अपने अन्तः के उपेक्षित कल्प वृक्ष को जगायें

March 1983

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प्रत्यक्ष शरीर दीखता है। साज, संभाल एवं श्रृंगार भी उसी का सर्वाधिक किया जाता है। काया के पोषण एवं विकास पर ढेरों समय एवं साधन खर्च किये जाते हैं। बहुमूल्य आहार जुटाने जैसे बलवर्धक साधनों से लेकर आसन-व्यायाम आदि का उपक्रम अपनाया जाता है। स्वस्थ नीरोग रखने के लिए उपचार आदि की व्यवस्था बनायी जाती है। कितने ही व्यक्ति अपना सौंदर्य निखारने के लिए कृत्रिम संसाधनों का प्रयोग करते देखे जाते है। स्वस्थ एवं सुन्दर दीखने के लिए हर व्यक्ति अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने-अपने स्तर पर प्रयास करता है। इस प्रयास में सफलता कितनों को मिलती है, यह बात अलग है, पर यह तो सुनिश्चित है कि अधिकांश व्यक्ति अपने शरीर के लिए प्रचुर समय, धन एवं शक्ति खर्च करते हैं।

शरीर के बाद आज के विज्ञजनों ने बुद्धि को महत्व दिया है। बुद्धि अर्थात् ‘इन्टेलीजेन्स’, जो प्रतिभा निखारने योग्यता बढ़ाने में काम आती है। बुद्धि को पैना बनाने तथा बढ़ाने के लिए भी तरह-तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं। स्कूली शिक्षा से बौद्धिक क्षमताओं का ही विकास होता है। वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ- प्रतिस्पर्धाएं भी इसीलिए आयोजित कि जाती हैं कि प्रतिभा निखरती चले। इस प्रयास में सफलता भी मिली है। बुद्धि की दृष्टि से आज का मनुष्य पुरातन की तुलना में कहीं आगे है और इस दिशा में वह निरन्तर ही आगे बढ़ता चला जा रहा है।

मानवी व्यक्तित्व की इन दो स्थूल परतों-शरीर और बुद्धि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। मन इन दोनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्षतया उसकी भूमिका नहीं दीख पड़ने से अधिकाँश व्यक्ति उसे महत्व भी नहीं देते। प्रायः वह उपेक्षित ही बना रहता है। यह एक सबसे बड़ी विडम्बना है कि व्यक्तित्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परत उपेक्षा की गर्त में पड़ी है। शरीर एवं बुद्धि- न केवल मन के इशारे पर चलते हैं, वरन् उसकी भली-बुरी स्थिति से असामान्य रूप से प्रभावित भी होते हैं, इस तथ्य का समर्थन आधुनिक मनोविज्ञान भी निर्विवाद करने लगा है। व्यक्तित्व के इतने मूल्यवान घटक पर ध्यान न दिया जाय, उसकी साज-सम्भाल न की जाय, उसे स्वस्थ संतुलित रखने का प्रयास न किया जाय तो इससे बढ़कर आज के बुद्धिमान मनुष्य की भूल दूसरी और कोई नहीं हो सकती।

पोषण एवं सन्तुलन के अभाव में काया भी रुग्ण बन जाती है। अपनी सामर्थ्य गंवा बैठती है। वैचारिक खुराक न मिले तो बुद्धि की प्रखरता मारी जाती है। अधिक से अधिक वे जीवन-शकट को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिली है। फलतः उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ा है। निरुद्देश्य भटकती एवं मचलती हुई इच्छाओं, आकांक्षाओं का एक नगण्य स्वरूप ही मन की क्षमता के रूप में सामने आ सका है। मनोबल संकल्प बल की प्रचण्ड सामर्थ्य तो यत्किंचित् व्यक्तियों में ही दिखायी पड़ती है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड सामर्थ्य को न तो उभारते ही बनता है और न ही लाभ उठाते। मन को सशक्त बनाना उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं सन्तुलित रखना भी कठिन पड़ रहा है। फलतः रुग्णता की स्थिति में वह विकृत आकांक्षाओं, इच्छाओं को ही जनम देता है। इच्छाएँ मानवी व्यक्तित्व की, स्वास्थ्य सन्तुलन एवं विकास की प्रेरणा स्रोत होती है। उनका स्तर निकृष्ट होने पर मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार में श्रेष्ठता की आशा भला कैसे की जा सकती है। रुग्ण मानस रुग्ण समाज को ही जन्म देगा। मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती।

वैज्ञानिक क्षेत्र के नये अनुसंधानों ने प्रचलित कितने ही सिद्धांतों का खण्डन किया है। कितनी ही नयी प्रतिस्थापनाएँ हुई हैं तथा कितने ही सिद्धांतों में उलट-फेर करने के लिए विवश होना पड़ा है। अब धीरे-धीरे स्थूल के ऊपर से विश्वास टूटता जा रहा है। पदार्थ ही नहीं कायिक स्वास्थ्य के संबंध में भी प्रचलित धारणाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने की सम्भावना नजर आने लगी है। मनोविज्ञान ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्घाटन किया है कि मनःसंस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। मन का उपचार यदि ठीक ढंग से किया जा सके तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है, जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न हो पाने वाला माना जाता है।

चिकित्सा जगत में ‘बिहेवियोरल मेडिसिन’ के विकास से उपचार की सर्वथा एक नयी मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ है। इस उपचार प्रक्रिया में विशेषज्ञों ने मन और शरीर को एक कड़ी का दो छोर माना है। इसके आधारभूत प्रयोगों में न्यूरोकेमिकल्स को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। बिहेवियोरल मेडिसिन के आविष्कारकों का मत है कि मन के भावनात्मक दबाव एवं तद्जन्य तनाव ही रोगोत्पादन के कारण बनते हैं।

‘बिहेवियोरल मेडिसिन’ चिकित्सा पद्धति का विकास सन् 1977 में येल विश्वविद्यालय (यू.एस.ए.) में हुआ। इसमें एन्थ्रोपोलॉजी, सोशियोलॉजी, एपिडेनिओलॉजी, साइकोलॉजी, साइकियाट्री, मेडिसिन तथा प्रारम्भिक जीवविज्ञान जैसे अनेकों विषयों का अध्ययन सम्मिलित था। संस्थान की व्यवस्था यहाँ पर सम्भालते हैं- मनःशास्त्री स्टीफेन एमवेस। इसकी शाखाएँ हृदय फेफड़ा, रक्त, संस्थान से सम्बन्धित मनोशारीरिक रोगों के उपचार के लिए खोली गयी हैं। मनःचिकित्सक डेविड हैमबर्ग के नेतृत्व में बिहेवियोरल मेडिसिन के प्रयोग परीक्षण के लिए एक एकेडेमी की स्थापना भी हुई है। संस्थान से एक मासिक जर्नल ‘दी जर्नल ऑफ बिहेवियोरल मेडिसिन’ नियमित रूप से प्रकाशित होती है, जिसमें इस उपचार पद्धति की नयी जानकारियों का प्रकाशन होता है।

उपचार पद्धति साइकोसोमैटिक मेडिसिन पर अवलम्बित है। शोध कार्य में लगे विशेषज्ञों का यह दृढ़ विश्वास है कि मन और शरीर के क्रिया-कलाप पूर्णतः एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। इनके बीच थोड़ा भी असन्तुलन कैंसर, मल्टीपुल स्केलेरोसिस आर्थ्राइटिस, माइग्रेन हेडेक, डॉयबिटीज तथा हृदय रोगों का कारण बन सकता है। ‘न्यूरो एण्डोक्राइनालॉजी’ की नयी खोजों के अनुसार सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम तथा ‘एण्डोक्राइन सिस्टम’ एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर के हारमोन्स न्यूरोट्रान्समीटर के रूप में क्रियाशील होते हैं। इन्हें सक्रिय बनाने के लिए बिहेवियोरल मेडिसिन की इस पद्धति में रोगोपचार हेतु रिलेक्सेशन, बायोफिडबैक आदि का का निरापद प्रयोग आरम्भ किया गया है। इससे यह आशा बंधती है कि मनोशारीरिक रोगों का उपचार अब सम्भव हो सकेगा। चिकित्सा जगत की असाधारण प्रगति के बावजूद कैंसर जैसे रोग आज भी असाध्य बने हुए हैं। अनेकानेक उपचार असफल सिद्ध हो रहे हैं। शरीर शास्त्रियों को वे सूत्र पकड़ में नहीं आ रहे हैं कि शरीर के किसी विशेष की कोशिकाएँ क्यों बागी हो जाती हैं, क्यों अपना सामान्य क्रम छोड़ बैठती हैं, उन्हें कैसे इस असामान्य व्यवहार से रोका जा सकता है? लम्बी माथापच्ची के बाद भी ये प्रश्न जैसे के तैसे बने हुए हैं तथा मानवी मस्तिष्क को चुनौती देते हैं। अब सोचा जा रहा है कि कैंसर की जड़ें व्यक्तित्व की कहीं अधिक सूक्ष्म परतों में विद्यमान होनी चाहिए। जब निदान ही सम्भव नहीं हो पा रहा तो उपचार कैसे सम्भव होगा? ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि कैंसर की जड़ें शरीर में न होकर मनःक्षेत्र में है तथा इस रोग का जन्मदाता भी मन ही होना चाहिए।

अमेरिका के रोचेस्टर विश्व विद्यालय द्वारा किये गये अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि किसी व्यक्ति का जीवन के प्रति अतिशय निराशाजनक चिन्तन कैंसर रोग को जन्म दे सकता है। फोटवर्थ टैक्सास के डॉ. कार्ल साइमन्टन ने कैंसर के रोगियों का उपचार ‘रेडियेशन’, ‘केमोथेरेपी’ तथा ’शल्य’ क्रिया की परम्परागत उपचार पद्धति से अलग हटकर रिलैक्सेशन (शिथिलीकरण) और विजुवलाइजेशन (आत्म निरीक्षण) पद्धति से कर रहे हैं। इसमें रोगियों को नियमित रूप से दिन में तीन बार प्रातः उठते समय, दोपहर और रात्रि सोते समय 15-15 मिनट का ध्यान करने को कहा जाता है, इस साधना में रोगी ‘आटोसजेशन’ का अभ्यास करता है तथा यह भावना करता है कि उसका मन शान्त सन्तुलित और स्वस्थ हो रहा है। दूसरे चरण में उसे कैंसर ग्रस्त स्थान पर ध्यान करना पड़ता है, जिसमें वह प्रबल भावना का आरोपण करता है कि शरीर के श्वेत कण कैन्सरग्रस्त स्थान पर एकत्रित हो रहे हैं तथा रुग्ण कोशिकाओं को शरीर के बाहर निकाल रहे हैं। रोगियों को सदा प्रसन्नचित रहने तथा आशावादी दृष्टिकोण अपनाये रखने का ही निर्देश दिया जाता है। डॉ. साइमन्टन को अब तक डेढ़ सौ से भी अधिक कैंसर के रोगियों के उपचार में पूर्ण सफलता मिली है। स्वस्थ रोगियों में से अधिकांश वे हैं, जो आशावादी विचारणा के थे।

जर्मनी के एक चिकित्सक डॉ. हैमर ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को अपने मत द्वारा चुनौती दी है तथा यह कहा है कि कैंसर रोग की उत्पत्ति का कारण मानव मन है। यह बीमारी विषैले वातावरण, जीवाणु, आनुवांशिक खामियों के कारण नहीं, मरीज के स्वयं के मानसिक संघर्षों के कारण पैदा होती है। डॉ. हैमर स्वयं भी कभी कैंसर के रोगी थे। उनके रोग के साथ एक मर्मस्पर्शी घटना जुड़ी है। डॉ. हैमर के पुत्र डर्क को 1978 में इटली के एक व्यक्ति ने गोली मार दी थी। चार महीने तक उपचार चलता रहा, पर कोई फायदा न हुआ। डर्क की मर्मान्तक पीड़ा को अपने ही नेत्रों से डॉ. हैमर नित देखते थे। अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी। पुत्र को तिल-तिलकर मरते हुए देखने से उन्हें तीव्र मानसिक विक्षोभों से होकर गुजरना पड़ा। निरन्तर के मानसिक संघर्षों ने ही कैंसर को जन्म दिया, डॉ. हैमर का यह निश्चित विश्वास है।

अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने क्यूनिख, रोम, कोल, कोलोन के विभिन्न अस्पतालों में 400 रोगियों की जाँच पड़ताल की। जिससे उनकी धारणा और भी परिपुष्ट होती चली गयी। अपने मत का उन्होंने जर्मनी के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन कराया। चिकित्सा जगत की प्रचलित मान्यताओं से मेल खाने के कारण उनका चारों ओर विरोध हुआ। विशेषकर आधुनिक चिकित्सा पद्धति के प्रतिपादनों द्वारा डॉ. हैमर ने विरोध देखते हुए अपनी मान्यताओं को और अधिक मजबूत करने के लिए देश छोड़ना व बाहर जाकर प्रयोग करना अधिक उपयुक्त समझा। इन दिनों वे रोम में जाकर बस गये हैं तथा अपने शोध कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

वस्तुस्थिति को वैज्ञानिक कसौटियों पर कसा जाना अभी शेष है कि कैंसर जैसे गम्भीर रोगों को उत्पन्न करने में मनःस्थिति कहाँ तक जिम्मेदार है तथा किस तरह की भूमिका सम्पादित करती है, पर जो तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं उनसे यह सम्भावना प्रबल होती जा रही है कि गम्भीर तथा असाध्य रोगों को जन्म देने में मन की अहम् भूमिका हो सकती है। इंग्लैंड की एक महिला पैट्रिक का रोचक केस आज भी चिकित्साविदों के लिए एक रहस्य बना हुआ है। चिकित्सकों ने उसे ब्रैस्ट कैंसर घोषित किया था। यदि निदान प्रारम्भ में हो गया होता तो उन्हें बचाये जाने की भी सम्भावना थी। कैंसर रोग की शुरुआत की स्थिति में निदान के लिए एवं सर्जरी के लिए जो यन्त्र आवश्यक थे, वे लन्दन के अतिरिक्त और कहीं नहीं थे। महिला के लिए उन्हें स्वयं के उपचार के लिए जुटा पाना प्रायः असम्भव था चिकित्सकों ने घोषणा की थी- “रोग की गम्भीरता के कारण छह माह बाद वे मर जायेंगी।” घोर निराशा की स्थिति में इस महिला ने सोचा- “मेरा मरना तो सुनिश्चित है। क्यों न ही जीवन के अवशेष दिनों का उपयोग ऐसे कार्य में किया जाय ताकि अन्य रोगियों को मेरी तरह घुट-घुटकर न मरना पड़े।” रेडियो एवं टेलीविजन सेवाधिकारियों की सहानुभूति अर्जित करके उसने यह प्रसारण कराया- “मैं एक वक्ष कैंसर से पीड़ित महिला हूं। छह माह बाद मेरी मृत्यु सुनिश्चित है। कैंसर के रोगियों के प्रारम्भिक निदान के लिए “कैटस्केन” यन्त्र आवश्यक है। मेरी इच्छा एक ऐसे कम्प्यूटराइज्ड एक्जियल टोमोग्राफी युक्त यूनिट की स्थापना है ताकि दूसरे रोगियों का इलाज हो सके। मेरी याचना एवं पीड़ा पर आप सब ध्यान दें तथा आर्थिक मदद करे।”

इस प्रसारण का अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा। इतना अधिक चन्दा एकत्रित हुआ कि उसकी व्यवस्था बनाने के लिए पैट्रिक को एक पूरा स्टाफ रखना पड़ा। करोड़ों की लागत से बनने वाले दर्जनों ऐसे कैंसर उपचार केंद्रों का निमार्ण सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में हो गया। तब तक नो माह का समय गुजर चुका था। अपने कैंसर रोग को इस व्यस्तता के कारण लगभग वह भूल चुकी थी। श्रेष्ठ प्रयोजन में मिली असाधारण सफलता की प्रसन्नता में उसे कुछ भी याद न रहा। एक दिन उसके एक अभिन्न मित्र ने याद दिलाया कि चिकित्सकों ने छह माह बाद ब्रैस्ट कैंसर के कारण उसके मर जाने की भविष्य वाणी की थी। एक झटका सा लगा और पैट्रिक ने अपने ही बनवाये हुए एक कैंसर निदान उपचार केन्द्र में विशेषज्ञों की एक टोली द्वारा पूरा परीक्षण कराया। चिकित्सकों को यह देखकर आश्चर्य का पारावार न रहा कि पैट्रिक के वक्ष में कैंसर का नामोनिशान नहीं है। लंबे समय तक खोज-बीन चलती रही, पर यह रहस्योद्घाटन न हो सका कि बिना किसी उपचार के पैट्रिक असाध्य बैस्ट कैंसर के रोग से मुक्त कैसे हो गयी। मनःशास्त्रियों ने अपना मत व्यक्त करते हुए यह सम्भावना व्यक्त की कि- “पैट्रिक की परमार्थ भावना, रचनात्मक दृष्टिकोण तथा प्रसन्नचित मनःस्थिति आदि के समन्वय से प्रचण्ड मनोबल का उद्भव हुआ जो कैसरग्रस्तह कोशिकाओं के कायाकल्प का कारण बना।

शरीर एवं बुद्धि की अपेक्षा मानसिक सामर्थ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। रचना, सामर्थ्य एवं सम्भावना की दृष्टि से भी वह इन दोनों की तुलना में भारी ही बैठती है। आधुनिक मनोवेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि मन के सन्तुलन एवं विकास पर अब अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। सामर्थ्यों एवं संभावनाओं का यह महत्वपूर्ण स्रोत यदि उपेक्षित ही पड़ा रहा, तो स्वास्थ्य एवं आरोग्य को स्थायी रूप से सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। मात्र मन को ही समुचित दिशा दे देने से कायिक अवरोध तथा अस्त-व्यस्तताओं पर नियन्त्रण पाया जा सकना सम्भव है। अब विज्ञान की मुहर भी लग जाने से इस चिकित्सा-प्रक्रिया को और भी सशक्त स्वर से कहा व प्रतिपादित किया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा को मानने वाले विद्वानों को भी मानवी अंतस् के उपेक्षित से पड़े कल्पवृक्ष मानव-मन को अब मान्यता देकर इसकी सामर्थ्यों का लाभ सब को देना चाहिए.


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