज्ञों ने प्राणपण से प्रयत्न किए। किन्तु क्षणिक कौतूहलों के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा। छुटभैयों में तो सहस्रों ऐसे हैं जो इस आशा में दौलत पानी की तरह बहाते रहे। चिकित्सक कर तो बहुत कुछ सकते हैं पर इतना आगे तक वे भी नहीं बढ़ सके कि नियति व्यवस्था को उलट सकने में समर्थ हो सकें। जो बुड्ढे को जवान बना सकेगा वह जवान को बच्चा, बच्चों को नवजात, नवजात को भ्रूण और भ्रूण को शुक्राणु बनाने में भी क्यों असफल रहेगा। ऐसे लोग शायद सूर्य को पश्चिम में उगाने और बादलों से अनाज बरसाने में भी समर्थ होंगे। प्रकृति क्रम को सकने उलट सकने वाला मात्र बुड्ढे को जवान बनाकर ही चुप क्यों बैठेगा? वह नियति व्यवस्था को अपनी इच्छानुकूल बनाने वाले अन्य क्रम अपनाने से भी चूकेगा क्यों?

तब क्या इस सम्बन्ध में कुछ सोचने या करने की आवश्यकता ही नहीं? ऐसी निराशा में पड़ने की भी कोई बात नहीं है। मानवी संरचना में यह पूरी गुंजाइश है कि सामान्यतः 200 वर्ष तक और विशेष रूप से 200 वर्ष तक जीवित रहना सम्भव हो सके और इस अवधि में इंद्रियां भली प्रकार काम देती रह सकें। अवयवों की संरचना का पर्यवेक्षण करने वाले मानवी आयुष्य इतना होने की बात को तथ्य पर आधारित सिद्ध करते हैं। इन दिनों भी संसार में ऐसे लोग जीवित हैं जो प्रायः 150 वर्ष पूरे कर चूके और अभी देर तक जीवित रहने की आशा करते हैं। शतायु लोगों की संख्या तो अभी भी हजारों को पार कर लाख का अंक छू रही होगी। ऐसी दशा में यह क्या बुरा है कि आम आदमी से प्रायः तीन गुनी इस अवधि को भी स्वाभाविक और संभावित मानकर चला जाय और उसके लिए उस मार्ग को अपनाया जाय जो किसी के लिए भी कठिन नहीं है। उसमें प्रस्तुत असंयम पर अंकुश लगाने और प्राणिमात्र द्वारा अपनाई जा रही प्रकृति प्रेरणा का अनुसरण करने मात्र की समझदारी अपनाई जाय।

स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रहने वाले अवयवों में तीन प्रधान हैं। एक आमाशय, दूसरा हृदय और तीसरा मस्तिष्क। इन तीनों को हम अवांछनीय दुर्व्यवहार अपनाकर बेतरह तोड़ते, उजाड़ते रहते हैं। यदि इस आत्मघात की हानि को समझा जा सके और अपने हाथों अपना घर जलाने का कौतुक रचने से बचा जा सके तो इतने भर से वह प्रयोजन पूरा हो जाता है जिसके द्वारा दीर्घायुष्य का लाभ लेने के मार्ग में प्रस्तुत होते रहने वाले समस्त व्यवधानों से छुटकारा पाया जा सके।

इस संदर्भ में विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा इन्हीं दिनों प्रकाश में आई है जिसका नाम है- जेरेण्टोलॉजी। जिसका अर्थ वार्धक्य (एजींग) की समस्या पर प्रकाश डालने वाला पर्यवेक्षण। इस शाखा के निष्णात कहते हैं, मनुष्य बिना किसी कठिनाई का सामना किए या विशेष उपचारों के फेर में पड़े आसानी से 110 वर्ष जी सकता है। विशेष परिस्थितियों में इससे अधिक भी। जो इससे पूर्व मरते हैं उन्हें अकाल मृत्यु से अथवा आत्महत्या से मरे हुओं में गिना जाना चाहिए।

जेरेण्टोलॉजी के विशेषज्ञ कहते हैं कि आदमी अमर तो नहीं हो सकता और न बुढ़ापा रोका जा सकता है पर उतना अवश्य हो सकता है कि वृद्धावस्था किसी को भी अपंग परावलम्बी होने की स्थिति न पहुंचाये और मनुष्य मरते समय तक अपनी जीवनचर्या भली प्रकार निभाता हुआ किसी के लिए भार न बने। यहाँ तक कि कुछ न कुछ उत्पादक श्रम भी करते रहने की स्थिति में बना रहे। शरीर और मस्तिष्क की क्षमता घटने पर उस स्थिति में काम का स्तर हलका-फुलका रहना चाहिए। यह स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है। काम के दबाव से शरीर को बेतरह दबाने या मस्तिष्क को तनाव की स्थिति में जकड़ने वाले काम ही कठिनाई उत्पन्न करते हैं अन्यथा बालकों की तरह हँसते-खेलते काम करते रहने में शरीर की हानि नहीं होती वरन् पाचन कृत्य में सहायता ही मिलती है।

स्विट्जरलैंड के स्वास्थ्य विज्ञानी ग्यानोली का कहना है कि आहार का वर्तमान प्रचलन शरीर पोषण की दृष्टि से सर्वथा अनुपयुक्त है। उसे बदला जाना चाहिए। आदमी को शाकाहार पर गुजारे की आदत डालनी चाहिए और भरपेट खाने के वर्तमान ढर्रे को उलटकर ऐसा होना चाहिए कि आधे पेट से अधिक आहार उदरस्थ न किया जाय। दो बार खाना बहुत है। जलपान का रिवाज बन्द होना चाहिए। बीच-बीच में खाने की आवश्यकता पड़े तो वह दूध, छाछ, रस, रसा आदि पेय पौष्टिकों के सहारे पूरी करनी चाहिए। देर तक चबाने और सप्ताह में एक बार उपवास करने की भी पेट को ठीक रखने के लिए आवश्यकता पड़ती है। जो इतना कर सकेंगे उनका पाचन तन्त्र सही बना रहेगा और अकाल मृत्यु के खतरे से बहुत हद तक बचा जा सकेगा। आहार विज्ञानियों का मत है कि आरोग्य और खाद्य प्रक्रिया का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो जीवन को महत्वपूर्ण मानते हैं और बिना रुग्ण असमर्थ हुए देर तक अपनी कार्यक्षमता बनाए रखना चाहते हैं उन्हें उस पद्धति को बदलना चाहिए जो आजकल लोक व्यवहार में आती है।

हृदय विशेषज्ञ डॉ डिवैकी का कहना है कि शारीरिक श्रम की न्यूनाधिकता से न केवल पाचन वरन् श्वास प्रक्रिया एवं रक्त संचार तन्त्र में व्यवधान उत्पन्न होता है। उन्हें या ता दबाव में पिसना या फिर ठालीपन के कारण निष्क्रियता की व्यथा में फँसना पड़ता है। जिस प्रकार पेट का गुजारा आहार बिना नहीं उसी प्रकार रक्त संस्थान की सक्षमता के लिए श्रम सन्तुलन आवश्यक है। अधिक श्रम के कारण उत्पन्न हुई थकान पर जिस प्रकार चिन्ता की जाती है उसी प्रकार निठल्लेपन के कारण जकड़न की अर्धमृतक जैसी स्थिति रहने की हानि पर भी गौर करना चाहिए। श्रम से किसी को भी नहीं बचना चाहिए अन्यथा पाचन और परिशोधन व्यवस्था गड़बड़ाने पर वैसा स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होगा जैसा कि आमतौर से बुद्धिजीवियों या अमीरों पर छाया रहता है।

रूसी मनःशास्त्री मायरोवस्की कहते हैं- हलका-फुलका जीवन जीने, हँसते-हँसाते रहने की आदत दीर्घ जीवन के नितान्त आवश्यक है। महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी भरे कामों को करने के लिए चिन्ताग्रस्त या उद्विग्न रहने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। वे सन्तुलित मनःस्थिति में ही ठीक तरह निभ सकते हैं। ऐसी स्थिति बनाए रहने के लिए आवश्यक है कि अवसाद या आवेश से ग्रसित होने की आदत से पीछा छुड़ाया जाय। यह असन्तुलन कामों के भारी होने या कठिनाइयाँ रहने के कारण नहीं, मस्तिष्क विद्या से अपरिचित होने के कारण होता है। यह नितान्त सम्भव है कि बड़े कामों का वजन उठाते हुए भी, अनेकों समस्याओं का समाधान या सामना करते हुए भी हलकी मनःस्थिति बनाए रखी जाय। मानसिक दबाव का आरोग्य से गहरा सम्बन्ध है, इस तथ्य को भली भांति समझ लेना चाहिए।

डॉ. कैमण्ट का कथन है- आरोग्य का विपुल भण्डार मनुष्य को प्रकृति के अनुग्रह से अनायास ही मिला हुआ है। अब समझदारी की बारी है कि वह इस सम्पदा को किस प्रकार सुरक्षित रखे और किस प्रकार इसका सदुपयोग करके पूर्णायुष्य प्राप्त करे। कौन कितने दिन तक जिया, इसका वास्तविक मूल्यांकन यह है कि किसने किस स्तर का कितना काम सही तरीके से सम्पन्न किया। इसके लिए शारीरिक, मानसिक आरोग्य बनाये रहने की सर्वप्रथम आवश्यकता पड़ती है। स्पष्ट है कि इसके लिये नये उपचार खोजने की आवश्यकता नहीं। काम इतने से ही चल जाता है कि पेट, हृदय और मस्तिष्क को अनावश्यक दबावों से बचाकर उन्हें स्वतन्त्रतापूर्वक काम करते रहने का अवसर दिया जाय। यही वास्तविक कायाकल्प है। इस शब्द के अनावश्यक भ्रम जंजाल में उलझने वालों को नीरोग प्राकृतिक जीवन जीने, मन को पवित्र हलका-फुलका बनाने एवं शरीर को यथा सम्भव श्रम-विश्राम का सन्तुलित अभ्यास कराते हुए ही चिरयौवन की बात सोचना चाहिए।


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