मार्क्स हिल्स 12 वर्ष की आयु में पेड़ पर शौक-शौक में चढ़ा। पैर फिसला तो धड़ाम से गिरा और उसकी हड्डी पसली चकनाचूर हो गई। माँस के लोथड़े की तरह उसे अस्पताल में भर्ती किया गया। बचने की उम्मीद न थी तो वह बच गया। हड्डियां ज्यों-त्यों करके जोड़ी गई और उसे दस महीने तक इस प्रकार उलटा-पुलटा अस्पताल के पलंग से कसकर रखा जाता रहा ताकि हड्डियां जुड़ सकें। वे ओंधी-सीधी जुड़ तो गईं पर बेचारा हो गया सर्वथा अपाहिज-कुरूप। दिखने में भोंडा। चलने फिरने में असमर्थ। हाथ भी थोड़ा सहारा भर देते थे। कुछ करने योग्य नहीं बन सके। गरदन भी इतनी जकड़ गई कि वह थोड़ी सी इधर-उधर मुड़ सकती थी। पहियेदार कुर्सी पर बैठकर ही उसे छोटे बच्चों की तरह इधर-उधर ले जाया सकता था।
इस प्रकार दिन काटने उसे भारी पड़ गये। उन दिनों वह कैलीफोर्निया में मैन हैटन तट पर अपने परिवार के साथ रहता था। पिता अध्यापक की नौकरी करते थे। पूरे परिवार का गुजारा उसी से चलता था। इस गरीबी में भी उनने बच्चों की उपेक्षा नहीं की। यहाँ तक कि मार्क्स हिल्स के अपंग होने पर भी उसकी ओर से निराश नहीं हुए और यही समझाते रहे कि आंखें और दिमाग सही सलामत होने पर हाथ पैरों की अपंगता प्रगति पथ पर बढ़ने में बाधक नहीं हो सकती। कुछ सोचो और कुछ करो हम सहायता करेंगे।
मार्क्स जब गिरा था उससे पूर्व उसे ड्राइंग का शौक था। वह उसे पूरा करना चाहता था, पर हाथ जरा भी सहायता नहीं करते थे। इसी दशा में उसने मुँह से पेन्सिल पकड़ कर चित्र बनाने शुरू किये। पेन्सिल छोटी तथा कड़ी होने से आंखें मोड़नी पड़ती थीं तथा दांतों की जड़ें छिलती थीं। इस कठिनाई का हल उसके पाँव से निकाला। ऐलमूनियम और रबड़ को मिलाकर एक ऐसी नली बनाई जिसमें पेन्सिल या ब्रुश लगाकर दूर तक ले जाया जा सके। इससे आंखों और दांतों पर दबाव पड़ना बन्द हो गया और उसे चित्र बनाने में सुविधा होने लगी। पेन्सिल का अभ्यास आगे बढ़ा तो उसने ब्रुश पकड़ा और बढ़िया चित्र बनाने लगा।
आगे पढ़ने के लिए उसने लास एंजेलस स्थित यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया में प्रवेश पाने का आवेदन किया। इंटरव्यू के लिए जब वह उपस्थिति हुआ तो परीक्षक अवाक् रह गये कि कैसे वह मुंह से लम्बी नली लगाकर बढ़िया चित्र बना लेता है। उसे प्रवेश मिल गया। अब उसके उत्साह का ठिकाना न था। दूने चौगुने साहस के साथ प्रयत्न करने लगा। खुश भी बहुत रहता था। मित्रों से कभी-कभी मजाक में कहता- “यदि मेरे जबड़े की तरह शरीर की अन्य मांस पेशियां भी मजबूत होतीं तो मैं इस मकान को कन्धे पर उठाये-उठाये फिरता।”
उसने न केवल चित्र कला सीखी वरन् अध्ययन भी जारी रखा और आर्ट कालेज के मेधावी छात्रों में गिना जाने लगा, सफल चित्रकारों में उसकी गणना होने लगी।
साथी छात्रगण उसकी लगन और साहसिकता पर मुग्ध थे। उनके विश्व विद्यालय के डीन से प्रार्थना की गयी कि अपंगता को चुनौती देने वाली इस प्रतिभा का एक फिल्म बनाना चाहिए जो पिछड़ों में उत्साह जगाने का काम कर सके। छात्रों की समिति के इस प्रस्ताव को डीन ने तत्काल स्वीकार कर लिया। साथ ही 6000 डालर का अनुदान भी मंजूर कर दिया। रंगीन बोलती फिल्म बनी। पैसे की कमी पड़ी तो अन्यत्र से उसकी पूर्ति हुई। अन्ततः उसे अमेरिका के छात्रों में, विशेषतया बाधितों में उसे दिखाया गया। इससे कितनों ने ही नये सिरे से सोचना और प्रयास करना आरम्भ कर दिया।
गोल्डन ग्रेट पुरस्कार प्राप्त इस फिल्म का नाम था- ‘ग्रेविटी इज माई ऐनिमी’ अर्थात् गुरुत्वाकर्षण मेरा दुश्मन। इस फिल्म में गिराने वाली परिस्थितियों की तुलना पृथ्वी की ग्रेविटी से की गई है और सिद्ध किया गया है कि साहस के आधार पर किसी भी प्रकार की गिरावट के माहौल से जूझा जा सकता है, जीवन को नयी दिशा दी जा सकती है।